लोक प्रशासन का क्षेत्र
लोक प्रशासन के अध्ययन क्षेत्र के बारे में विद्वानों में बड़ा मतभेद है। मूलतः मतभेद इन प्रश्नों को लेकर है कि क्या लोक प्रशासन शासकीय कामकाज का केवल प्रबन्धकारी अंश है अथवा सरकार के समस्त अंगों का समग्र अध्ययन? क्या लोक प्रशासन सरकारी नीतियों का क्रियान्वयन है अथवा वह नीति-निर्धारण में भी प्रभावी भूमिका अदा करता है?
आधुनिक युग में लोक प्रशासन के क्षेत्र के सम्बन्ध में निम्नलिखित चार दृष्टिकोण प्रचलित है-
1. व्यापक दृष्टिकोण- इस दृष्टिकोण के अनुसार लोक प्रशासन का विषय-क्षेत्र सरकार के राजनीतिक अथवा सार्वजनिक, आन्तरिक या बाह्य तथा सैनिक अथवा असैनिक सभी पक्षों के कार्यों का व्यापक तथा उनसे सम्बद्ध है। सरकार के तीनों अंगों-व्यवस्थापिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के लोक प्रशासन के विषय-क्षेत्र में सम्मिलित है, किन्तु इस दृष्टिकोण पर व्यावहारिक दृष्टिकोण से विचार किया जाये, तो शीघ्र ही उसकी दुरूहता समझ में आ जाती है। लोक प्रशासन के विषय-क्षेत्र को इतना व्यापक करने का अर्थ लोक प्रशासन के वास्तविक उद्देश्य को ही समाप्त कर देना है। लोक प्रशासन का सम्बन्ध जनहित से है, वह लोक कल्याण के कार्य सम्पन्न करने के लिए ही स्थित है। उसे सरकार के तीनों अंगों तक विस्तृत नहीं किया जा सकता, क्योंकि विषय अधिक जटिल हो जायेगा और उसका शुद्ध स्वरूप भी समाप्त हो जायेगा, जिससे प्रशासन के मूल उद्देश्य की ही सिद्धि असम्भव हो जायेगी।
2. संकुचित दृष्टिकोण- लोक प्रशासन के क्षेत्र के सम्बन्ध में यह संकुचित दृष्टिकोण, व्यापक दृष्टिकोण की अपेक्षा अधिक मान्य है, क्योंकि इस दृष्टिकोण के अनुसार लोक प्रशासन का कार्य क्षेत्र कार्यपालिका की नीतियों को क्रियान्वित करना मात्र है, जिससे अधिक-से-अधिक लोकहित की साधना सम्भव हो। अतः इस दृष्टिकोण के अनुसार लोक प्रशासन का सम्बन्ध सरकार की केवल कार्यपालिका शाखा से ही है। लोक प्रशासन में कार्यपालिका के संगठन, उसकी कार्य प्रणाली एवं कार्य विधि के उन साधनों का अध्ययन किया जाता है, जोकि अधिकार प्रशासकीय अभिकरणों से सम्बन्धित है।
डॉ. भाम्बरी का मत- भारत के लोक प्रशासन के प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. चन्द्रप्रकाश भाम्बरी के अनुसार लोक प्रशासन के क्षेत्र में निम्नलिखित बातें आती हैं—
(i) सामान्य प्रशासन- अर्थात् शासन के सभी विभागों का सम्पूर्ण प्रशासन प्रशासन को सुचारू रूप चलाने के लिए निर्देशन, निरीक्षण तथा नियन्त्रण आदि ।
(ii) संगठन– शासन के सभी विभागों का सम्पूर्ण संगठन। उनका गठन कैसे होता है?
(iii) कार्मिक– अर्थात् विभिन्न संगठनों में काम करने वाले अधिकारी, कर्मचारी और उनकी विभिन्न समस्याएँ।
(iv) साधन– कार्यों के सम्पादन के लिए कार्मिकों के साधन हैं, उनकी सामग्री, उपकरण आदि।
(v) वित्त- प्रशासन के लिए आवश्यक वित्तीय व्यवस्था और उससे सम्बन्धित समस्याएँ ।
3. पोस्डकोर्ब दृष्टिकोण– लोक प्रशासन के एक विद्वान्, लूथर गुलिक ने लोक प्रशासन के क्षेत्र के सम्बन्ध में एक सिद्धान्त प्रतिपादित किया है, इसे ‘पोस्डकोर्ब’ (POSDCORB) कहते हैं। इस सिद्धान्त में लोक प्रशासन के क्षेत्र में निम्नलिखित बातें होनी चाहिये—
(i) Planning अर्थात् आयोजन- किसी प्रशासनिक कार्य के सम्पादन अथवा उसके संगठन से पूर्व उसका आयोजन किया जाना चाहिये।
(ii) Organisation अर्थात् संगठन– आयोजन के पश्चात् प्रशासकीय कार्य के लिए संगठन जुटाया जाना चाहिये।
(iii) Staffing अर्थात् कार्मिक- संगठन में अधिकारी तथा कर्मचारी लगते हैं, इन सबको मिलाकर ही तो संगठन बनता है।
(iv) Direction अर्थात् निर्देशन- संगठन बन जाने के बाद कार्मिकों को उनके कार्य के अनुसार निर्देशन दिया जाना चाहिये।
(v) Co-ordination अर्थात् समन्वय शासन के विभिन्न विभागों और कार्यों के बीच तालमेल बैठाना आवश्यक होता है, यही समन्वय है।
(vi) Reporting अर्थात् बजट- समस्त प्रशासनिक कार्यों के लिए वित्तीय व्यवस्था आवश्यक है। यह बजट के अन्तर्गत ही आती है।
इन सभी शब्दों के प्रारम्भिक अक्षरों को मिलाकर ही बना है— POSDCORB लूथर गुलिक के अनुसार यह सूत्र लोक प्रशासन के क्षेत्र का प्रतीक है।
4. लोक कल्याणकारी दृष्टिकोण- इसे आदर्शवादी दृष्टिकोण भी कहा जाता है। इस दृष्टिकोण के समर्थक राज्य और लोक प्रशासन में अधिक अन्तर नहीं मानते। उनके मतानुसार वर्तमान समय में राज्य लोक कल्याणकारी हैं, अतः लोक प्रशासन भी लोक कल्याणकारी है। दोनों का लक्ष्य एक ही है- जनहित अथवा जनता को हर प्रकार से सुखी बनाना। इस दृष्टिकोण के समर्थक कहते हैं कि “आज लोक प्रशासन सभ्य जीवन का रक्षक मात्र ही नहीं, वह सामाजिक न्याय तथा सामाजिक परिवर्तन का भी महान् साधन है।” इससे स्पष्ट होता है कि लोक प्रशासन का क्षेत्र जनता के हित में किये जाने वाले सभी कार्यों तक फैला हुआ है।
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Iska use kya hum assignment me kr skte h..
jii bilkul kar sakte hai