मेरे प्रिय साहित्यकार मुंशी प्रेमचन्द
मेरा प्रिय साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद- मुंशी प्रेमचन्द की दृष्टि में सब समान थे। वे दीन-दुखियों के पक्षधर, कृषकों के मित्र, अन्याय के विरोधी, शोषण के शत्रु और साहित्य के पुजारी थे। प्रेमचन्द का जन्म वाराणसी के निकट लमही गाँव में 31 जुलाई, 1880 ई. को हुआ था। निरन्तर साहित्य-सेवा करते हुए भारत की मुक्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हुए उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द भारत के स्वाधीन होने से दस-ग्यारह वर्ष पहले 8 अक्टूबर, 1936 ई. को हमसे सदा के लिए विदा हो गए।
प्रेमचन्द के पुत्र श्री अमृतराय के शब्दों में— “क्या तो उनका हुलिया था। घुटनों से जरा ही नीचे तक पहुँचने वाली मिल की धोती, उसके ऊपर गाढ़े का कुर्ता और पैर में बन्ददार जूता; यानि कुल मिलाकर आप उसे देहकान ही कहते, गँवइया भुच्च, जो अभी गाँव से चला आ रहा है, जिसे कपड़ा पहनने की भी तमीज नहीं। यह भी नहीं मालूम कि धोती-कुर्ते पर चप्पल पहनी जाती है या पम्प। आप शायद उन्हें प्रेमचन्द कहकर पहचानने से ही इनकार कर देते। ……..और अब भी मुझे उनके दोनों पैरों की कानी उँगली अच्छी तरह याद है, जो जूते को चीरकर बाहर निकली रहती थी। सादगी इससे आगे नहीं जा सकती।”
कथा-साहित्य में आगमन
हिन्दी कथा-साहित्य में प्रेमचन्द के आगमन से एक नये युग का सूत्रपात हुआ। उन्होंने हिन्दी कथा-साहित्य को नया आयाम दिया और उसे अनन्त विस्तारमय क्षितिजों का संस्पर्श कराया।
विषय की विविधता
प्रेमचन्द के कथा-साहित्य में विषय की विविधता है। वे कहानी को मानव-जीवन का चित्रण मानते हैं। मानव-जीवन विविधतापूर्ण है, अतः उनकी कहानियों और उपन्यासों में जीवन के विविध मार्मिक पक्षों का उद्घाटन हुआ है। उनमें कहीं पर जीवन का सामाजिक पक्ष उभरा है, कहीं आर्थिक, कहीं नैतिक तो कहीं मनोवैज्ञानिक पक्ष दिखाई देता है।
यथार्थ का चित्रण
प्रेमचन्द शिव के उपासक थे। उनकी रचनाओं में यथार्थ जीवन का चित्रण हुआ है; किन्तु जीवन के आदर्श रूप की ओर मुड़ती हुई ये रचनाएँ हमारे मन पर मंगलमय प्रभाव छोड़ती हैं। इस प्रकार उनकी रचनाएँ यथार्थ की पृष्ठभूमि पर प्रतिष्ठित होते हुए भी आदर्श की ओर उन्मुख हैं। यह आदर्शोन्मुख यथार्थवाद उनकी रचनाओं की अपनी विशेषता कही जा सकती है।
शाश्वत जीवन-मूल्य
प्रेमचन्द शाश्वत जीवन-मूल्यों के लेखक थे। उनकी धारदार दृष्टि ने जीवन की वास्तविकता को देखा और परखा था। उन्होंने पराधीनता की कठोरता को देखा और भोगा था। उनका साहित्य इन परिस्थितियों और अनुभवों का सच्चा दस्तावेज है। जिन जीवन-मूल्यों को प्रेमचन्द ने अपने साहित्य में उद्घाटित किया है, वे आज भी हमारे समाज में पूर्ण रूप से मूल्यवान हैं।
देश की संस्कृति पर आधारित दृष्टिकोण
प्रेमचन्द की सम्पूर्ण रचनाएँ भारतीयता से ओत-प्रोत हैं। उनके साहित्य में स्वतन्त्रतापूर्व भारतीय परिवेश की जीती-जागती झाँकी प्रस्तुत हुई है। उसमें सामाजिक जीवन के विविध रूप व व्यापक दृश्य आज भी ज्यों-के-त्यों बोलते-से दिखाई देते हैं। गाँधीजी ने देश की स्वाधीनता के लिए जिस विचार क्रान्ति की वकालत की थी, उसे प्रेमचन्द ने अपने साहित्य द्वारा विकसित किया। इस दृष्टि से प्रेमचन्द क्रान्तिद्रष्टा साहित्यकार कहे जा सकते हैं। वस्तुतः प्रेमचन्द हमारे युग के साहित्य- सुधाकर थे। उनकी प्रतिभा का पूर्ण आकलन कर पाना लगभग असम्भव है। उनकी महानता ऐसी है कि वे समय के प्रवाह के साथ उत्तरोत्तर अग्रसर होने पर और अधिक जगमगाएँगे। उनके द्वारा रचित कृतियाँ मात्र हिन्दी साहित्य की ही नहीं, राष्ट्र की भी गौरव प्रतीक हैं।
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