हाॅब्स का सामाजिक समझौता सिद्धांत
1651 में हॉब्स ने एक पुस्तक लिखी थी— ‘लोवियाथन।’ इस पुस्तक में उसने राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक नये दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया है, जिसने राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धान्त को पृष्ठभूमि में ढकेल दिया और वर्षों तक राजनीति के क्षीतिज पर छाया रहा। राज्य की उत्पत्ति का यह सिद्धान्त था— ‘सामाजिक समझौता सिद्धान्त’। इस सिद्धान्त के माध्यम से हॉब्स ने यह स्थापित करना चाहा कि राज्य की उत्पत्ति सामाजिक समझौता का परिणाम है। इस सिद्धान्त द्वारा हॉब्स ने निरंकुश शासन तन्त्र का समर्थन किया है।
हॉब्स ने सामाजिक समझौता सिद्धान्त द्वारा यह मत प्रतिपादित किया कि मनुष्य पहले प्राकृतिक अवस्था में रहता था, किन्तु मानव स्वभाव के दोषों के कारण प्राकृतिक अवस्था अच्छी नहीं थी और इस अव्यवस्था से छुटकारा पाने के लिए मनुष्य ने एक समझौता किया। इस समझौते के परिणामस्वरूप राज्य की उत्पत्ति हुई।
हॉब्स के समझौता सिद्धान्त को भली प्रकार समझने के लिए उसे तीन भागों में बाँटा जा सकता है— मानव स्वभाव, प्राकृतिक अवस्था और सामाजिक समझौता।
1. मानव-स्वभाव-हॉब्स यह मानता है कि मनुष्य स्वभाव से स्वार्थी व झगड़ालू होता है। अपने ईर्ष्यालु पशुवत् तथा समाज-विरोधी स्वभाव के कारण वह प्रतिद्वन्द्विता तथा शत्रुता का जीवन व्यतीत कर रहा था। वह यह भी मानता है कि प्रकृति ने सभी को समान बनाया है, कोई शारीरिक रूप से अधिक बलवान है और कोई मानसिक रूप से इस समानता के कारण मनुष्यों में संघर्ष होता रहता है, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य अन्य व्यक्ति को हराकर यश प्राप्त करना चाहता है इसके लिए वह अधिक शक्ति प्राप्त करना चाहता है। इसके अतिरिक्त मनुष्य अपनी रक्षा के लिए भी शक्ति अर्जित करना चाहता है। इस प्रकार वह आत्मरक्षा के लिए तथा सम्पत्ति व अधिकार में वृद्धि करने के लिए सदैव संघर्ष में उलझा रहता है।
2. प्राकृतिक अवस्था- चूँकि मनुष्य स्वभाव से ही स्वार्थी, झगड़ालू तथा असामाजिक था. अतः स्वाभाविक रूप से मनुष्य के रहने की वह अवस्था भी अच्छी नहीं थी। मनुष्य आपस में झगड़ते रहते थे तथा सामाजिक अनुशासन के अभाव में समाज में अराजकता फैली हुई थी। हॉब्स के शब्दों में “सभी एक-दूसरे से लड़ते थे। इस अवस्था में उचित व अनुचित, न्याय-अन्याय का कोई स्थान नहीं था। धोखा और शक्ति ही मुख्य गुण समझे जाते थे और मनुष्य का जीवन एकदम खतरे में था।” इस प्रकार हॉब्स मानता है कि प्राकृतिक अवस्था एक निराशापूर्ण तथा जंगली अवस्था थी, जहाँ ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस का कानून था।
3. सामाजिक समझौता– प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य स्वयं को असहाय और असुरक्षित महसूस करता था, क्योंकि समाज का वातावरण हिंसात्मक तथा संघर्षमय था। मनुष्य में आत्म रक्षा की भावना तो प्रबल होती है, अतः उसने इस भावना से प्रेरित होकर आपस में एक अनुबन्ध किया। इस समझौते के अन्तर्गत मनुष्य ने अपने सारे अधिकार किसी एक व्यक्ति को सौंप दिये। हॉब्स के शब्दों में, “मैं अपने ऊपर शासन करने का अधिकार इस व्यक्ति को, इस शर्त पर सौंपने की स्वीकृति देता हूँ कि तुम भी अपना अधिकार उसको सौंप दोगे और इसी तरह उसके सब कार्यों को स्वीकृति दोगे।” ऑर हॉब्स के अनुसार इस सामाजिक समझौते कि परिणामस्वरूप ही राज्य की। उत्पत्ति हुई। जिस व्यक्ति को सभी ने अपने सारे अधिकार सौंपे वह व्यक्ति राजा बना। इस समझौते के कारण एक सभ्य समाज तथा राज्य का जन्म हुआ।
हॉब्स ने इस सिद्धान्त द्वारा निरंकुश राजा का समर्थन किया है और सम्प्रभुता का वास राजा में ही माना है, जिसकी प्रत्येक आज्ञा मानने को अन्य व्यक्ति बाध्य है। लेवियाथान ने हॉब्स ने लिखा है- “इस अनुबन्धन के द्वारा सारा जन समुदाय एक व्यक्ति में संयुक्त हो जाता है, इसे राज्य या लेटिन में सिविटास कहते हैं। यही उस महान लेवियाथान या नश्वर देवता का प्रजनन हैं। यह लेवियाथन प्राकृतिक अवस्था की अराजकता और सभ्यता के मध्य एक दीवार की भाँति खड़ा है। इससे पहले समाज और राज्य की कोई सत्ता नहीं थी। इसे ही सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न शासक या सम्प्रभु कहते हैं। इसे सर्वोच्च अधिकार प्राप्त होते हैं और इसके अतिरिक्त अन्य व्यक्ति उसके दास होते हैं।”
हाॅब्स का सामाजिक समझौता सिद्धांत की आलोचना
हॉब्स द्वारा प्रतिपादित सामाजिक समझौता सिद्धान्त की कई विद्वानों ने आलोचना की है। वे इसे गलत तथा अतार्किक मानते हैं। हॉब्स के सामाजिक समझौता सिद्धान्त की आलोचना के मुख्य आधार इस प्रकार हैं-
1. मानव स्वभाव का त्रुटिपूर्ण चित्रण- हॉब्स द्वारा किया गया मानव स्वभाव का चित्रण एकांगी और त्रुटिपूर्ण है। वह मनुष्य को झगड़ालू, स्वार्थी तथा लोभी मानता है, किन्तु यह मानव स्वभाव का केवल एक पहलू है। मनुष्य में कुछ बुरी प्रवृत्तियाँ रहती हैं, पर उसके साथ ही उसमें कुछ अच्छी प्रवृत्तियाँ भी विद्यमान रहती हैं। यदि झगड़ा करना उसकी प्रवृत्ति है, तो स्नेह और प्रेम भी उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है। उसमें अच्छी व बुरी दोनों प्रवृत्तियों का मिश्रण पाया जाता है। मनुष्य चूँकि एक सामाजिक प्राणी है, अतः वह सबके साथ मिलकर ही रहना चाहता है एकाकी या अकेला नहीं। हॉब्स द्वारा इस पक्ष की उपेक्षा करने के कारण उसका यह दृष्टिकोण भी एकांगी है।
2. प्राकृतिक अवस्था का गलत चित्रण- हॉब्स ने ‘लेवियाथान’ में राज्य की उत्पत्ति से पूर्व की जिस प्राकृतिक अवस्था का वर्णन किया है, वह बेबुनियाद तथा काल्पनिक है। मानव इतिहास को समझौते के पूर्व तथा बाद के दो युगों में बाँटना अनुचित तथा अनैतिहासिक है। पूरा इतिहास, उसके द्वारा बताई प्राकृतिक अवस्था की कहीं भी पुष्टि नहीं करता है।
3. निरंकुश सम्प्रभुता का विचार अनुचित- हॉब्स ने निरंकुश सम्प्रभुता का समर्थन करते हुए सम्पूर्ण शक्तियाँ राजा को ही सौंप दी है। वह मानता है कि प्राकृतिक अवस्था की अराजकता को समाप्त करने के लिए लोगों ने सम्प्रभु को सारे अधिकार सौंप दिये। उस पर किसी प्रकार का नियन्त्रण नहीं रखा तथा उसकी आज्ञा को मानना अनिवार्य माना। इस प्रकार हॉब्स का यह विचार निरंकुशवाद को बढ़ावा देता है तथा व्यक्ति को राजा का दास बना देता है। डॉ. इकबाल नारायण के अनुसार— “हॉब्स के अनुसार जिस स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश शासन की स्थापना होती है, वह अत्यन्त भयंकर है। शासन के ऊपर कोई प्रतिबन्ध नहीं है, उसका हस्तक्षेप जीवन के प्रत्येक भाग में है, जबकि उसका उत्तरदायित्व उसका मनमानापन है। फलस्वरूप न तो व्यक्ति की स्वतन्त्रता सुरक्षित है, न उसकी सम्पत्ति। व्यक्ति राज्य की तुलना में केवल उसका दास बनकर रह जाता है। “
4. राज्य का आधार समझौता नहीं- हॉब्स यह मानकर चलता है कि क्योंकि राज्य किसी समय हुए समझौते का परिणाम है। अतः अब भी उसकी आज्ञाओं का पालन होना चाहिये। प्रो. आशीर्वादम का कथन उचित है, “कोई संविदा केवल उन्हीं लोगों पर लागू होती है, जो स्वेच्छापूर्वक उसे स्वीकार करते हैं। पर यह सामाजिक संविदा तो उन पीढ़ियों पर भी लागू मान ली जाती है, जिनका उसमें हाथ नहीं है।” आलोचकों का कहना है कि हम राज्य की आज्ञा का पालन इसलिए नहीं करते कि हमारे पूर्वजों ने ऐसा समझौता किया था, बल्कि इसलिए करते हैं, क्योंकि ऐसा करना हमारे हित में है। अतः राज्य का आधार उसकी उपयोगिता है, कोई समझौता नहीं।
5. अतार्किक सिद्धान्त- किसी भी समझौते के लिए दो पक्षों का होना अनिवार्य है, किन्तु हॉब्स द्वारा जिस समझौता का वर्णन किया गया है, उसमें केवल एक ही पक्ष है जनता। अतः यह समझौता ही अतार्किक है। इस सिद्धान्त को अतार्किक मानते हुए डिग्वी ने कहा है, “संविदा का विचार प्राकृतिक अवस्था कही जाने वाली अवस्था में मौजूद नहीं हो सकता, क्योंकि जो लोग पहले से समाज में नहीं रह रहे हैं, उन्हें संविदा के सम्बन्ध और उत्तरदायित्व का बोध हो ही नहीं सकता।
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