हीगल के स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचार- Hegel’s Concept of Freedom
हीगल के पूर्ववर्ती तथा अन्य समकालीन विचारकों ने व्यक्ति की स्वतन्त्रता को बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण माना था तथा वैयक्तिक स्वतन्त्रता का समर्थन करते हुए उसे राज्य की सत्ता पर आरोपित किया था। रूसो, मिल, लॉक तथा माण्टेस्क्यू आदि स्वतन्त्रता के प्रमुख समर्थक थे। किन्तु ईगल के स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचार इन विद्वानों के विचार तथा फ्रांसीसी क्रान्ति द्वारा प्रतिपादित स्वतन्त्रता के सिद्धान्त से बिल्कुल भिन्न है। उपरोक्त विचारक व्यक्तिवाद से प्रभावित थे कि मनुष्य द्वारा स्वेच्छापूर्वक जीवन व्यतीत करना तथा दूसरों को आघात न पहुँचाते हुए विचार और अभिव्यक्ति तथा कार्य करने की छूट ही स्वतन्त्रता है।
हीगल की स्वतन्त्रता सम्बन्धी धारणा
हीगल की स्वतन्त्रता सम्बन्धी धारणा का विवेचन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-
1. स्वतन्त्रता प्राप्ति मानव का लक्ष्य है- हीगल का विचार है कि प्रत्येक युग में मानव का लक्ष्य स्वतन्त्रता की प्राप्ति रहा है। ज्यों-ज्यों समय बीतता गया व्यक्ति नवीन युग में प्रवेश करता गया तथा स्वतन्त्रता का अर्थ समझने की उसकी क्षमता में वृद्धि होती गयी। पूर्ण स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए व्यक्तियों को महान् बलिदान करने की आवश्यकता होती है। उन्हें यातनाएँ सहनी पड़ती हैं, विभिन्न राष्ट्रों में युद्ध और संघर्ष होते हैं। इस दृष्टि से युद्ध का होना विश्व के इतिहास की एक अवश्यम्भावी घटना है, क्योंकि मानव का अन्तिम लक्ष्य स्वतन्त्रता की प्राप्ति है न सुख की।
2. मानव इतिहास स्वतन्त्रता का इतिहास है- हीगल का विश्वास है कि “विश्व का इतिहास स्वतन्त्रता की चेतना की अभिव्यक्ति से अधिक कुछ नहीं है।” आत्मा का विकास ही स्वतन्त्रता का विकास हैं और मानव इतिहास स्वतन्त्रता का इतिहास है। मानव इतिहास की इति राज्य में होती है, जिसमें आत्मा पूर्ण अभिवृद्धि को प्राप्त होती है। अतः जो राज्य पूर्णता को प्राप्त कर चुका है वहीं वास्तव में स्वतन्त्र राज्य है। इसके साथ ही जो व्यक्ति पूर्णता प्राप्त राज्य के पूर्णता प्राप्त कानूनों का निष्ठापूर्वक पालन करता है, वहीं व्यक्ति वास्तव में पूर्ण स्वतन्त्र है।
3. हीगल की स्वतन्त्रता सम्बन्धी धारणा- हीगल के अनुसार व्यक्ति द्वारा अपनी इच्छा के अनुसार काम करने का नाम स्वतन्त्रता नहीं है। इसके विपरीत राज्य की इच्छानुसार कार्य करना तथा उसके आदेशों का पानल करना ही स्वतन्त्रता है। व्यक्ति को राज्य की आज्ञाओं का पालन अपनी इच्छा के विरुद्ध भी करना चाहिये। राज्य की आज्ञाओं का पालन बिना किसी विरोध के करना ही स्वतन्त्रता है। इस दृष्टि से हीगल के स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचार अत्यधिक विचित्र प्रतीत होते हैं, परन्तु हीगल ने अनेक तर्कों के आधा पर अपने स्वतन्त्रता सम्बन्धी इस विचार का समर्थन किया है।
4. स्वतन्त्रता एक सामाजिक तथ्य है- हीगल का विचार है कि मनुष्य केवल समाज में रहकर ही स्वतन्त्रता प्राप्ति कर सकता है। समाज से पृथक स्वतन्त्रता का कोई अस्तित्व नहीं है। व्यक्ति सामाजिक कार्यों में भाग लेकर तथा सामाजिक संस्थाओं के माध्यम से ही स्वतन्त्रता प्राप्त कर सकता है। प्रो. जोड़ के अनुसार “वास्तविक स्वतन्त्रता जो मानव समाज की उपज है और जो समाज में विद्यमान रहती है सदैव कार्यरत रहती है और विकसित होती रहती है। इसका प्रदर्शन पहले कानून में होता है। दूसरे आन्तरिक नैतिकता के उन नियमों में होता है, जिन्हें व्यक्ति समाज से ग्रहण करता है और तीसरे सामाजिक संस्थाओं तथा प्रभावों की उस समूची व्यवस्था में होता है, जो व्यक्तित्व के विकास का निर्माण करती है।” इस आधार पर हीगल ने यह निष्कर्ष निकाला है कि चूँकि राज्य ईश्वरात्मा की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है। अतः राज्य जैसा चाहता है, वैसा करने में ही स्वतन्त्रता निहित है दूसरे शब्दों में राज्य की आज्ञाओं का पालन करने में ही व्यक्ति स्वतन्त्र है।
5. स्वतन्त्रता और राज्य सत्ता परस्पर विरोधी नहीं है- हीगल के विचारों में स्वतन्त्रता का अर्थ राज्य के प्रतिबन्धों से मुक्ति प्राप्त करना नहीं है। इसके विपरीत राज्य की आज्ञाओं को स्वेच्छा से स्वीकार करने में ही व्यक्ति की स्वतन्त्रता निहित है। हीगल का विचार है कि अक्सर ऐसा होता है कि व्यक्ति अपने स्वार्थ से वशीभूत होकर कार्य करता है। ऐसी स्थिति में वह स्वतन्त्र होकर अपनी इच्छा का दास होता है। स्वतन्त्र व्यक्ति वही है, जो राज्य द्वारा अभिव्यक्त होने वाली विश्व आत्मा की इच्छा के अनुसार कार्य करता है। अतः जब व्यक्ति राज्य की आज्ञाओं का पालन करता है, तो वह वास्तविक इच्छा के अनुसार कार्य करता है। अतः ऐसी स्थिति में व्यक्ति वास्तव में स्वतन्त्रता का अनुभव करता है। हरमान के शब्दों में—“हीगल के सिद्धान्त में स्वतन्त्रात और सत्ता में विरोध नहीं है। हीगल के इस सिद्धान्त के पक्ष में और रूसो की सामान्य इच्छा की धारणा में प्रत्यक्ष समानता है।”
6. राज्य की आज्ञाओं का पालन व्यक्ति स्वाभाविक रूप से करता है- हीगल की धारणा है कि राज्य की आज्ञाओं का पालन जब व्यक्ति स्वाभाविक रूप से करता है, तभी वह स्वतन्त्र होता है। यदि कोई व्यक्ति दण्ड के भय से वशीभूत होकर राज्य के आदेशों का पालन करने लगे, तो उसे स्वतन्त्र नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ऐसा करने में वह अपनी अन्तरात्मा से निर्देशित न होकर बाह्य शक्ति से निर्देशित होता है। इस प्रकार व्यक्ति को स्वतन्त्र रखने के लिए राज्य की सत्ता तथा अस्तित्व आवश्यक है। व्यक्ति के लिए वास्तविक स्वतन्त्रा इसी में है कि वह स्वेच्छा से राज्य की आशाओं का पालन करे।
7. राज्य में ही स्वतन्त्रता सम्भव है- हीगल का विचार है कि व्यक्ति अधिकतम स्वतन्त्रता का उपभोग राज्य में ही रहकर कर सकता है। केवल वही व्यक्ति स्वतन्त्र है, जो कि राज्य के कानूनों का पालन स्वाभाविक रूप से करता है। हीगल इस विचार से सहमत नहीं है कि बन्धनों का अभाव स्वतन्त्रता है। इसके विपरीत हीगल की धारणा है कि वास्तविक स्वतन्त्रता की प्राप्ति की तो केवल राज्य के नियन्त्रण में ही सम्भव है। राज्य व्यक्ति की स्वार्थी इच्छाओं को प्रतिबन्धित करके उसे वास्तविक स्वतन्त्रता प्रदान करता है। मैक्सी के शब्दों में, “राज्य व्यक्ति पर प्रतिबन्ध लगाता है और उसका दमन करता है, पर ऐसा करके वह समग्र रूप से समाज की स्वतन्त्रता का विस्तार करता है। और इस प्रकार व्यक्ति की स्वतन्त्रता का विस्तार करता है।”
8. विवेक के आदेशों का पालन करना स्वतन्त्रता है—हीगल का विचार है कि विवेक के आदेशों का पालन करने में स्वतन्त्रता है, लेकिन हीगल की दृष्टि में विवेक का अर्थ मनुष्य का विवेक नहीं अपितु राज्य के कानूनों में निहित समाज का विवेक है। व्यक्ति का विवेक सदैव विश्वसनीय नहीं होता, क्योंकि वह व्यक्तिगत स्वार्थ से प्रेरित हो सकता है, लेकिन समाज का विवेक कभी किसी व्यक्ति विशेष के स्वार्थ से प्रेरित नहीं होता, इसके विपरीत वह सार्वभौम होता है। अतः व्यक्ति राज्य के आदेशों का पालन करके ही सच्ची स्वतन्त्रता का अनुभव करता है। ऐबेसन्टीन के शब्दों में— “मनुष्य की वास्तविक स्वतन्त्रता राज्य एवं कानून के उच्चतर विवेक की अधीनता स्वीकार करने में और उनसे अपना एकाकार करने में है।”
9. कर्त्तव्य पालन का नाम स्वतन्त्रता है— हीगल का यह भी विचार है कि व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करके ही वास्तविक स्वतन्त्रता प्राप्त कर सकता है। देखने में यह विचार हास्यास्पद प्रतीत होता है, लेकिन हीगल का तर्क है कि हमें सच्ची स्वतन्त्रता सभी प्राप्त होती है, जब हम अपनी इच्छाओं से वशीभूत होकर कोई कार्य न करें, वरन् अपने कर्तव्यों का पालन करे। अतः कर्तव्य पालन से व्यक्ति की स्वतन्त्रता प्रतिबन्धित नहीं होती, बल्कि वास्तविक स्वतन्त्रता की प्राप्ति होती है। हीगल के शब्दों में, “कर्तव्य पालन में ही व्यक्ति अपनी वास्तविक स्वतन्त्रता प्राप्त करता है। “
उपर्युक्त आधारों पर हीगल का विचार है कि “जब व्यक्ति राज्य का उद्देश्यों से अपने उद्देश्यों को एक रूप कर लेता है और स्वेच्छा से राज्य के कानूनों का पालन करता है, तब वह सच्ची स्वतन्त्रता का उपयोग करता है।”
हीगल के स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचारों की आलोचना
हीगल के स्वतन्त्रता सम्बन्धी विचारों की आलोचना निम्नलिखित आधार पर की जाती है—
1. राज्य की निरंकुशता का प्रतिपादन- हीगल निरंकुश राज्य का समर्थक है। वह राज्य को सर्वोच्च तथा सर्व-शक्तिमान मानता है। उसकी सत्ता सर्वव्यापी है। व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध कोई भी कार्य करने की स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं है। इस प्रकार हीगल ने राज्य की शक्ति को असीमित और अमर्यादित बताकर व्यक्ति की स्वतन्त्रता का पूर्णतः बलिदान कर दिया है।
2. व्यक्ति को राज्य का दास बना दिया है- हीगल व्यक्ति की तुलना में राज्य को एक श्रेष्ठ संस्था मानता है। उसका विचार है कि राज्य का विवेक व्यक्ति के विवेक की अपेक्षा सदैव श्रेष्ठ होता है। कारण कि व्यक्ति का विवेक स्वार्थ प्रधान हो सकता है, परन्तु इसके विपरीत राज्य का विवेक सदैव का हित चाहता है। अपनी इस धारणा के द्वारा वह व्यक्ति को राज्य का पूर्णतः दास बना देता है।
3. राज्य का विरोध करने का अधिकार व्यक्ति को नहीं है- लॉक जैसे उदारवादी विचारकों ने विभिन्न परिस्थितियों में राज्य का विरोध करने का अधिकार व्यक्ति को प्रदान किया है, परन्तु हीगल किसी भी स्थिति में राज्य का विरोध करने के अधिकार व्यक्ति को प्रदान नहीं करता। त’ राज्य की प्रत्येक आज्ञा का पालन व्यक्ति को अनिवार्य रूप से करना चाहिये। चाहे वे उचित हो अथवा अनुचित हीगल व्यक्ति के व्यक्तित्व को राज्य की बलिवेदी पर न्यौछावर कर देता है, क्योंकि किसी भी स्थिति में राज्य के प्रति विद्रोह करने का अधिकार व्यक्ति को प्राप्त नहीं है।
4. नागरिक स्वतन्त्रताओं का उल्लेख नहीं- हीगल ने नागरिकों को विचार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता तथा राजनीतिक स्वतन्त्रता प्रदान नहीं की है। उसका विचार है कि विचार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अर्थ है व्यक्ति को कुछ भी करने की स्वतन्त्रता प्रदान करना जो कि हीगल के विचार से पूर्णतः अशिक्षित अशिष्ट और सतही विचार है।
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