राज्य एक प्राकृतिक संस्था है’ अरस्तू के इस कथन की विवेचना कीजिए।
अरस्तू के अनुसार राज्य की उत्पत्ति एवं विकास
1. मानव आवश्यकताओं की पूर्ति– अरस्तू के अनुसार, मनुष्य एक राजनीतिक प्राणी है। मनुष्य कितना भी संन्यासी हो अकेला नहीं रह सकता। मनुष्य को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरों से सहायता लेनी पड़ती है, यह सहायता आदान-प्रदान ही उसे राज्य की मंजिल तक पहुँचा देती है।
2. पारिवारिक संगठन–राज्य व्यक्तियों का समुदाय है। यह समुदायों का समुदाय है। मनुष्य का विकास राज्य तक कई मंजिल पार कर हुआ है। मनुष्य के विकास में प्रथम मंजिल परिवार है। परिवार मनुष्य की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्वाभाविक संस्था है। यौन सम्बन्ध एवं अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति से नर-नारी इकट्ठे रहते हैं। भौतिक पदार्थों को जुटाने के लिए दासों को काम पर लगाया जाता है एवं स्वामी सेवक के सम्बन्ध कायम होते हैं।
3. ग्राम पंचायतों का संगठन–परिवार के बाद दूसरी मंजिल ग्राम है। मनुष्य की आवश्यकतायें बढ़ती जाती है। पारस्परिक विवादों के समाधान के लिए व्यक्ति ग्राम पंचायतों की सहायता चाहने लगता है। अनेक मनोरंजन, धार्मिक व आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वह दूसरे परिवार से सहयोग चाहता है। अतः मनुष्य का दायरा परिवार से बढ़कर गाम बन जाता है।
4. नगर राज्य का संगठन- विकास की अगली मंजिल राज्य के रूप में आई है जो कि मनुष्य की अन्तिम मंजिल है। मनुष्य को यह आभास हुआ कि हम भी मनुष्य की सम्पूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करते। ग्राम पूर्णतः निर्भर नहीं है। इसके लिए ग्रामों के समूह में वह नगर राज्य के विकास को मानता है, जो आत्मनिर्भर है। इस प्रकार राज्य का जन्म मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए होता है। राज्य इसी कारण कायम रह पाता है कि उसमें व्यक्तियों का श्रेष्ठ जीवन सम्भव है। अतएव समाज अथवा राज्य के जन्म के अंकुरों को सर्वप्रथम परिवार में ही देखा जा सकता है। इन कारणों के शनैः शनैः विकसित तथा प्रस्फुटित होने के परिणामस्वरूप राज्य का उदय होता है। अरस्तू के शब्दों में ‘राज्य प्रकृति की उपज है और व्यक्ति स्वभाव से ही राजनीतिक प्राणी है। जो व्यक्ति अपनी प्रकृति से (न कि संयोग से) बिना किसी राज्य के जीवित है वह मनुष्य की श्रेणी से या तो ऊपर है या नीचे।’
अरस्तू के राज्य की मुख्य विशेषताएँ
अरस्तू के अनुसार राज्य की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
1. राज्य एक स्वाभाविक संस्था है
अरस्तू ने यह माना है कि राज्य की उत्पत्ति दण्ड के डर से या आपस के समझौते से नहीं हुई बल्कि वह तो प्राकृतिक है, अरस्तू से पूर्व सोफिस्ट राज्य की उत्पत्ति कृत्रिम मानते थे। उनके अनुसार मनुष्य डर से कानून का पालन करता है पर अरस्तू के अनुसार मनुष्य के पास बुद्धि है। बुद्धिमान मनुष्य बुद्धि द्वारा अपने हितों की वृद्धि करना अपना नैतिक दायित्व समझता है।
अरस्तू के अनुसार मनुष्य के स्वभाव में विकास की प्रवृत्ति है। मनुष्य का उद्देश्य परिवार, ग्राम, राज्य की सहायक सीढ़ियों के द्वारा पूर्ण होता है। राज्य जिन संस्थाओं पर आधारित है वे स्वाभाविक है। अतः राज्य का विकास भी स्वभाविक होगा।
राज्य का विकास परिवार के आधार पर हुआ। परिवार एक स्वाभाविक संस्था है। परिवार की भाँति राज्य भी मनुष्य पर जबरदस्ती लादी गई व्यवस्था नहीं है बल्कि यह तो उसके विकास में सहायक है। बिना राज्य के मनुष्य का जीवन दूभर है। अरस्तू का कथन है कि, “जिन संस्थाओं पर राज्य आधारित हैं वे संस्थायें स्वाभाविक है, तब निश्चय ही उन स्वाभाविक संस्थाओं का विकसित रूप भी स्वाभाविक होगा।”
2. राज्य मनुष्य से प्राथमिक
राज्य विकास क्रम में हमने अभी देखा कि आवश्यकता के अनुसार मनुष्य के दायरे विभिन्न होते गये परिवार, ग्राम तथा राज्य राज्य मनुष्य के विकास का आखिरी दायरा है।”
परन्तु इस तथ्य को पढ़ने पर सामान्यतः यह अनुभव होता है कि पहले मनुष्य, फिर परिवार तत्पश्चात् ग्राम एवं राज्य का विकास हुआ। ऊपरी सतह से देखने पर अरस्तू का यह कथन विचित्र प्रतीत होता है। कारण यह है कि राज्य का जन्म मनुष्यों के द्वारा होता है। स्वयं अरस्तू ने कहा है कि ऐतिहासिक विकास के दृष्टिकोण से आरम्भ में व्यक्तियों से मिलकर परिवार बने, परिवारों से मिलकर ग्राम बने तथा ग्रामों से राज्य का निर्माण हुआ। वास्तविकता यह है कि अरस्तू के उपरोक्त कथन को ऐतिहासिक दृष्टिकोण से नहीं लिया जाना चाहिये। प्लेटो ने राज्य को मनोवैज्ञानिक तथा तर्क सम्मत सम्बन्ध के दृष्टिकोण से राज्य को व्यक्ति का पूर्ववर्ती स्वीकार किया है। वह शरीर सिद्धान्त में विश्वास करता है। मानव शरीर केवल मांसपेशियों और रक्त का ढेर नहीं है। मानव शरीर में इन सबकी आवश्यकता है ही, इसके अभाव में सभी अंग बेकार है। आँख, नाक, कान, पैर सभी कार्य कर सकते हैं जबकि उनमें एक तत्त्व हो। समग्र पहले आता है तथा अंग बाद में अरस्तू कहना चाहता है कि जीव के विचार के दृष्टिकोण से अवयव अंग से पूर्व होना चाहिये। कारण यह है कि अवयवो का अभाव होने पर उसके अंगों की कल्पना नहीं की जा सकती। इसी प्रकार से परिवार एवं ग्राम बिना राज्य के कार्य नहीं कर सकते क्योंकि राज्य में से एकत्व रूपी प्राण न रहने से विभिन्न अंगों का कोई मूल्य नहीं रह जाता। अतः राज्य विभिन्न अंगों की पूर्णता है। अतः राज्य मनुष्य से पूर्ववर्ती है।
3. राज्य का सावयव स्वभाव
अरस्तू राज्य को एक सावयव कि भांति मानता है। प्रत्येक सावयवी जीव का विकास स्वाभाविक रूप से होता है। राज्य के सदस्य उसके अंग है। राज्य मनुष्य के विकास के लिए आवश्यक है, परन्तु अपना कोई अलग स्वतन्त्र उद्देश्य नहीं रखता। जिस प्रकार मानव शरीर में विभिन्न मूल अंग होते हैं जैसे हाथ, पैर, आँख आदि और कुछ प्रभावोत्पादक तत्त्व खून आदि होता है। इसी प्रकार राज्य में सैनिक, न्यायिक आदि मूल अंग होते हैं। कृषक, श्रमिक आदि प्रभावोत्पादक अंग है।
4. राज्य सर्वोच्च समुदाय
अरस्तू ने राज्य को सर्वोच्च एवं सर्वोत्तम संस्था माना है, विभिन्न प्रकार के समुदाय मनुष्य की भिन्न-भिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। उदाहरणतः मनोरंजक संस्थायें मनुष्य की काम वासना की सन्तुष्टि करती है। आर्थिक संस्थायें उसके उदर की पूर्ति करती हैं। विभिन्न सामाजिक संस्थायें उसके विभिन्न कार्यों को पूर्ण करती हैं, परन्तु राज्य सबसे बड़ी संस्था है क्योंकि वह अरस्तू के अनुसार (नगर राज्य) सामाजिक विकास का यह रूप हैं जो मनुष्य को बौद्धिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। इसके विकास में शेष संस्थाओं का विकास निहित है।
5. राज्य अन्तिम एवं पूर्ण संस्था
अरस्तू ने राज्य को मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य माना है। परिवार, ग्राम के पश्चात् राज्य पर लक्ष्य की प्राप्ति होती है। इसके अनुसार नगर राज्य के बाद राज्य का कोई अन्य रूप नहीं रहता।
6. राज्य आत्म निर्भर
अरस्तू के अनुसार राज्य एक आत्म निर्भर इकाई है। आत्म विभिन्न से तात्पर्य है ‘अपनी आवश्यकताओं को स्वयं ही पूर्ण कर लेना तथा कोई कमी न होना।’ राज्य में मनुष्य केवल अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति ही नहीं करता बल्कि जीवन बिताता है। वहाँ इसका शारीरिक, बौद्धिक एवं मानसिक विकास होता है। राज्य में मनुष्य सुखी एवं सम्मानजनक जीवन व्यतीत करता है। जब अरस्तू नगर राज्य को आत्म निर्भर कहता है तब उसका अभिप्राय यह होता हैं। कि नगर राज्य उन समस्त स्थितियों तथा वातावरणों की पूर्ति करता है जो व्यक्ति को नैतिक विकास के लिए आवश्यक है। एक स्थान पर अरस्तू ने कहा है कि, ‘राज्य की उत्पत्ति जीवन की आवश्यकता मात्र के कारण हुई, किन्तु उसकी सत्ता अच्छे जीवन की सम्प्राप्ति के लिये बनी हुई है।’
7. राज्य में एकत्व तथा बहुत्व
अरस्तू के अनुसार राज्य में शरीर के अवयवों की भाँति एकता होनी चाहिए। अरस्तू ने एकता के साथ में बहुत्व को भी आवश्यक माना है। भिन्नता का अन्त करने से भी एकता का रूप नहीं रहेगा। जिस प्रकार कोई चित्र विभिन्न अंगों से मिलकर बनता है, जिस प्रकार से किसी संगीत की रचना विभिन्न राग व ताल के विविध मेल से होती है, उसी प्रकार से राज्य की एकता उसके विभिन्न अंगों के उचित संगठन पर निर्भर है। उसने एक अन्य उदाहरण दिया है कि जिस प्रकार पैर में काँटा चुभने पर सम्पूर्ण शरीर को उसकी अनुभूति होती है, उसी प्रकार की एकता की अनुभूति सम्पूर्ण राज्य तथा उसके नागरिकों में होनी चाहिये।
8. राज्य तथा व्यक्ति
उसके अनुसार भी राज्य व्यक्ति का विराट रूप है। राज्य के गुण वास्तव में मनुष्य के ही गुण हैं।
9. राज्य का उद्देश्य एवं कार्य
एक व्यक्ति के समान राज्य को भी साहस, आत्म नियन्त्रण तथा न्याय के गुण प्रदर्शित करने होते हैं। अरस्तू के अनुसार राज्य का उद्देश्य जैसा कि के ऊपर बताया जा सकता है, ‘सर्वोत्तम जीवन’ है। सर्वोत्तम जीवन से तात्पर्य नैतिक जीवन से है।
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