मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या का सिद्धान्त
मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या का सिद्धान्त- समाज और इतिहास के सम्बन्ध में मार्क्स ने जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है, उसे ऐतिहासिक भौतिकवाद के नाम से जाना जाता है। इसे इतिहास का भौतिकवाद, इतिहास की आर्थिक व्याख्या भी कहा जाता है। मार्क्स का यह मत रहा है कि हमारी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक सभी प्रकार की संस्थाओं पर आर्थिक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है। मार्क्स का मत है कि समाज का जो कुछ विकास हुआ, उन सब पर आर्थिक परिस्थितियों द्वारा सामाजिक ढाँचे का निर्माण मानते हुए भी मार्क्स ने जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है, वह इतिहास की आर्थिक व्याख्या पर भौतिकवादी सिद्धान्त कहलाता है।
सिद्धान्त की मुख्य बातें या मान्यताएँ
कार्ल मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धान्त की मुख्य बातें या मान्यताएँ निम्नलिखित हैं
1. आर्थिक ढाँचे के अनुसार सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना हुई है- मार्क्स का विचार है कि समाज के राजनीतिक व वैधानिक ढाँचे की नींव समाज के आर्थिक ढाँचे का स्वरूप होगा, उसी प्रकार के समाज के सदस्यों के सम्बन्ध पाये जायेंगे।
2. उत्पादन के साधनों में शनैः शनैः परिवर्तन—मार्क्स का मत है कि उत्पादन की शक्तियों में परिवर्तन होने के साथ-साथ उत्पादन के साधनों में परिवर्तन नहीं होता। उनमें जो परिवर्तन होता है, धीरे-धीरे होता है। मार्क्स का कहना है कि किसी प्रकार का परिवर्तन लाने के लिए संघर्ष का होना अनिवार्य है, क्योंकि शक्ति से ही प्राचीन व्यवस्था के स्थान पर नवीन व्यवस्था की स्थापना सम्भव है।
3. ऐतिहासिक घटनाओं की अनिवार्यता- मार्क्स का कहना है कि इतिहास का निर्माण मानवीय प्रयत्नों द्वारा नहीं होता। इतिहास का निर्माण स्वतन्त्र रूप से होता है। मनुष्य इतिहास से सम्बन्धित घटनाओं पर रोक नहीं लगा सकता। ऐतिहासिक घटनाएँ अपनी अनिवार्यता रखती हैं और आर्थिक शक्तियों के अनुसार ही ऐतिहासिक घटनाएँ प्रभावित होती हैं।
4. वर्ग संघर्ष का महत्त्व- मार्क्स का कहना है कि प्रत्येक युग में परस्पर विरोधी हित चाहने वाले दो वर्ग अनिवार्य रूप से पाये जाते हैं। इन वर्गों के बीच जो संघर्ष होता है, उसी संघर्ष के परिणामस्वरूप समाज में सामाजिक ढाँचे का निर्माण होता है और यह वर्ग संघर्ष आर्थिक आधार पर होता है। इसलिए आर्थिक दशाएँ ही इतिहास का निर्माण करती है।
5. साम्यवाद के आगमन की सम्भावना- मार्क्स अपनी इतिहास की आर्थिक व्याख्या के आधार पर पूँजीवाद के अन्त और साम्यवाद के आगमन की सम्भावना में विश्वास व्यक्त करता है। उसके अनुसार साम्यवाद के आगमन में विश्वास व्यक्त करता है। उसके अनुसार साम्यवाद का आगमन अवश्यम्भावी है।
ऐतिहासिक युगों का विभाजन
मार्क्स इतिहास के निर्माण में आर्थिक तत्त्वों का प्रमुख हाथ मानता है। जीविकोपार्जन के दृष्टिकोपा से मार्क्स ने इतिहास के युगों का निम्न प्रकार से विभाजन किया है-
(i) आदिम साम्यवादी युग — मार्क्स का कहना है कि आदिम समाज में मनुष्य की आवश्यकताएँ कम थी और उत्पादन के साधनों पर सामाजिक रूप से सभी का स्वामित्व था। समस्त मनुष्य सहयोग और समानता के सिद्धान्तों का पालन करते थे।
(ii) दासता का युग- धीरे-धीरे आदिम समाज की व्यवस्था में परिवर्तन आना और उत्पादन के साधनों पर कुछ शक्तिशाली लोगों का अधिकार हो गया, जो निर्बल रहे, वे शक्तिशाली लोगों के दास बन गये। इस प्रकार आजीविका के साधनों के स्थायित्व के आधार पर दासता का युग आरम्भ हुआ। इस युग में स्वामी वर्ग दास का शोषण करने लगा।
(iii) सामन्तवादी युग– मार्क्स का कहना है कि आजीविका का प्रमुख साधन कृषि रहा है। जो लोग कृषि योग्य भूमि के स्वामी बने, वे सामन्त कहलाये और जो उनकी अधीनता में खेती करते थे, वे कृषक या सर्फ कहलाये। इन सर्फो की स्थिति दासों के समान ही थी।
(iv) पूँजीवादी युग– मार्क्स का कहना है कि मशीनों का आविष्कार हो जाने पर औद्योगिक विकास हुआ समाज में पूँजीवादी वर्ग तथा श्रमिक वर्ग का जन्म हुआ और पूँजीपति वर्ग श्रमिकों का शोषण करने लगा।
(v) श्रमिक वर्ग के अधिनायकवाद का युग- 19वीं और 20वीं शताब्दी में विश्व के पूँजीवादी देशों में श्रमिक क्रान्तियाँ हुई और उस क्रान्ति के परिणामस्वरूप श्रमिक वर्ग के अधिनायकवाद की स्थापना हुई।
(vi) साम्यवाद का युग- मार्क्स का कहना है कि श्रमिक वर्ग के अधिनायकवाद के युग के बाद साम्यवादी समाज का युग आयेगा। उत्पादन सम्पूर्ण समाज के हित में होगा। प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यतानुसार कार्य सम्पादन करेगा और आवश्यकतानुसार पारिश्रमिक पायेगा। साम्यवादी अवस्था होगी।
इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या की आलोचना
मार्क्स इतिहास का निर्माण आर्थिक तत्त्वों द्वारा सम्भव मानता है, उसकी आलोचना निम्न आधारों पर की जाती है-
(1) केवल अर्थ से ही इतिहास निर्मित नहीं होता है इतिहास के निर्माण में अनेक साधनों का महत्त्व होता है। वैयक्तिक महत्त्वाकांक्षा, राजनीतिक प्रभाव, धर्म, प्रेम तथा शक्ति आदि अनेक तत्त्व है, जो मिलाकर इतिहास का निर्माण करते हैं।
(2) मार्क्स का कहना है कि उत्पादन के साधन एवं पद्धति जिस प्रकार की होगी, उसी प्रकार की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण होगा, किन्तु आलोचकों का कहना है कि एक ही की उत्पादन पद्धति एवं उत्पादन की शक्ति के होते हुए भी उत्पादन के साधन भिन्न हो सकते हैं।
(3) मार्क्स अपने सिद्धान्तों में आकस्मिकताओं को स्थान नहीं देता। इस दृष्टि से उसका यह सिद्धान्त ठीक नहीं है। आकस्मिक घटनाएँ ही सिद्धान्त को मोड़ दे सकती हैं।
(4) मार्क्स ने केवल आर्थिक कारणों को ही इतिहास के सारे परिवर्तनों का आधार माना है, किन्तु यह बात सही नहीं है। मनुष्य की महत्त्वाकांक्षाएँ एवं विचारों ने भी ऐतिहासिक परिवर्तनों पर प्रभाव डाला।
(5) मार्क्स ने श्रमिकों को पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध क्रान्ति करने की सलाह दी है, जो उसके द्वारा प्रतिपादित द्वन्द्ववाद के विपरीत है। मार्क्स के द्वन्द्वात्मक चक्र के आधार पर पूँजीवादी व्यवस्था को स्वयं ही समाप्त हो जाना चाहिये। उसको समाप्त करने के लिए क्रान्ति की कोई आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
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