राजनीति विज्ञान / Political Science

जॉन स्टुअर्ट मिल का उपयोगितावादी सिद्धांत | मिल द्वारा बेन्थम के उपयोगितावाद में किए गए संशोधन

जॉन स्टुअर्ट मिल का उपयोगितावादी सिद्धांत
जॉन स्टुअर्ट मिल का उपयोगितावादी सिद्धांत

जॉन स्टुअर्ट मिल का उपयोगितावादी सिद्धांत तथा बेन्थम के विचारों में किये गये सुधार

बेन्थम के उपयोगितावाद दर्शन ने इंग्लैण्ड के राजनीतिक चिन्तन को अत्यधिक प्रभावित किया। बेन्थम के उपयोगितावाद के आधार पर ही इंग्लैण्ड में सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक समस्याओं का समाधान किया गया। मिल बेन्थम का शिष्य था। बेन्थम के सम्पर्क में रहने के कारण तथा अपने पिता जेम्स मिल के भाव के कारण जॉन स्टुअर्ट मिल अपने प्रारम्भिक जीवन में उपयोगितावादी था। उसने कहा था, “उपयोगितावाद में मुझे एक धर्म, एक दर्शन एक विश्वास मिला है।” इसी समय बेन्थम के उपयोगितावाद पर आरोप लगाए जाने लगे थे। उसे निकृष्ट तथा हीन विचारक कहकर उसे त्याज्य समझा जाने लगा था। अपने गुरु के योग्यतम शिष्य के माते जे. एस. मिल का यह कर्त्तव्य था कि वह उपयोगितवाद पर प्रहार करने वालों को जोरदार उत्तर दिया। इसी सन्दर्भ में उसने बेन्थम के उपयोगितवाद में अनेक संशोधन किये।

डायल के शब्दों में, “व्यक्तिगत प्रवृत्ति और राजनीतिक परिस्थितियों की आवश्यकताओं ने जॉन स्टुअर्ट मिल को राज्य के उपयोगितावादी दर्शन का एक नए आधार पर नवनिर्माण करने के लिए बाध्य किया।”

मिल ने बेन्थम के उपयोगितावाद में संशोधन करते हुए स्वयं घोषित किया कि मैं एक ऐसा शिष्य हूँ जिसने अपने गुरु को ही त्याग दिया है। मिल भी बेन्थम के समान यह मानता है कि मनुष्य एक उपयोगितावादी प्राणी है। वह वही कार्य करता है जिससे सुख की प्राप्ति हो। इसके साथ ही राज्य के सम्बन्ध में भी उसकी धारणा है कि राज्य को व्यक्ति के कल्याण के लिए कार्य करना चाहिए। बेन्थम के उपयोगितावादी दर्शन से सहमत होते हुए भी उसके कई निष्कर्षों से सहमत नहीं है। इसी कारण उसने उपयोगितावाद में अनेक संशोधन किये हैं। लैकास्टर के शब्दों में, “जिस सिद्धान्त का समर्थन करने के लिए मिल को प्रशिक्षित किया गया था वह अपवादों के बादल में अदृश्य हो जाता है।”

मिल द्वारा बेन्थम के उपयोगितावाद में निम्नलिखित संशोधन किए गए-

1. सुख-दुःख में केवलं मात्रात्मक ही नहीं गुणात्मक अन्तर भी होता है- बेन्थम की मान्यता थी कि सुख-दुःख में केवल मात्रा का अन्तर होता है गुण का नहीं। अर्थात् कोई सुख कम या अधिक हो सकता है श्रेष्ठ अथवा निःकृष्ट नहीं। इस कारण बेन्थम ने कहा कि “यदि सुखों की मात्रा समान हो तो बालक्रीड़ा भी उतनी ही उपयोगी है जितना कि कविता पाठ”। इसके विपरीत मिल की यह मान्यता है कि कुछ और दुःख में, केवल मात्रा का ही नहीं गुण का भी अन्तर होता है। मिल के शब्दों में, “एक सन्तुष्ट सूअर मुर्ख होने की अपेक्षा एक असन्तुष्ट सुकरात होना अच्छा है।”

2. सुख और दुःख मापे नहीं जा सकते हैं- मिल ने सुखों में गुणात्मक अन्तर को आवश्यक बताकर अपने गुरु वेन्थम की आनन्द मापक पद्धति को तहस-नहस कर दिया और उसके उपयोगितावादी दर्शन को बहुत कुछ अस्त-व्यस्त कर दिया। जब एक बार इस तथ्य को स्वीकार कर लिया जाता है कि सुखों में मात्रा का ही नहीं गुणों का भी अन्तर होता है तो सुख मापक यन्त्र को नापा नहीं जा सकता। प्रो. वेपर के शब्दों में, “मिल ने सुखमापक यन्त्र को निराधार घोषित करके उचित ही किया।”

3. यह आवश्यक नहीं कि सुख की प्राप्ति प्रत्यक्ष रूप से ही हो–बेन्थम का विचार है कि व्यक्ति वही कार्य करता है, जिससे उसे रुख की प्राप्ति होती है तथा उन कार्यों से बचना चाहता है जिससे उसे दुःख प्राप्ति की सम्भावना होती है। इसके विपरीत मिल का विचार है कि कई बार ऐसा होता है कि सुख की आशा के साथ किये जाने वाले कार्यों से सुख की प्राप्ति नहीं होती है। इसके विपरीत जब कोई व्यक्ति सुख की आशा के बिना अपने कार्य में व्यस्त हो जाता है तो अनायास ही उसे सुख की प्राप्ति हो जाती है। बेन के शब्दों में, “आनन्द को अचूक निशाने की भाँति प्राप्त नहीं किया जा सकता। हमें सुख प्राप्ति के लिए वूमरेंग की भाँति वृत्ताकार रूप में प्रयास करना चाहिए और अपने-अपने लक्ष्य को परोक्ष रूप से प्राप्त करना चाहिए।”

4. उपयोगिता की मान्यताएँ केवल बाह्य नहीं आन्तरिक भी है- बेन्थम ने सुख दुःख के चार स्रोत बताये हैं ये स्रोत हैं—प्राकृतिक, धार्मिक, सामाजिक और कानूनी ये चारों मान्यताएँ बाहरी हैं। मिल ने इसमें एक और स्रोत जोड़ दिया वह था अन्तरात्मा की मान्यता । विश्व की सभी महा विभूतियों ने इसी आन्तरिक सुख की प्राप्ति के लिये महान बलिदान किये हैं। ईसा मसीह इसी सुख के कारण क्रॉस पर लटक गए मिल ने कहा कि वास्तविक सुख अन्तःकरण से सम्बन्धित होने के कारण आन्तरिक होता है भौतिक अथवा बाह्य नहीं मिल ने बेन्थम के सिद्धान्त में अन्तःकरण का समावेश करके उसमें एक महत्त्वपूर्ण संशोधन किया जिसके परिणामस्वरूप उसका स्वरूप ही परिवर्तित हो गया।

5. मिल का उपयोगितावाद नैतिक है जबकि बेन्थम का राजनैतिक- बेन्थम उपयोगिता सुख के सिद्धान्त को एक राजनैतिक सिद्धान्त मानता है नैतिक नहीं। इसके विपरीत मिल के उपयोगितावाद में नैतिकता का पुट अधिक है। बेन्थम का विचार है कि राज्य का उद्देश्य अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम सुख होनी चाहिए। इसी उद्देस्य से प्रेरित होकर उसे सभी कार्य करने चाहिए। मिल का विचार था कि प्रत्येक को उचित-अनुचित का ध्यान रखकर कार्य करना चाहिए। इस प्रकार का उपयोगितावादी सिद्धान्त विधि निर्माता के लिये एक पथ-प्रदर्शक नैतिकता का सिद्धान्त बन गया। मिल ने उपयोगितावाद के राजनीतिक पहलू को धूमिल कर दिया।

6. नैतिक तथा सामाजिक कर्त्तव्यों का आधार उपयोगिता नहीं- बेन्थम का विचार है कि व्यक्ति केवल उन्हीं कार्यों को करता है जिनसे उसे सुख की प्राप्ति होती है, परन्तु मिल की मान्यता है कि कुछ कार्य ऐसे भी होते हैं जो अनुपयोगी होते हुए भी व्यक्ति द्वारा किये जाते हैं। जैसे—माता पिता की सेवा, राज्य के प्रति अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह मिल के शब्दों में, “प्रत्येक नैतिक समस्या का अन्तिम रूप उपयोगितावाद की कसौटी पर आँका जा सकता है किन्तु उपयोगितावाद का प्रयोग व्यापक अर्थों में लगाना होगा और उसे मनुष्य की शाश्वत शक्तियों में निहित प्रगति की कामना साथ सम्बद्ध करना होगा।” उपयोगितावाद में मिल के इस संशोधन के कारण ही डैविडसन ने लिखा है, “उसकी विचार श्रृंखला में सामाजिक संवेदना का बहुत बड़ा सशक्त अंग है।” के

7. व्यक्तिगत सुख के स्थान पर सामाजिक सुख का महत्त्व- बेन्थम जहाँ व्यक्तिगत सुख को महत्व देता है वहीं मिल ने सामाजिक सुख को अधिक महत्त्व दिया है। मिल के विचार में उपयोगितावाद का मापदण्ड व्यक्ति का अधिकतम सुख नहीं है बल्कि समाज का अधिकतम सुख । उपयोगितावाद में नैतिकता की आदर्शवादिता इस तथ्य द्वारा प्रकट होती है कि मनुष्य को वे ही कार्य दूसरों के लिये करने चाहिए जिन्हें वह अपने लिये अपेक्षित मानता है। मिल ने अपने सिद्धान्त की पुष्टि ईसा मसीह के स्वर्णिम नियम से की है “ईसा मसीह के स्वर्णिम नियम में हमें उपयोगितावादी नैतिकता की आत्मा के पूर्ण दर्शन होते हैं। ईसा का उपदेश है कि तुम दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करो, जैसा अपने साथ चाहते हो तुम अपने पड़ोसी से वैसा ही प्रेम करो, जैसा अपने से करते हो। उपयोगितावादी नैतिकता का सर्वोत्कृष्ट आदर्श यही है।”

8. उपयोगितावाद की ऐतिहासिक व परम्परागत सीमाओं की मान्यता- बेन्थम का विचार था कि उपयोगिता का सिद्धान्त सार्वदेशिक व सार्वकालिक है तथा उसके मन्तव्य सब समयों व सब देशों के लिए समान रूप से लागू किए जा सकते हैं। परन्तु मिल ऐसा नहीं मानता था, उसके मतानुसार प्रत्येक देश और जाति का अपना इतिहास, परम्पराये, रूढ़ियों और नियम होते हैं, इनका उस देश की विशिष्ट परिस्थितियों में विकास होता है, प्रत्येक देश की शासन प्रणाली वहाँ की परम्पराओं और परिस्थितियों के अनुसार होनी चाहिए। कोई भी शासन प्रणाली ऐसी आदर्श व उन्नत नहीं हो सकती जो सर्वत्र समान रूप से लागू की जा सके।

मिल के शब्दों में, “मैं समस्त नैतिक प्रश्नों के सम्बन्ध में उपयोगिता को सर्वोच्च स्थान देता हूँ परन्तु यह उपयोगिता एक प्रगतिशील प्राणी के रूप में स्थायी हितों पर आधारित होनी चाहिए।” इस प्रकार मिल ने बेन्थम के उपयोगितावादी दर्शन में संशोधन तथा उसकी पुनर्व्याख्या करके उसके स्वरूप को प्रायः पूर्णतः बदल दिया। मैक्सी के शब्दों में, “उपयोगितावाद की इस व्याख्या में बेन्थम के सिद्धान्त का बहुत ही कम अंश रह जाता है।”

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