राजनीति विज्ञान / Political Science

मध्ययुगीन राजनीतिक चिन्तन की विशेषताएँ | Madhyayugin Raajnitik Chintan Ki Visheshata

मध्ययुगीन राजनीतिक चिन्तन की विशेषताएँ
मध्ययुगीन राजनीतिक चिन्तन की विशेषताएँ

मध्ययुगीन राजनीतिक चिन्तन की विशेषताएँ

मध्ययुग के राजनीतिक विचारों या चिन्तन की प्रमुख विशेषतायें निम्नलिखित हैं-

1. सार्वभौमता अथवा विश्व व्यापक समाज

मध्ययुग के विचारकों, दार्शनिकों के मतानुसार समस्त जगत एक इकाई है। ईश्वर एक है। ईश्वर सर्वोत्कृष्ट है। ईश्वर संसार का मूल स्रोत है, वह सबसे ऊपर है। इसी विचार की आधारशिला पर ईसाई समाज में एकता स्थापित करने की चेष्टा की गई। उस समय पूर्व ईसाई जगत एक ईसाई राज्य माना जाता था, इस युग में राज्य नागरिकता और चर्च की नागरिकता काफी पृथक-पृथक मानी जाती थी। वर्तमान समय में चर्च की नागरिकता में काफी अन्तर होता है। उस युग में चर्च सर्वोपरि था अतएव व्यक्ति चर्च की सदस्यता से पृथक हो जाने पर कानूनी और राजनीतिक अधिकार से वंचित हो जाता था। उस समय चर्च की सदस्यता के आधार पर वह सब प्रकार की सुख सुविधायें प्राप्त कर सकता था।

2. चर्च की सर्वोपरिता

मध्ययुग में चर्च ने इस बात प विशेष जोर दिया कि रोम का पोप ईसा और पीटर का उत्तराधिकारी होने न सिर्फ धार्मिक प्रकों में सर्वोच्च शक्तिशाली है वरन् राजनीतिक सांसारिक क्षेत्र में शासकों को दण्डित तथा पद हटाने का भी अधिकार रखता है। इस तरह मध्य युग में राज सत्ता चर्च में केन्द्रित हो गई थी तथा इसे धर्म तन्त्रात्मक राज्य भी कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। चर्च का स्थान दानिकों ने उस समय राज्य शक्ति से उच्च बताया जिसके दो आधार थे – प्रथम दो तलवारों का सेद्धान्त और दूसरा कान्सडेनटाइन का दान पत्र। पहले सिद्धान्त के अनुसार प्रभु ईसा के शान्ति दूत पीटर ने पोप को दो तलवारें प्रदान की। दो तलवारों में से एक तलवार आध्यात्मिक शक्ति ञ थी तथा दूसरी तलवार राजसत्ता की राजाओं को दी गई थी। राजाओं को दूसरी तलवार लौकिक कल्याण हेतु दी गई थी इस तरह चर्च ने राजनैतिक और धार्मिक दोनों क्षेत्र में अपना अधिकार जमा लिया।

3. राजतन्त्रात्मक सरकार

मध्ययुग के दार्शनिकों के विचारों, ग्रन्थों और दर्शन का गम्भीर अध्ययन करने पर पता चलता है कि इस युग के दार्शनिकों ने एकता की भावना पर विशेष ध्यान और महत्व दिया है। एकता की भावना से वशीभूत होकर दार्शनिकों ने उस युग में राजतन्त्र प्रणाली को ही श्रेष्ठ समझा है। गीर्के ने एक स्थान पर लिखा है कि, “मध्ययुगीन विचारक यह मानते थे कि सामाजिक संगठन का मूल तत्व एकता है और यह शासन करने वाले अंग में होनी चाहिये और यह उद्देश्य तभी अच्छी तरह पूरा हो सकता है, जब शासक अंग स्वयंमेव एक इकाई तथा परिणामतः एक व्यक्ति हो।” इसके साथ ही दार्शनिकों का मत था कि राजा ईश्वर का अंश है, प्रतिनिधि है अतएव उसका लौकिक जीवन में तथा राजनैतिक जीवन में सर्वोच्च स्थान है। वह एकता के सूत्र में बाँधने वाला है। अतएव राजतन्त्रात्मक सरकार ही सर्वश्रेष्ठ है।

4. प्रतिनिधि शासन प्रणाली का सिद्धान्त

मध्य युग के दार्शनिक और विचारक लोक सत्ता की कल्पना के साथ ही साथ तिनिधि शासन प्रणाली के मूल तत्वों से भली-भाँति परिचित थे। उस समय समाज में धर्म का काफी बोलबाला था। धर्म के क्षेत्र के साथ ही साथ पोप की सत्ता सर्वोच्च मानी गई थी। पोप का निर्वाचन समस्त चर्च के पादरियों द्वारा किया जाता था आवश्यकतानुसार पादरी, पोप को उसके पद से पदच्युत भी कर सकते थे। पोप के विरुद्ध समस्त पादरी पोप के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव रखकर भर्त्सना के साथ उसे अपदस्थ कर सकते थे। धार्मिक मामलों में पादरियों की संयुक्त परिषद् सर्वेसर्वा थी। इतना ही नहीं सम्राट का निर्वाचन भी जनसाधारण के प्रतिनिधि के समान होता था। इस तरह हम देखते हैं कि उस समय प्रतिनिधि शासन प्रणाली की झलक दिखाई पड़ती है।

5. सामूहिक अथवा सामुदायिक जीवन

मध्ययुग में वर्तमान समय के अनुसार व्यक्तिगत अधिकार नहीं थे। उस समय व्यक्ति की स्थिति अधिकारों के क्षेत्र में अत्यन्त दुर्बल और कमजोर थी। अतएव व्यक्ति की स्थिति अधिकारों का उपयोग करने हेतु अथवा प्राप्त करने हेतु समाज का सदस्य बनना पड़ता था। उस समय व्यक्ति कई समूहों का सदस्य बन जाया करता था जैसे आर्थिक, राजनैतिक एवं सामाजिक

6. निगम विषयक सिद्धान्त

इस सिद्धान्त के अन्तर्गत मध्ययुग में कुछ विशिष्ट संस्थाओं को विशेष महत्व प्रदान किया गया। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए दार्शनिकों का कहना था कि जिन संस्थाओं का उद्देश्य व लक्ष्य आध्यात्मिक तथा लौकिक (सांसारिक) जीवन का विकास करना है उन्हें अपना कार्य सुचारू रूप से चलाने के लिये सत्ता सम्पन्न कर दिया जाना चाहिए ताकि उनके कार्य क्षेत्र में किसी बाहरी शक्ति को हस्तक्षेप करने का मौका न मिले। इस प्रकार की संस्थाओं उस समय में निगम के रूप में ईसाई संघ या चर्च की परिषद् विश्वविद्यालय, स्वतन्त्र नगर और कम्यून थे।

7. लोकशक्ति अथवा लोकसत्ता की कल्पना

मध्ययुग के विचारकों ने राजा के दैवी अधिकारों का समर्थन किया है। इस तरह वह राजतन्त्र के समर्थक भी माने जाते हैं। इतना होने पर भी इस युग के विचारकों ने राजा की शक्ति का स्रोत समाज बताया है। राजा की शक्ति का स्रोत समाज है अतएव राजा का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह सामाजिक मर्यादाओं, परम्पराओं का विशेष ध्यान रखे। ईसाई विचारकों का यह मत था कि सरकार का मनुष्य के पतन और पाप करने के कारण हुआ है। इस तरह राज्य का जन्म दैवी है किन्तु उसका विधान मनुष्य द्वारा बनाया गया है। मार्सेलियो का मत था कि, “प्रभुसत्ता जनता के हाथों में निहित है” अतः शासक को समाज द्वारा सदैव निर्देशित होना चाहिये।”

8. लोकप्रिय प्रभुसत्ता

मध्ययुग में यह माना जाता था कि जनता की इच्छा ही राजनीतिक सत्ता का मूल स्रोत एवं आधारशिला है। सम्प्रभुता जनता में ही है। मध्ययुग में राजा की शक्ति का स्रोत भी जनता बताया गया है। अतएव जनता कानून के ऊपर है। इस सिद्धान्त के प्रबल समर्थक मार्सेलियो तथा निकोलस थे। पहले का यह मत था कि कानून बनाने वाला प्रभुशक्ति सम्पन्न होता है और कानून बनाने का अधिकार जनता को है। निकोलस का यह कहना था कि जब समूची जनता स्वेच्छा पूर्वक अपने अधिकार शासक को सौंपती है, तभी सरकार का निर्माण होता है। कानून निर्माण की शक्ति सदैव जनता में रहती है और शासक इन कानूनों से बंधा हुआ होता है। वर्तमान युग में प्रभुसत्ता के विचारों के विकास में मध्ययुग के राजनीतिक चिन्तन का पर्याप्त प्रभाव है।

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