हीगल के राज्य सम्बन्धी विचार अथवा हीगल के राजनीतिक सिद्धान्त
हीगल ने अपने राजनीतिक विचारों को एक व्यापक प्रदर्शन प्रणाली के रूप में विकसित किया है। उसके राजनीतिक विचार उसकी रचना 1821 में प्रकाशित फिलॉस्फी ऑफ राइट्स’ में उपलब्ध है। इस ग्रन्थ का यथार्थ राजनीतिक वास्तविकताओं के निर्देश पर निर्भर है। हीगल को व्यक्तिवादी दार्शनिक के रूप में जाना जाता है और वह राज्य के सिद्धान्त के रूप में उसकी वैधता का परीक्षण करता है। सामाजिक दर्शन में जो भी मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक समस्याएँ आती हैं, हीगल ने उन सबको शामिल करने का प्रयास किया है।
राज्य का उद्भव और विकास- मनुष्य भौतिक जगत् की श्रेष्ठतम वस्तु है। मनुष्य की पहली संस्था परिवार होती है। परिवार से ही राज्य अस्तित्व में आता है। परिवार का सिद्धान्त पारस्परिक
प्रेम पर आधारित होता है। परिवार मनुष्य के लिए आवश्यक संस्था होती है। समाज की प्रारम्भिक इकाई कुटुम्ब होती है। कुटुम्ब की वृद्धि के साथ ही समाज का प्रादुर्भाव होता है। समाज में प्रतियोगिता और संघर्ष दिखायी देता है। प्रत्येक व्यक्ति केवल अपने हित की बात ही सोचता है, इसीलिए संघर्ष को जन्म मिलता है। सामाजिक संघर्ष में व्यक्तियों को आत्म-निर्भर रहना पड़ता है।
दूसरा चरणं मनुष्य का प्रतिवाद होता है। परिवार मनुष्य की सीमित आवश्यकताओं को पूरा करने का साधन हैं। इन्हीं समस्याओं के समाधान के लिए समाज को उपयोगी माना जाता है।
परिवार का प्रारम्भिक लक्ष्य लाभ प्राप्त करना होता है, इसीलिए वहाँ संघर्ष होना स्वाभाविक होता है।
मानव-समाज के रिश्ते विरोधी होते हैं, जबकि परिवार का मुख्य उद्देश्य सहयोग करना होता है। राज्य का कार्य नागरिकों के हितों से जुड़ा होता है।
राज्य सबसे बड़ी संस्था होती है, जिस प्रकार मनुष्य से परे कोई जीवधारी नहीं होता है, उसी प्रकार राज्य से अलग एवं ऊपर कोई संस्था नहीं हो सकती है।
राज्य पूर्ण संस्था है। हीगल के अनुसार ईश्वरीय स्वरूप की संस्था है और वह ईश्वर की श्रेष्ठतम् अभिव्यक्ति होती है। हीगल ने राज्य को पृथ्वी पर एक पूर्ण शक्ति के रूप में स्वीकार किया है।
अन्त में हम कह सकते हैं कि राज्य एक उच्च प्रकार का भौतिक शरीर है, जो समाज और परिवार को संगठित कर इन्हें ऐसे उच्च स्तर उठा देता है, जिसमें प्रत्येक इकाई समूह के हित को अपना हित मानकर व्यवहार करती है। हीगल की विकासवादी प्रक्रिया में राज्य से परे तथा राज्य से उच्चतर और अधिक पूर्ण अन्य कोई वस्तु नहीं है।
हीगल के राजनीतिक सिद्धान्त के लक्षण या विशेषताएँ
हीगल के राज्य सम्बन्धी सिद्धान्त के निम्न लक्षण दिखायी देते हैं-
1. राज के अनुसार निर्देशित होना व्यक्तियों का उचित कर्त्तव्य है।
2. व्यक्ति की अपनी सारी विशिष्टता अपनी सारी अभिव्यक्ति के कारण राज्य माध्यम से ही प्राप्त होती है।
3. अंगों का मात्र अभिव्यक्ति ही राज्य नहीं है।
4. राज्य का अपना एक स्वरूप एवं विचार होता है।
राज्य दैविक है— हीगल ने राज्य को दैविक माना है। वह आत्मा के उच्चतम विकास का प्रतीक है। जिस प्रकार ईश्वर ही महायात्रा का अन्तिम पड़ाव है, ठीक उसी प्रकार राज्य विकास भी अन्तिम है। गार्नर ने लिखा है कि “हीगल की दृष्टि में राज्य ईश्वरीय है, जो कोई गलती नहीं कर सकता है।” सी.एल. वेपर ने भी कहा है कि “हीगल का राज्य एक दैवी संस्था है।”
राज्य और व्यक्ति के हितों में कोई विरोध नहीं हीगल का कहना है कि राज्य और व्यक्ति के हितों को लेकर कोई विरोध नहीं है। इतिहास की दृष्टि से राज्य ही व्यक्ति है और जीवन चरित्र में व्यक्ति का जो स्थान है, इतिहास में वही स्थान राज्य का है। राज्य का कर्त्तव्य है कि वह व्यक्ति और समाज की सुरक्षा करे राज्य हमारी सच्ची, निष्पक्ष एवं निःस्वार्थ सामान्य इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है। व्यक्ति और राज्य के सम्बन्ध में हीगल के विचारों से निम्न निष्कर्ष निकलता है-
1. राज्य कभी-भी प्रतिनिधित्व रहित कार्य नहीं करता है।
2. व्यक्ति जिस समाज में रहता है, उसका अविभाज्य अंग होता है।
3. राज्य अपने नागरिकों की सामाजिक नैतिकता को समेटे हुए हैं अर्थात् राज्य नैतिकता से ऊपर है।
राज्य व्यक्ति से सर्वोच्च नैतिक समुदाय है— हीगल का कहना है कि व्यक्ति और राज्य के हितों में किसी भी प्रकार का विरोध नहीं है। राज्य सर्वोच्च एवं नैतिक समुदाय है, जो व्यक्ति से ऊँचा है। सभी प्रकार के नैतिकता और कानून राज्य के अन्तर्गत ही आते हैं। राज्य स्वतन्त्र और प्रतिबन्धों से मुक्त होता है।
राज्य के द्वारा व्यक्ति अपने भौतिक और अभौतिक दोनों ही उद्देश्य को प्राप्त करता है। हीगल की मान्यता है कि राज्य स्वयं में एक साध्य है, उसे किसी साध्य के लिए साधन मानना एक आधारभूत गलती है, क्योंकि वह व्यक्ति से उच्चतर है।
हीगल की दृष्टि में एक नैतिक संस्था होने के नाते राज्य अधिकारों का जन्मदाता भी है। व्यक्ति राज्य के लिए जीता है, अतः वह राज्य के विरुद्ध कोई अधिकार नहीं माँग सकता है। राज्य एक स्थायी संस्था है।
राष्ट्रीय राज्य और अन्तर्राष्ट्रीयतावाद– हीगल राष्ट्रीय राज्य का समर्थन करते हुए उसे मानव-संगठन का सर्वोच्च रूप मानता है। वह किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय संगठन को राष्ट्रीय राज्य से ऊपर स्वीकार नहीं करता है।
हीगल की दृष्टि में राज्य के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न आत्मरक्षा का है, अतः अपना अस्तित्व कायम रखने के लिए राज्य कोई भी कार्य करने में स्वतन्त्र होता है।
हीगल के राजनीतिक विचारों की आलोचना
हीगल के राजनीतिक विचारों की आलोचना निम्न आधारों पर की जाती है-
1. हीगल ने राज्य को इतना अधिक आद्यान्तिक स्वरूप प्रदान कर दिया है कि वह पृथ्वी का राज्य बन गया है, उसे कोई भी अन्तर्राष्ट्रीय कानून लागू नहीं कर सकता है।
2. हीगल का राज्य केवल कानूनों के लिए है, उसमें कोई भी लोकतान्त्रिक तत्त्व नहीं दिखायी देता है।
3. हीगल ने द्वन्द्ववाद को आवश्यकता से अधिक महत्त्व दिया है।
4. सेबाइन ने आलोचना करते हुए कहा कि हीगल ने ऐतिहासिक व्याख्या केवल रहस्यवादी ढंग से ही की है।
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