मार्क्स के अतिरिक्त मूल्य सिद्धान्त
अतिरिक्त मूल्य-सिद्धान्त का प्रतिपादन मार्क्स ने यह दिखाने के लिए किया है कि पूँजीवादी व्यवस्था में श्रमिकों का शोषण किस प्रकार किया जाता है। इस सिद्धान्त का विवेचन ‘दास कैपिटल’ में है। मार्क्स का अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त कीमतों का सिद्धान्त नहीं है। इस सिद्धान्त का मुख्य उद्देश्य तो यह प्रकट करता है कि पूँजीपति श्रमिक को यथायोग्य पारिश्रमिक नहीं देते हैं, व श्रमिकों के श्रम का मनमाना मूल्य अंकित कर उनका शोषण करते हैं।
मूल्य का श्रम-सिद्धान्त- ऐंजिल के अनुसार अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त मार्क्सवाद का मुख्य आधार है। इस सिद्धान्त के दो पहलू हैं-(1) उपयोगिता, (2) विनिमय। जो वस्तु मनुष्य के उदाहरणस्वरूप, रेगिस्तान में प्यासे व्यक्ति के लिए पानी उपयोगी है तथा सोना कम उपयोगी। लिए अच्छी है वह उपयोगी है और जो बुरी है उसकी इच्छाओं को पूरा न करे वह अनुपयोगी है। अतिरिक्त मूल्य का दूसरा पहलू विनिमय होता है। विनिमय का अर्थ होता है वस्तुओं का आदान प्रदान। यह आदान-प्रदान अनुपात के आधार पर होता है। उदाहरण के लिए, एक जुलाहा दस मीटर कपड़ा बनाता है और उसके बदले में एक कुन्तल गेहूँ लेता है। यह विनिमय हुआ। दोनों के आदान-प्रदान में यह देखा जाता है कि दोनों का मूल्य अनुपात में बराबर हो। इसके विनिमय का आधार श्रम को माना जाता है। जिस वस्तु में श्रम अधिक लगा वह मूल्यवान और जिसमें श्रम कम लगा वह अपेक्षाकृत कम मूल्यवान होगी। इसी आधार पर विनिमय का मूल्य निर्धारित होता है। उपरोक्त उदाहरण में विनिमय का तात्पर्य हुआ कि एक कुन्तल गेहूँ के उत्पादन में वही श्रम लगा होगा जो 10 मीटर कपड़े के निर्माण में श्रम लगा होगा।
अतिरिक्त मूल्य– मार्क्स के अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त की बड़ी ही प्रभावी ढंग से व्याख्या की है। उनके अनुसार पूँजीपति मजदूरों को श्रम के बदले पैसा देता है, परन्तु यह मजदूरी इतनी कम है कि वह मजदूरी तो केवल दो चार घण्टों की मजदूरी के बराबर है। मिल मालिक मजदूरों से उत्पादन कराता है। उस उत्पादन में वह कच्चे माल की कीमत तथा मजदूरी की कीमत अर्थात् टोटल लागत को देखकर उस उत्पादन का मूल्य निर्धारित करता है, परन्तु यह मूल वह इतना अधिक निर्धारित करता है जो मजदूरी और लागत से कहीं बहुत अधिक होता है। वह मजदूरी और लागत के अतिरिक्त जो मूल्य निर्धारित करता है वही अतिरिक्त मूल्य है। यह अतिरिक्त मूल्य मिल मालिक स्वयं हड़प जाता है। वह श्रमिकों से काम अधिक लेता है और अधिक काम लेकर और अधिक अतिरिक्त मूल्य को प्राप्त करता है। मार्क्स के अनुसार यह अतिरिक्त मूल या उसे लाभ कहें, मिल मालिक को न मिलकर मजदूरों को मिलना चाहिए। उसने मिल मालिकों द्वारा इसे मजदूरों का शोषण बताया है। इस शोषण का एक उदाहरण है जैसे कोई मजदूर दिन भर में 16 रुपये का उत्पादन करता है और उसे मजदूरी 8 रुपये मिलती है तो यह 8 रुपये के श्रम की चोरी हुई और यह चोरी करता है मिल मालिक। इस प्रकार मिल मालिक द्वारा मजदूरों का शोषण किया जाता है।
अतिरिक्त मूल्य में निहित सिद्धान्त- अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त का ध्यानपूर्वक विश्लेषण करने पर स्पष्ट हो जाता है कि मार्क्स ने इसके द्वारा तीन नियमों का प्रतिपादन किया था-
1. पूँजी का संचय सिद्धान्त पूँजीपति सदैव इस बात की ओर प्रयत्नशील रहते हैं कि मशीनों के अधिकाधिक प्रयोग द्वारा श्रम की बचत और उत्पादन की वृद्धि हो ।
2. पूँजी के केन्द्रीकरण का सिद्धान्त- इसका आशय यह है कि प्रतियोगिता द्वारा पूँजीपतियों की संख्या में कमी होगी, पूँजी का केन्द्रीकरण होगा, जिस पर केवल कुछ व्यक्तियों का एकाधिकार होगा और इस तरह से पूँजीपतियों का अन्त हो जायेगा।
3. कष्टों की वृद्धि का सिद्धान्त- प्रतियोगिता के कारण पूँजीपति श्रमिकों का शोषण करेंगे जिससे कष्टों में बहुत अधिक वृद्धि हो जायेगी। पूँजीवादी व्यवस्था में श्रमिकों की दशा दयनीय होगी और वे अपनी सुरक्षा के लिए संगठित होकर क्रान्ति द्वारा पूँजीवादी व्यवस्था का अन्त करने में सफल होंगे।
अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त की आलोचना
मार्क्स के इस सिद्धान्त की आलोचना आलोचकों ने निम्न आधारों पर की है-
1. श्रम ही मूल्य का एकमात्र निर्धारक तत्त्व नहीं—मार्क्स का यह सिद्धान्त सभी वस्तुओं पर लागू नहीं होता। यह यथार्थ और वास्तविक नहीं है और न ही तथ्यों पर आधारित है। पूँजीवाद में श्रमिकों के शोषण को प्रदर्शित करने के सिवाय इसकी कोई उपयोगिता नहीं है।
2. पूँजीपतियों के व्यय की उपेक्षा—मार्क्स का यह कहना है कि पूँजीपति सम्पूर्ण अतिरिक्त मूल्य को हड़प लेता है। परन्तु यदि हम तथ्यों पर ध्यान दें तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि पूँजीवादी को श्रमिकों के वेतन के अतिरिक्त अन्य मदों पर धन खर्च करना पड़ता है, जैसे कच्चा माल मशीनों के कलपुर्जे आदि ।
3. मानसिक श्रम की उपेक्षा—मार्क्स ने केवल शारीरिक श्रम को ही श्रम माना मानसिक श्रम की उपेक्षा की है। जबकि
4. सिद्धान्त में अस्पष्टता—मार्क्स ने कहीं पर मूल्य और दाम में स्पष्ट अन्तर नहीं किया है। इसे वह अपने शब्दों में प्रयोग करता है।
5. सिद्धान्त में विरोधाभास की स्थिति- मार्क्स के विचारों में हमें कहीं-कहीं विरोधाभास भी दिखायी देता है। एक तरफ तो वह कहता है कि पूँजीपति अतिरिक्त मूल्य प्राप्त करने के लिए नयी नयी मशीनें लगाता है तो दूसरी तरफ यह भी कहता है कि अतिरिक्त मूल्य केवल श्रम को प्राप्त होता है।”
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