चर्च और राज्य का विवाद
विवाद का स्वरूप- मध्ययुग के राजनीतिक चिन्तन का प्रमुख विषय चर्च और राज्य के बीच चलने वाला सत्ता विवाद था। इस विवाद का मुख्य विषय दोनों के सत्ता प्रयोग के प्रभाव क्षेत्र तथा सर्वोच्चता के प्रश्न को लेकर था। इस विवाद के प्रारम्भ होने के पूर्व ‘दो तलवारों के सिद्धान्त’ के अनुसार यह माना जाता था कि परमात्मा ने इस पृथ्वी के शासन संचालन के लिए दो तरह की सत्ताओं का निर्माण किया है—लौकिक और पारलौकिक सत्ता लौकिक सत्ता का अधिकारी सम्राट है और पारलौकिक सत्ता का अधिकारी ईसाई चर्च का प्रमुख रोम का पोप है। इन दोनों को अपने अपने क्षेत्र में कार्य करने की स्वतन्त्रता है। अतः इनमें किसी प्रकार का संघर्ष नहीं होना चाहिए वरन् सामाजिक हित को ध्यान में रखकर इन दोनों का आपस में सहयोग करना चाहिए।
ग्यारहवीं शताब्दी तक कम ज्यादा रूप में इन दोनों के बीच सम्बन्ध सामान्य बने रहे, किन्तु धीरे-धीरे इनमें विवाद की स्थिति उत्पन्न होने लगी। विवाद उत्पन्न होने का मुख्य कारण पोप के समर्थकों द्वारा सन्त पीटर के उत्तराधिकारी होने के कारण पोप की सर्वोच्च सत्ता को स्थापित करने का प्रयास था, जिसके आधार पर उन्होंने पोप के राजाओं के धर्म पालन न करने पर उन्हें दण्डित करने और सिंहासन से उतारने के अधिकार का समर्थन किया और बिशपों आदि धर्माधिकारियों की सम्राट द्वारा नियुक्ति की प्रथा को चुनौती दी। पोप के समर्थकों के इस प्रकार के दावों के विरुद्ध लौकिक सत्ता के समर्थकों ने सम्राट की सर्वोच्च सत्ता का समर्थन करते हुए घोषित किया कि सम्राट की नियुक्ति ईश्वर के द्वारा की गयी है, अतः पोप सहित अन्य सभी धर्माधिकारियों की नियुक्ति उसकी सहमति से होनी चाहिए। इसके साथ ही यह भी तर्क प्रस्तुत किया गया कि चर्च के अधिकारी भी अन्य सामन्तों की तरह विशाल भू-सम्पत्ति के स्वामी हैं, अतः उनकी नियुक्ति और नियन्त्रण सम्राट के चौदहवीं शताब्दी तक इन दोनों सत्ताओं में चलने वाला यह विवाद अपनी पूर्ण उग्रता से चलता हा और राजनीतिक चिन्तन को प्रभावित करता रहा। इस सम्बन्ध में सेबाइन का कथन है कि
“इस समय की राजनीतिक रचनाएँ मुख्य रूप से लौकिक तथा धार्मिक सत्ताओं के सीमा सम्बन्धी विवाद का प्रतिपादन करती हैं।”
वाद-विवाद के विकास के चरण
ग्यारहवीं शताब्दी तक राज्य और चर्च दोनों में सहयोग की भावना बनी रही, परन्तु रोमन साम्राज्य पर बर्बर जातियों के आक्रमण ने ही इस संघर्ष के बीच बो दिये। इस संघर्ष को हम निम्न चरणों में विभक्त कर अध्ययन कर सकते हैं
1. राजा हेनरी चतुर्थ तथा पोप ग्रिगोरी सप्तम का संघर्ष – संघर्ष का पहला दौर तब प्रारम्भ हुआ जबकि एक ओर शक्तिशाली राजा था तथा दूसरी ओर प्रभावशाली पोप। यह राजा था हेनरी चतुर्थ और पोप था ग्रिगोरी सप्तम 1073-1085 ई. तक ग्रिगोरी एक बहुत महत्वाकांक्षी पोप था। पोप बनने पर वह स्वयं को पीटर के समान समझता था। उसके अनुसार राज्य का निर्माण पापी व्यक्तियों द्वारा होता है जबकि चर्च की स्थापना ईश्वर द्वारा हुई, पोप कभी गलती नहीं कर सकता तथा उसे राजा को हटाने का भी अधिकार है।
हेनरी चतुर्थ से मिलान के बिशप पद की नियुक्ति के प्रश्न पर संघर्ष हो गया। मुख्य प्रश्न यह था कि क्या बिशप मुख्य रूप से सामन्त है या चर्च का अधिकारी हेनरी इस प्रश्न में अपनी इच्छा का बिशप बनाना चाहता था। अतः 1075 ई. में पोप ने एक घोषणा जारी की जिसमें राज्य के अधिकारियों द्वारा बिशपों की नियुक्ति “Lay inveititure” को अवैध घोषित कर दिया तथा राजा के चार प्रमुख बिशपों को चर्च से निकाल दिया। पोप ने राजा को भी धर्म बहिष्कृत (Excommunicated) कर दिया इतना ही नहीं बल्कि पोप ने एक दूसरे राजकुमार को गद्दी पर बैठाने का भी विचार किया। अब राजा के लिये एक समस्या उत्पन्न हुई। अतः उसने क्षमा याचना करने का विचार किया। वह कानोसा (Canossa) में भाग गया, जहाँ कि पोप ठहरा हुआ था। यहाँ पर तीन दिन तक भयंकर सर्दी में नंगे पांव खड़ा रहकर उसने प्रायश्चित किया और माफी माँगी जिससे पोप ने प्रसन्न होकर उसके धर्म बहिष्कार का दण्ड वापिस ले लिया। इस प्रकार ग्रिगोरी ने अपने साहस और दृढ़ता के साथ चर्च के प्रभाव को स्थापित किया।
2. पोप इन्नोसैन्ट तृतीय तथा राजा के मध्य संघर्ष- ग्रिगोरी सप्तम के सौ वर्ष पश्चात् इन्नौसैन्ट तृतीय ने सर्वोच्च सत्ता युक्त बनने का प्रयत्न किया। 18 साल के शासन काल में उसने सात राजाओं को दण्ड दिया। दो को चर्च से बहिष्कृत कर दिया। फ्रांस के राजा फिलिप्स आगस्ट्स ने अपनी पत्नी को छोड़ दिया था, लेकिन पोप के कहने पर उसे वापिस ग्रहण करना पड़ा। पुर्तगाल, अराकान, हंगरी और बल्गारिया के राजाओं ने अपने आप को पोप का सामन्त कहा। इंग्लैण्ड के राजा जॉन को भी झुकना पड़ा। पोप ने इंग्लैण्ड के कैन्टीबरी के आर्कबिशप पद पर स्टीफेन जैन्टन को नियुक्त किया। बादशाह द्वारा स्वीकार न किये जाने पर उसे धर्म बहिष्कृत कर दिया और फ्रांस के राजा को इंग्लैण्ड पर आक्रमण करने को कहा। परिणामतः राजा डॉन को झुकना पड़ा और वह भी पोप का सामन्त बन गया। इस प्रकार पोप की शक्ति बहुत बढ़ गयी थी। वह मध्यकालीन पोपों में सबसे अधिक शक्तिशाली पोप था।
3. पोप बोनिफेस अष्टम (1294-1303) तथा फिलिप चतुर्थ (1285-1314 ) – लगभग एक शताब्दी के बाद पोप की बढ़ती हुई शक्ति एवं प्रतिष्ठा को धक्का लगा। उस समय फ्रांस का राजा फिलिप चतुर्थ तथा इंग्लैण्ड का राजा एडवर्ड युद्धरत थे। युद्ध का संचालन करने के लिये दोनों को ही धन की आवश्यकता थी। अतएव उन्होंने राज कर से मुक्त चर्च की विशाल सम्पत्ति पर करारोपण का निश्चय किया। पोप राजा द्वारा चर्च पर टैक्स लगाने के विरुद्ध था। उसने एक आज्ञा पत्र द्वारा यह कहा कि जो बिना पोप की आज्ञा के यह टैक्स देगा, उसका धर्म से बहिष्कार कर दिया जायेगा। इसके विरोध में फिलिप ने पोप को भेजे जाने वाले अनेक उपहारों पर कड़ा प्रतिबन्ध लगा दिया। पोप को झुकना पड़ा। इस तरह संघर्ष में राजा की विजय हुई। शीघ्र ही एक और घटना हुई। पोप के एक दूत बर्नार्ड सइसैट (Bernard Saissett) को किसी झगड़े में फिलिप ने बन्दी बना लिया और एक अदालत में उस पर मुकदमा चलाया। पोप ने उसकी रिहाई की माँग की और साथ में यह भी माँग की कि चर्च के व्यक्तियों पर राजकीय मुकदमा नहीं चला सकता। दोनों ने अपने अपने पक्ष में विभिन्न धार्मिक परिषदें बुलानी प्रारम्भ की। फिलिप ने 1303 ई. में दो धार्मिक परिषदें बुलाकर पोप पर यह इल्जाम लगाया कि वह “अत्याचारी, जादूगर, हत्यारा, गबन करने वाला, व्यभिचारी, चर्च के पदों को बेचने वाला, मूर्ति पूजक और काफिर है।” उसने अपने एक प्रतिनिधि विलियम को दो हजार सैनिकों के साथ रोम भेजा जिन्होंने पोप से त्याग पत्र की माँग की। तीन दिन तक पोप इनकी कैद में रहा। कुछ ही दिन पश्चात् 75 वर्षीय बूढ़े पोप की मृत्यु हो गयी।
4. पोप बैनिडिक्स एकादश की हत्या- उसके बाद बैनिडिक्स एकादश पोप बना लेकिन एक साल बाद ही जहर देकर मार दिया गया। वास्तव में बोनिफेस के काल में धर्म की सत्ता को गहरा आघात लगा था। वह पतन की ओर जाने लगी थी और उसकी प्रतिष्ठा कम होने लंगी थी। इस संघर्ष में फिलिप की विजय हुई।
5. पोप जान बाइसवाँ (1316-1334) तथा जर्मन सम्राट बवेरियन लुईस चतुर्थ (1314-47 ) के मध्य संघर्ष- सन् 1314 में बवेरिया के लुईस चतुर्थ को पवित्र रोमन सम्राट चुना गया। इसी समय कुछ निर्वाचकों द्वारा आस्ट्रिया के फ्रेडरिक को भी सम्राट चुन लिया गया। परिणामतः गृहयुद्ध छिड़ गया। 1316 ई. में जान बाइसवाँ एविग्नोन में पोप की गद्दी पर बैठा। वह इटली को जर्मन सम्राट के प्रभाव से मुक्त कराना चाहता था। अतएव उसने यह घोषणा करे दी कि सम्राट केपद पर बिना पोप की स्वीकृति के बैठना पोप के अधिकारों को हनन है, अतः पोप की स्वीकृति आवश्यक है। पर पोप को योग्य समर्थन नहीं मिल सका। इसके अतिरिक्त बहुत से ईसाई व्यक्ति भी अधिक धन संग्रह के पक्ष में नहीं थे।
6. पोप की शक्ति क्षीण-14वीं शताब्दी तक पोप की शक्ति बिल्कुल क्षीण होती गई। पोप का व्यक्तिगत जीवन नष्ट होने लगा था। पोप रोम से ‘आवीग्योन’ आ गया था जिससे उस पर फ्रांस के राजा का प्रभाव बढ़ गया। धीरे-धीरे पोप नाम मात्र का अधिष्ठाता रह गया। पोप की सम्पत्ति जब्त होने लगी थी। धार्मिक न्यायालय बन्द कर दिये गए। राष्ट्रीयता की भावना ने पोप की शक्ति को और क्षीण कर दिया था। पोप आवीग्योन से फिर रोम आया लेकिन उसकी शक्ति समाप्त होने लगी। रोम के लोगों ने अरबन षष्ठ को पोप चुना तो फ्रांस के लोगों ने राबर्ट को पोप चुना और इस तरह से दो पोप हो गये जिससे पोप की शक्ति और कमजोर हो गई।
संघर्षों से सम्बन्धित प्रश्न-उपरोक्त वाद-विवादों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि यह दो व्यक्तियों में संघर्ष था। प्रश्न यह था कि किसका अधिकार क्षेत्र कहाँ तक सीमित था। धर्म का हस्तक्षेप राज्य में कहाँ तक उचित है। राजा चर्च की सम्पत्ति पर टैक्स लगा सकता है या नहीं। क्या राजा चर्च के अधिकारियों को नियुक्त कर सकता है या नहीं, या धर्म का राज्य पर कहाँ तक अंकुश है। उपर्युक्त विवादों के आधार पर चर्च तथा राज्य के पक्ष अथवा विपक्ष में उस काल के विचारकों ने अपने-अपने मर्तो का समर्थन किया है।
धर्मसत्ता को सर्वोच्च मानने के तर्क
पोप या चर्च की प्रभुता के समर्थक धर्म सत्तावादी (sacre-dotalist) कहलाए। इनमें हिल्डेब्राइन्ड, सैन्ट बरनार्ड, सैलिसबरी का ज्ञान, संत थॉमस एक्वीनास आदि प्रसिद्ध हैं। नवीं शताब्दी से पोप का प्रभुत्व स्थापित हो गया था ग्रोगोरी सप्तम ने चर्च के जीवन में भी अनेक सुधार किये थे और उसने चर्च का स्वतन्त्र अस्तित्व कायम किया था। चर्च के समर्थन में निम्न मत दिये जा सकते हैं
1. चर्च की स्थापना ईश्वर द्वारा
यदि मानव एक है तथा चर्च की स्थापना ईश्वर द्वारा हुई है तो वास्तविक राज्य चर्च ही हो सकता है। महात्मा ईसा इस राज्य के सर्वोच्च अधिकारी है। पृथ्वी पर उसका प्रतिनिधित्व पोप करता है।
2. दो तलवारों का सिद्धान्त
दो तलवारें आध्यात्मिक एवं सांसारिक शक्तियों की प्रतीक हुई। ये दोनों तलवारें भगवान ईसा ने पीटर को दी थीं जो कि पोप को प्राप्त हुई। पोप ने आध्यात्मिक शक्ति को अपने हाथ में ही रखा तथा सांसारिक शक्तियाँ राजाओं को दे दी। इस प्रकार राजा पोप के माध्यम से ईश्वर के प्रति उत्तरदायी है तथा उसे पोप सहमति से राजसत्ता का प्रयोग करना चाहिये।
3. राज्य की उत्पत्ति
पोप द्वारा धर्म सत्तावादियों के अनुसार राज्य की उत्पत्ति आदम के आदिम पाप से हुई है। अतः इसके प्रायश्चित के लिये तथा शुद्धि के लिये चर्च का समर्थन तथा सहयोग सर्वोपरि है।
4. धर्म की श्रेष्ठता
आध्यात्मिक जीवन की श्रेष्ठता के लिए धर्मसत्ताओं एवं पुरोहितों को अधिक महत्व दिया जाना आवश्यक है। सत्ता एम्ब्रोज ने कहा, “सीसे की और सोने की चमक में जो अन्तर है वही अन्तर राजाओं के बिशपों के गौरव में है। “
5. चर्च द्वारा सहयोग की शक्ति
रोमन साम्राज्य पर बर्बर जातियों के आक्रमण होने पर केवल चर्च ही एक ऐसी शक्ति थी जो पश्चिमी यूरोप में सहयोग स्थापित कर सकती थी। चर्च ही केवल सामाजिक और राजनीतिक हितों का संरक्षण कर सकती थी अतः सम्पूर्ण यूरोप की विभिन्नता को समाप्त करने के लिये भी चर्च की सर्वोच्च सत्ता की आवश्यकता महसूस की गई।
6. सम्राट का अस्तित्व चर्च पर
शरीर की आत्मा प्रमुख है। धर्म आत्मा है, जबकि राज्य शरीर की भाँति है, चर्च यदि सूर्य है तो राज्य चन्द्रमा के समान है। चन्द्रमा सूर्य से प्रकाश लेता है। अतः सम्राट का अस्तित्वचर्च पर भी निर्भर है।
7. चर्च ईश्वर की कृति
लौकिक शक्तियाँ मानव की कृति हैं जबकि चर्च ईश्वर की कृति है। राज्य की उत्पत्ति पोप से हुई है। अतः नैतिक दृष्टि से चर्च का प्रभुत्व आवश्यक है। चर्च ही राज्य की नैतिकता के लिये उत्तरदायी है। पोप को अधिकार है कि वह राजाओं के आचरण पर नियन्त्रण रखे।
8. धर्मशास्त्रों का महत्व
धर्मशास्त्रों का कथन भी धर्मसत्ता की प्रधानता को मानता है। आर्क बिशप हिंकमार (Hincmar) ने लोरेन के राजा लोथेयर (Lotihare) के तलाक के मामले में पोप के न्याय को धर्मग्रन्थों के आधार पर उचित ठहराया था। इससे पोप का प्रभुत्व स्थापित होता है। हिंकमार ने राजा के निर्णय को काफी स्वतन्त्र मानते हुये निरंकुश शासकों पर पुरोहित द्वारा नियन्त्रण होना बतलाया था।
9. घटनाओं का आधार
अनेक ऐतिहासिक घटनाओं तथा प्रमाणों के द्वारा राजसत्ता पर धर्मसत्ता की प्रभुता सिद्ध की गई। पहला प्रमाण संत एम्ब्रोज द्वारा सम्राट पियोडोसियरा को प्रायश्चित करने के लिये विवश करने का दिया गया। पोप की सहायता से ही पेपिन फ्रेंक का राजा बना था शार्लमेगन की पोप द्वारा ताजपोशी इस युग की महत्वपूर्ण घटना थी जो पोप की शक्ति का समर्थन करती है। इससे यह आधार बना कि जो गद्दी पर बिठला सकता है, वह हटा भी सकता है। इसी प्रसंग में ‘कांसटैंटाइन का दान’ (Donation of Constantine) भी पोपवाद का समर्थन करता है।
10. दण्ड-साधनों का प्रयोग
पोप अपने दण्ड-साधनों तथा अभिशाप देने के भय से भी धर्मसत्ता के प्रभाव का विस्तार करता रहा। धर्म बहिष्कृत कर देने की धमकी तथा उसकी क्रियान्विति मध्ययुग में विशेष महत्व रखती थी।
राजसत्ता की स्वतन्त्रता मानने वाले तर्क
राजसत्ता को मानने वाले विचारकों में पेरिस के जॉन, पडुवा के मारसिलियो और ओकम के विलियम दांते आदि प्रमुख हैं।
जहाँ एक ओर ग्रेगोर सप्तम् व इन्नोसैंट तृतीय शक्तिशाली पोप हुए थे, वहाँ दूसरी ओर फ्रेडरिक द्वितीय व हैनरी जैसे सम्राट हुये, जिन्होंने लौकिक ही नहीं बल्कि आध्यात्मिक शक्तियाँ भी प्राप्त की।
राजसत्तावादियों ने अपने समर्थन में निम्न तर्क प्रस्तुत किये हैं-
1. राज्य की दैवीय उत्पत्ति
राजसत्तावादियों ने राजा के दैवी अधिकारों (Divine Rights of King) के सिद्धान्त को प्रमुखता दी। राज्य की उत्पत्ति भी चर्च की भाँति दैवीय है। अतः राज्य किसी भी अर्थ में चर्च से हीन नहीं है। राज्य का कर्तव्य है कि वह न्याय करे तथा चर्च की रक्षा करे परन्तु राजा यदि अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करता, तो उसके दैवीय अधिकार समाप्त नहीं हो जाते। उसको दण्ड भगवान ही दे सकता है। ईश्वर अपने उद्देश्य की पूर्ति करने के लिये दो प्रकार के राजा भेजा है- क्रूर तथा दयालु। यदि राजा दयालु है तब इसका अभिप्राय यह है कि उस देश की प्रजा से ईश्वर क्रुद्ध है। अतएव प्रजा का ही कर्तव्य है कि प्रत्येक दशा में राजा की आज्ञाकारिणी बनी रहे। अतः राजा की सत्ता को स्वतन्त्र माना गया। इसी आधार पर हैनरी चतुर्थ ने पोप से संघर्ष किया।
2. राजसत्तावादियों द्वारा धार्मिक ग्रन्थों का सहारा
धर्मसत्तावादियों की भाँति राजसत्तावादियों ने भी धार्मिक ग्रन्थों के प्रभावों के रूप में अनेक उदाहरण देकर अपने तर्क का समर्थन किया। संत पाल व पीटर के वचनों से इस प्रकार के प्रसंग प्रचलित किये जो राजसत्ता को महत्व देते हैं। पीटर ने कहा, “To every ordinance of man. (King) for the Lord’s sake.”
3. दो तलवार के सिद्धान्तों का नया धर्म
जिलोसियस के दो तलवार के सिद्धान्त को राजसत्तावादियों ने अपने ढंग से मान्यता दी। उनके अनुसार ईसाई राज (Christian Common Wealth)’ के लिए क्षात्र (Imperium) व ब्रह्म (Secradotiom) शक्ति के सहयोग की आवश्यकता है, इन दोनों में एकता होनी चाहिये। चर्च को सांसारिक विषयों में राजा के अधीन होना चाहिये एवं राज्य को धार्मिक मामलों में चर्च के अधीन। पोप द्वारा दोनों ही शक्तियों को अपने हाथ में लेने का प्रयास करना ईश्वर के आदेश का उल्लंघन है।
4. राज्य का आधार नैतिकता
राजसत्तावादियों ने नैतिकता के आधार पर भी राज्य को प्रमुखता दी है। वे इस सम्बन्ध में प्लेटो एवं अरस्तू के राज्य कार्य सम्बन्धी विचारों से सहमत है कि राज्य का कार्य सत्य एवं न्याय की व्यवस्था करना है। चर्च इस नैतिक आधार पर नहीं ठहरता। अतः राजसत्ता का प्रभुत्व आवश्यक है।
5. राजसत्तावादियों द्वारा कानून का महत्व
राजसत्तावादियों ने कानून के आधार पर ही अपना समर्थन किया है। 11वीं शताब्दी में रोमन कानून का अध्ययन बड़ी मात्रा में प्रारम्भ हो गया था।
सम्राट भगवान का अवतार-बार्शेल्स नामक कानून के ज्ञाता ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया कि सम्राट पृथ्वी पर भगवान का अवतार है।
तर्क-सम्मत युक्तियाँ – राजसत्ता के समर्थन में न्यायविदों ने अनेक तर्क-सम्मत युक्तियाँ प्रस्तुत की। 12वीं सदी में पीटर क्रेसस ने कहा कि राजा हेनरी ने अपनी गद्दी उत्तराधिकारी सिद्धान्त द्वारा प्राप्त की है, पोप अथवा जनता से नहीं। अतएव हैनरी को पदच्युत करना ऐसा कार्य होगा जैसे किसी व्यक्ति की निजी सम्पत्ति को छीनना ।
यह बात कि पोप राजा को पद प्रतिष्ठित करता है अतएव पोप राजा से अधिक श्रेष्ठ है, उपयुक्त नहीं है। यदि पद-प्रतिष्ठा ही श्रेष्ठता का मापदण्ड होता तब पोप को प्रतिष्ठित करने वाले कार्डिनल पोप की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ होते ।
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