प्लेटो के न्याय सम्बन्धी अवधारणा
प्लेटो को ‘रिपब्लिक’ नामक ग्रन्थ राजनीतिशास्त्र के इतिहास में आदर्शवाद पर लिखा गया सर्वप्रथम ग्रन्थ है। प्लेटो को प्रथम आदर्शवादी राज्य कहा गया है। उसका राज्य स्वप्नलोकीय या कल्पना पर आधारित था। प्लेटो के आदर्श राज्य के चार स्तम्भ हैं–न्याय, शिक्षा, साम्यवाद और दार्शनिक शासक। इन चारों में प्लेटो ने न्याय पर बहुत अधिक बल दिया है। यह इस बात से ही स्पष्ट है कि प्लेटो रिपब्लिक को न्याय पर लिखी हुई ही मानता है। प्लेटो के रिपब्लिक पुस्तक का दूसरा शीर्षक है-“Concerning Justice” अर्थात् “न्याय सम्बन्धी”।
न्याय का अर्थ
जब हम अपनी बातचीत में अथवा सामान्य जीवन में ‘न्याय’ शब्द का प्रयोग करते हैं तो एक अर्थ निकलता है कि न्याय वह जो अदालत में मिले और जिसका सम्बन्ध ‘कानून’, तो शाब्दिक अर्थ में कानून और अदालत से सम्बन्धित होता है।
न्याय ही धर्म
किन्तु प्लेटो ‘न्याय’ का अर्थ इतना छोटा और संकीर्ण रूप में नहीं लेता। उसके न्याय का सम्बन्ध नैतिकता की अच्छाई से है। प्लेटो ‘न्याय’ शब्द को धर्म की जगह प्रयोग करता है।
प्लेटो का न्याय सिद्धान्त
प्लेटो ने यह महसूस किया कि उपरोक्त सभी सिद्धान्त राज्य की अराजकता और अव्यवस्था को दूर करने में असमर्थ हैं। प्लेटो के अनुसार न्याय को बाह्य या कृत्रिम वस्तु समझना जैसा कि उपरोक्त सिद्धान्तों में परिलक्षित होता है, एक बड़ी भूल है क्योंकि न्याय एक आन्तरिक वस्तु है। न्याय आत्मा का एक अविभाज्य अंग है, न केवल मनुष्य का बल्कि राजा का भी। इस प्रकार न्याय राज्य का केवल एक गुण ही नहीं बल्कि उसकी आत्मा है।
प्रत्येक राज्य में प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यतानुसार अपना कार्य अपनी जगह पर सुचारु रूप से करे और दूसरे कार्य में आवश्यक रूप से हस्तक्षेप न करें यही तो न्याय है।
अपने न्याय के सिद्धान्त को प्रतिष्ठित करने के लिये प्लेटो ने पहले मनुष्य की प्रकृतियों का अध्ययन किया। उसके अनुसार जब मनुष्य को प्रकृति की जानकारी प्राप्त हो जायेगी तब प्रवृत्ति के अनुसार उसे कार्य भी दिया जा सकेगा। इस प्रकार अपनी प्रवृत्ति के अनुसार जब मनुष्य कार्य करेगा तब कार्य व्यवस्थित रूप से संचालित हो सकेंगे।
प्लेटो के अनुसार मनुष्य की प्रवृत्तियाँ होती हैं—1. लालसा, 2. साहस, 3. बुद्धि। जिस व्यक्ति में जो प्रवृत्ति प्रधान होती है वह व्यक्ति मुख्यतः उसी प्रवृत्ति वाला होता है और दूसरी प्रवृत्तियाँ उसमें गौण रहती हैं। इस प्रकार एक ही प्रवृत्ति वाले व्यक्ति मिल कर राज्य में अपना अलग वर्ग बनाते हैं। इसलिए इन्हीं मानवीय प्रवृत्तियों के अनुसार ही राज्य में भी लोगों को क्रमशः तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है।
1. उत्पादक, 2. सैनिक, 3. शासक।
1. उत्पादक- यह राज्य का निम्न वर्ग है। इस वर्ग की प्रवृत्ति लालसा है।
इसके अतिरिक्त जो दो वर्ग हैं उन्हें सम्मिलित रूप में संरक्षक (Guardian) वर्ग की संज्ञा दी जाती है। किन्तु उनका अलग-अलग वर्ग होने के नाते अलग-अलग महत्त्व हैं।
2. सैनिक- यह राज्य का द्वितीय वर्ग है। इस वर्ग की प्रवृत्ति साहस है।
3. शासक-यह राज्य का उच्चतम वर्ग है। इसकी प्रवृत्ति बुद्धि और तर्क है।
इस प्रकार अपनी-अपनी प्रवृत्ति और योग्यतानुसार विभाजित अलग-अलग वर्गों का सदस्य होने के नाते प्रत्येक व्यक्ति अपने वर्गगत कार्यक्षेत्र में ही कार्य करते हुए सन्तुष्ट रहे तथा दूसरे वर्ग के कार्य में हस्तक्षेप न करें, यही न्याय है।
प्लेटो के न्याय सिद्धान्त की विशेषताएँ
1. आत्मा की आवाज-प्लेटो ने न्याय को बाह्य वस्तु न मानकर एवं आन्तरिक प्रवृत्ति माना है। न्याय किसी बाहरी शक्ति द्वारा नहीं लादा गया, न्याय आत्मा की आवाज होती है।
2. विशेष कार्य का सिद्धान्त- न्याय विशेष कार्य का सिद्धान्त है, इसके लिये मनुष्य की तीन प्रवृत्तियों क्षुधा, साहस व विवेक के आधार पर वह समाज को तीन भागों में बाँटता है, जिनके अनुसार सभी अपना-अपना कार्य करते हैं।
3. दार्शनिक शासक द्वारा न्याय की स्थापना- आदर्श राज्य के न्याय की स्थापना तभी सम्भव होगी जबकि वहाँ का शासक दार्शनिक है। योग्य शासक के लिए सैनिक एवं शासक वर्ग में सम्पत्ति एवं स्त्रियों के साम्यवाद की व्यवस्था हो ताकि निःस्वार्थ भाव से वे समाज की सेवा कर सके।
4. राज्य में व्यक्ति की उन्नति- राज्य के बाहर व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है। राज्य व्यक्ति का ही विस्तृत रूप है। अतः राज्य में ही व्यक्ति की उन्नति सम्भव है।
5. शिक्षा का महत्त्व – न्याय गुण की अभिव्यक्ति के लिए प्लेटो ने व्यवस्थित शिक्षा क्रम विस्तृत रखा है, शिक्षा के अभाव में आदर्श नागरिक एवं आदर्श राज्य की स्थापना एक स्वप्न मात्र होगा।
6. न्याय एकता का सिद्धान्त- प्लेटो के अनुसार न्याय एकता का सिद्धान्त है। उसने समाज को तीन वर्गों में विभक्त किया, परन्तु ये तीनों वर्ग भिन्नता के स्थान पर एकता के प्रतीक है। न्याय शक्तिशाली का स्वार्थ तथा कमजोर के लिये लाभकारी न होकर सभी व्यक्तियों में एकता व सामंजस्य स्थापित करता है।
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प्लेटो के न्याय सिद्धान्त की आलोचना
प्लेटो के उपरोक्त न्याय सिद्धान्त की आलोचना की गई है जो संक्षेप में निम्न प्रकार से है-
1. श्रम विभाजन निराधार-कुछ विचारकों के अनुसार प्लेटो द्वारा किया गया श्रम विभाजन अनुपयुक्त है। प्लेटो मनुष्य की प्रवृत्तियों के अनुसार उसे तीन वर्गों में बाँटता है। ये सभी ऐसे आन्तरिक तत्त्व हैं जिसका विभाजन नहीं हो सकता। व्यक्ति एक इकाई है। उसे तत्त्वों में अलग अलग नहीं कर सकते। अतः यह विभाजन गलत है।
2. अत्यधिक एकता—अरस्तू के अनुसार यह अत्यधिक एकता का सिद्धान्त है, जिसमें एकता एवं सामंजस्य लाने के लिए व्यक्तित्व का कोई महत्त्व नहीं रहता है।
3. एक राज्य में तीन राज्य- कुछ आलोचकों के अनुसार यह अत्यधिक अलग करने का सिद्धान्त है। इसके अनुसार समाज तीन वर्गों में बँट जाता है, अर्थात् एक राज्य में ‘तीन राज्य’ बन जाते हैं।
4. अधिकारों के प्रति उदासीनता-प्लेटो के न्याय सिद्धान्त में कर्तव्यों पर अधिक बल दिया गया है। अधिकारों पर बल नहीं दिया गया। न्याय की यह मान्यता सर्वसत्ताधारी राज्य के. विचारों को दृढ़ करती है।
5. सर्वांगीण विकास के प्रति उदासीनता- यह सिद्धान्त मनोविज्ञान के दृष्टिकोण से अनुपयुक्त है। प्लेटो समाज के तीन वर्ग तीन गुणों के आधार पर बनता है। परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि किसी व्यक्ति में एक ही गुण अधिक हो। किसी व्यक्ति में गुण की अधिकता हो सकती है या एक ही व्यक्ति साहसी, बुद्धिमान एवं वासना वाला भी हो सकता है। अतः प्लेटो के अनुसार निर्माण किये गये व्यक्ति का विकास एकांगी होगा, सर्वांगीण नहीं।
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