लोक प्रशासन का सामाजिक परिवेश
लोक प्रशासन का सामाजिक परिवेश – सामाजिक परिवेश प्रशासन की संरचना, त्रक्रिया और व्यवहार का निरूपण करता है। न केवल भिन्न-भिन्न सामाजिक परिवेश में भिन्न नकार की प्रशासनिक व्यवस्था उभरती हैं बल्कि एक समाज के विकास के विभिन्न स्तरों पर वेद्यमान सामाजिक पृष्ठभूमि के अनुरूप ही लोक प्रशासन स्वयं ढलता है और उसे भी ढालता है। रिग्स के अनुसार बिना सामाजिक व्यवस्था को समझे किसी भी देश की प्रशासनिक व्यवस्था की प्रकृति को नहीं समझा जा सकता। पूर्व सोवियत संघ की व्यवस्था के अध्ययन के पश्चात केलसॉड का निष्कर्ष था कि यदि समाज सत्तात्मक है तो प्रशासन भी सत्तात्मक ही होगा। भारतीय समाज की निम्नांकित विशेषताओं को समझे बिना भारतीय प्रशासन की भूमिका, स्वरूप और लक्षणों को नहीं समझा जा सकता।
जाति- भारतीय समाज की संरचना के आधार जाति (वर्ण) और उपजाति (उप-वर्ण) हैं। ये भारत की आदिम और विशिष्ट समाजशास्त्रीय इकाई हैं। वर्णाश्रम व्यवस्था एक दूसरा शब्द है जो हिन्दू जाति का सामाजिक आधार है जिसकी आबादी भारत की कुल जनसंख्या का 80 प्रतिशत है। वर्णाश्रम व्यवस्था स्तरीकृत और विभाजक है, इसमें पवित्रता और अपवित्रता जैसे द्विभाजक तत्व होते हैं। यह अनेक संकेन्द्रित वृत्तों में विभाजित है। पहले व्यापक चार जाति समूह – वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) हैं। इसके बाद उपवर्ण (जाति) हैं, प्रत्येक भाषायी क्षेत्र में 200 से 300 तक उपवर्ण या जातियाँ हैं। सन् 1901 की जनगणना में भारत में कुल 2, 738 जातियां थी। उसके बाद जाति अनेक गोत्रों में विभाजित है। सम्भवतः वर्ण व्यवस्था का सूत्रपात श्रम और व्यावसायिक वर्गों के विभाजन से हुआ था जो कालान्तर में जन्म पर आधारित कमोवेश सख्त अन्तर्विवाही बन गया। आज यह कर्मकाण्ड, विवाह और वंशागत अन्य सामाजिक परम्परा एवं रीति-रिवाजों तथा अन्तरजातीय गतिविधियों से सम्बन्ध है। वर्ण व्यवस्था का सबसे हानिकारक पक्ष है- पिछड़ी जातियों के प्रति छुआछूत का व्यवहार उनकी उपस्थिति, स्पर्श या सम्पर्क को अपवित्रता का कारण माना जाता है।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से ही सभी राजनीतिक गतिविधियों जैसे-चुनाव, राजनीतिक नियुक्तियों, दलों, इत्यादि में जाति का प्रभाव बढ़ रहा है और यह एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही है।
धर्म एवं साम्प्रदायिकता- जाति प्रथा के अलावा जो मुख्य सामाजिक तत्व भारतीय प्रशासन का परिवेश निर्मित करता है, वह है धर्म एवं साम्प्रदायिकता । भारत में आठ प्रमुख धार्मिक समुदाय साथ-साथ रहते हैं – हिन्दू ( कुल 82.7%), मुस्लिम (11.8%), ईसाई (2.7%), सिख (2%), बौद्ध (0.7%), जैन (0.4%), पारसी (0.3%), और यहूदी (0.1%)। इसके अलावा आदिवासी (8.08% ) हैं जिन्हें जनगणना में हिन्दू मान लिया गया है जबकि इनमें से अधिकांश अब ईसाई हैं। मुसलमानों की अधिकतम जनसंख्या वाले देशों में भारत का स्थान तीसरा है।
समाज में संघर्ष का मुख्य स्रोत इन दोनों प्रमुख धर्मों-हिन्दू धर्म और इस्लाम के बीच का द्वन्द्व रहा है। इस द्वन्द्व में अन्य सब धर्मों की कोई विशेष भूमिका नहीं है। कतिपय क्षेत्रों में जैसे केरल या उत्तरी-पूर्वी राज्यों में ईसाई धर्म के कारण और पंजाब में सिख धर्म के कारण कुछ द्वन्द्व पैदा हुए हैं।
हिन्दू-मुस्लिम आक्रोश की जड़ें बहुत गहरी हैं और ऐतिहासिक दृष्टि से ये मुस्लिम शासनकाल के साथ जुड़ी मिलेंगी। ब्रिटिश शासन काल में साम्प्रदायिकता का बांटों और शासन करो की नीति द्वारा विस्तार हुआ। स्वाधीनता के बाद भारत में साम्प्रदायिकता ने अपने विविध रूपों में एक बहुत खतरनाक स्वरूप अर्जित कर लिया है। साम्प्रदायिक दंगों की संख्या निरन्तर प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है जिससे प्रशासनिक व्यवस्था में भारी तनाव पैदा हुआ है। साम्प्रदायिक में दंगों में लोगों के प्राण तो जाते ही है, इसके अलावा देश की सम्पत्ति की भी व्यापक हानि होती है और आर्थिक गतिविधियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
साम्प्रदायिक हिंसा एवं संघर्षों की सम्भावना को ध्यान में रखते हुए प्रशासन-तन्त्र को लोगों के जान-माल की सुरक्षा के लिए सदैव तैयार रहना पड़ता है। यही कारण है कि पिछले 25 वर्षों में अर्द्ध-सैनिक पुलिस बल और अन्य आसूचना एवं सुरक्षा अभिकरणों में इतनी वृद्धि हुई है और वे देश की प्रशासनिक व्यवस्था पर हावी हो गए हैं। केन्द्रीय रिजर्व पुलिस, सीमा सुरक्षा बल, औद्योगिक सुरक्षा बल जैसे संगठनों ने न केवल परियोजना और प्रशासनिक समन्वय की समस्याओं को ही जन्म दिया है बल्कि ये बहुधा केन्द्रीय सरकार एवं राज्यों की सरकारों के बीच तनाव और विवाद का कारण भी बने हैं।
क्षेत्रवाद- क्षेत्रवाद और उप-क्षेत्रवाद की प्रवृत्ति भी भारतीय समाज की एक विशेषता है। भारत में क्षेत्र तथा उप-क्षेत्र स्पष्टतया सामाजिक और सांस्कृतिक पक्षों पर आधारित है। क्षेत्रवाद और उफ-क्षेत्रवाद से राष्ट्रीय एकीकरण की समस्या उत्पन्न होती है। राष्ट्रीय एकीकरण की एक प्रमुख समस्या संघीय राज व्यवस्था को व्यावहारिक रूप से क्रियान्वित करने में स्पष्ट रूप से विभाजित क्षेत्रों एकीकरण से सम्बन्धित है। राष्ट्रीय एकता के लिए अखिल भारतीय सेवाओं (All India Services) की आवश्यकता महसूस की गई।
हिंसा- आज भारतीय समाज में एक लम्बे समय से हिंसा की घटनाएं होती आ रही हैं। एक अध्ययन के अनुसार भारत में वर्ष 1951-84 के दौरान हजारों छोटी-मोटी हिंसात्मक घटनाओं के अलावा 224 प्रमुख सामूहिक हिंसा की घटनाएं हुई हैं। इसमें हिंसा के तीन प्रमुख रूप जैसे अन्तरजातीय, अन्तर साम्प्रदायिक और अन्तर भाषायी ही शामिल नहीं है बल्कि हिंसा के अनेक रूप जैसे अलग राज्यों की मांग से सम्बद्ध, राज्य के पुनगंठन के विरुद्ध, राज्यों की सीमाओं के निर्धारण सम्बन्धी विवाद हिंसा पर उतारू औद्योगिक हड़ताल, किसान आन्दोलन, जमींदारों, और भू-स्वामियों के विरुद्ध संगठित नक्सली हिंसा, पंजाब एवं उत्तर-पूर्वी राज्यों में आंतकवादी गतिविधियां, व्यापक नागरिक अवज्ञा आन्दोलन के परिणामस्वरूप हिंसा, इत्यादि प्रकार हिंसक घटनाएं शामिल हैं।
कतिपय परिस्थितियों में हिंसा और दंगों का कारण शासन की उदासीनता रहा है। सामान्य सी घटना प्रशासन की असावधानी के कारण कई बार साम्प्रदायिक दंगों का रूप ले लेती है। देश के समक्ष आज जो समस्या उपस्थित है, वह यह है कि कानून और व्यवस्था के रक्षक ही उसे भंग करने पर उतर आए हैं। कानून और व्यवस्था के लिए घटने वाली अधिक खतरनाक घटना पर पुलिस और प्रशासन तब तक आगे कोई कार्यवाही नहीं करते जब तक कि उसे राजनीतिक दृष्टि से संकेत नहीं मिल पाते। उत्तर प्रदेश में दंगों के समय पी. ए. सी. पर दंगों में पक्षपातपूर्ण आचरण करने का आरोप लगा था।
संक्षेप में, भारतीय समाज का बहुआयामी रूप है जिसमें जातीय विभाजन, धार्मिक विश्वास, प्रादेशिक व उप प्रादेशिक पहचान की विभिन्नता पर हिंसा की बढ़ती हुई घटनाएं प्रमुख चुनौतियाँ हैं। लोक प्रशासन को इसी सामाजिक परिवेश में सामाजिक परिवर्तन के उपकरण के रूप में कार्य करना है।
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