लोक प्रशासन एक सामाजिक आवश्यकता है?
लोक प्रशासन राज्य के अन्तर्गत स्थैर्यकारी तत्त्व है तथा राज्य और समाज को स्थिरता एवं व्यवस्था प्रदान करता है। प्रशासक समाज के स्थायीकर्ता एवं परम्पराओं के संरक्षक होते हैं। वे सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों ही अर्थों में स्थायीकर्ता हैं। लोकतन्त्रात्मक शासन प्रणाली में सरकारें प्रायः बदलती रहती हैं, परन्तु प्रशासन में स्थिरता और निरन्तरता बनी रहती है। उदाहरणार्थ, भारत में ये चौथे आम चुनाव (1967) के उपरान्त कई राज्यों में गठबन्धन सरकारें बनी थीं और दल-बदल के कारण राज्यों की सरकारों में आये दिन परिवर्तनों के बावजूद भी राज्यों के प्रशासन में व्यवस्था एवं स्थिरता बनी रही थी। प्रशासन तो वह स्थूल एवं संगठित व्यवस्था है जिसे फ्रांस जैसी भयंकर राज्य क्रान्ति भी नहीं हिला सकी।
उपनिवेशवाद के पटाक्षेप के साथ विश्व के सभी देशों में जन-सामान्य में नयी आशा का संचार हुआ। विज्ञान ने मनुष्य के हाथ में अतुल शक्ति दी जिसके द्वारा विश्व के इतिहास में प्रथम बार अभाव को मिटाने की सम्भावना मानव के हाथ में आयी। पूर्व रूस की साम्यवादी क्रान्ति के बाद नियोजित विकास का एक नया अध्याय प्रारम्भ हुआ जिसमें आर्थिक विकास की दिशा और गति अर्थशास्त्र के अन्धे नियमों की अनुगामी न होकर राज्य के द्वारा सुनिश्चित की जा सकती है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद में युद्ध क्षत-विक्षत राष्ट्रों की आर्थिक विकास की प्रक्रिया ने यह स्पष्ट कर दिया कि नियोजित विकास न केवल सम्भव है, वरन् आधुनिक युग में अनिवार्य है। नव-स्वतन्त्र राष्ट्रों के लिए जन-सामान्य की आकांक्षाओं को साकार करने के लिए कोई और विकल्प ही नहीं। नियोजित विकास को अनिवार्य रूप से बड़ी आशा के साथ सर्वत्र स्वीकार किया गया है। इसके फलस्वरूप प्रशासन का दायरा भी केवल कानून और व्यवस्था तक सीमित न रहकर जन-जीवन के सभी पहलुओं तक विस्तृत हो गया। कृषि विस्तार, वस्तुओं का प्रदाय, विपणन, सिंचाई, लोक निर्माण, शिक्षा, स्वास्थ्य सभी कुछ राज्य के द्वारा संचालित है। स्वयं उद्योग भी, विशेषकर भारी उद्योग, उद्योगपतियों का एकाधिकार क्षेत्र न रहकर सरकारी क्षेत्र द्वारा ही बहुधा संचालित है। अनेक संस्थान गैर-सरकारी क्षेत्र में होते हुए भी सरकार की मूल नीतियों से बहुत गहराई से प्रभावित हुए बिना नहीं बच सकते। इस प्रकार जन-सामान्य के दैनिक जीवन का कोई ऐसा पक्ष नहीं जिस पर प्रशासन तन्त्र का प्रभाव न पड़े।
लोक प्रशासन का सम्बन्ध शासन के विधानांग द्वारा बनायी जाने वाली नीतियों के क्रियान्वयन से ही नहीं है, वह अनुभव, दक्षता तथा योग्यता द्वारा नीति निर्माण में विधायिका और कार्यपालिका की सहायता भी करता है। कार्यपालिका और विधायिका के सदस्य अदक्ष और साधारण ज्ञान रखने वाले होते हैं, फलतः विशेषज्ञ और अनुभवी प्रशासकों के परामर्श एवं कार्य-कुशलता पर ही निर्भर रहते हैं। प्रशासन के तीनों अंगों-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका में से किसी एक के अभाव में कुछ समय तक किसी भी राज्य का कार्य चल सकता है, किन्तु ‘शासन प्रबन्ध’ (लोक प्रशासन) के बिना आधुनिक समाज और सभ्यता का समूचा महल बालू की भाँति ढह जायेगा। चार्ल्स ए. बीअर्ड का मत है कि “प्रशासन के विषय से अधिक महत्त्वपूर्ण अन्य कोई विषय नहीं होता। सभ्य शासन तथा मेरे विचार से स्वयं सभ्यता का भविष्य भी, हमारी इस क्षमता पर निर्भर करता है कि हम एक सभ्य समाज के कार्यों की पूर्ति के लिए एक कुशल प्रशासकीय दर्शन, विज्ञान और उसक व्यवहार का विकास कर सके।”
लोक कल्याणकारी राज्य के आदर्श एवं महत्त्वाकांक्षाएँ प्रशासन द्वारा ही परिपूर्ण हो पाती है। राज्य द्वारा सामाजिक-आर्थिक न्याय की स्थापना का जो उद्देश्य अपनाया गया है उसे वह प्रशासन के द्वारा ही साकार करता है। जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में, “लोक प्रशासन सभ्य जीवन का रक्षक मात्र ही नहीं वरन् सामाजिक न्याय तथा सामाजिक परिवर्तन का महान् साधन है।”
लियोनार्ड व्हाइट के अनुसार, “व्यापक सन्दर्भ में, प्रशासन के ध्येय स्वयं राज्य के 1. अन्तिम उद्देश्य ही हैं, अर्थात् शान्ति और व्यवस्था बनाये रखना, न्याय की उत्तरोत्तर प्राप्ति, युवाओं की शिक्षा, असुरक्षा और बीमारी में संरक्षण, परस्पर विरोधी समूहों तथा हितों में समझौता और समायोजन संक्षेप में, अच्छे जीवन की प्राप्ति ही प्रशासन का उद्देश्य है।”
सरकारी कार्यों में वृद्धि और उनकी जटिलता के कारण संगठनात्मक व्यवस्थाओं में नये नये परिवर्तन हुए हैं। तेजी से बदलती हुई सामाजिक परिस्थितियों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सरकार भी ऐसे नये संगठनात्मक ढाँचों के लिए उत्सुक हैं जो विशेष परिस्थितियों की आवश्यकताओं को पूरा कर सकें। हाल के वर्षों में ‘संगठन सिद्धान्त’ ने भी एक सुविकसित विषय का रूप ले लिया है। संगठन सिद्धान्त अब लोक प्रशासन में शामिल हो गया है और अब संगठन सिद्धान्तों के सम्बन्ध में व्यापक रूप से प्रयोग किया जा रहा है। संगठन सिद्धान्त परिप्रेक्ष्य, अव लोक प्रशासन विषय का एक अभिन्न अंग बन गया है। इसी कारण से सरकार के संगठनात्मक विकास और संरचनात्मक प्रयोग के लिए लोक प्रशासन की उपयोगिता पहले से अधिक हो गयी हैं।
सरकार का चाहे कोई भी स्वरूप क्यों न हो, परन्तु प्रशासन का महत्व कम नहीं हो सकता। लोकतन्त्र में तो इसका महत्त्व और भी अधिक हैं, क्योंकि राज्य लोक कर्मचारियों (Civil Service) के माध्यम से ही अपने बढ़े हुए उत्तरदायित्वों का निर्वाह करता है। हरमन फाइनर के शब्दों में, “किसी भी देश का संविधान चाहे कितना ही अच्छा हो और उसके मन्नीगण भी योग्य हों, परन्तु बिना दक्ष प्रशासकों के उस देश का शासन सफल नहीं हो सकता।” साम्यवादी और अधिनायकवादी स्वरूप वाले शासनों ने भी प्रतिबद्ध शासन को अपरिहार्य माना जाता रहा है नेपोलियन, बिस्मार्क, हिटलर, आदि की सफलता का रहस्य भी उनकी प्रशासनिक क्षमता ही थी।
संक्षेप में, प्रशासन सभ्य समाज की प्रथम आवश्यकता है। देश में अमन-चैन, व्यवस्था एवं स्थिरता बनाये रखने के लिए योग्य एवं क्षमताशील प्रशासन का होना नितान्त आवश्यक है। वस्तुतः “प्रशासन का मतलब ही जनता की सेवा करना है और इस बुनियादी आवश्यकता से अधिक महत्त्व और किसी बात को नहीं मिलने देना चाहिए।”
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