सामाजिक जीवन में प्रथा के महत्व को बताइये।
सामाजिक जीवन में प्रथा का महत्व – सामाजिक जीवन में प्रथा के महत्व को किसी भी रूप में अस्वीकार नहीं किया जा सकता। वास्तव में, आदिकालीन अथवा सरल समाजों में व्यक्तियों का जीवन अत्यधिक रूढ़िवादी होता है, साथ ही धर्म द्वारा अत्यधिक प्रभावित होता है। अतः वे प्रथा का उल्लंघन किसी भी रूप में नहीं कर पाते। इसके अतिरिक्त चूँकि प्रथा पीढ़ी-दर पीढ़ी हस्तानन्तरित होती रहती है अतः इनका उल्लंघन पूर्वजों का अपमान माना जाता है। निम्नलिखित विवेचना से प्रथा का यह महत्व और भी स्पष्ट हो जाएगा।
(1) प्रथाएं सीखने की प्रक्रिया में मदद करती हैं- जीवन में जिन क्रियाओं से व्यक्ति की सामाजिक समस्याओं का समाधान होता है, मनुष्य उन्हीं क्रियाओं को चुन लेता है और व्यर्थ व हानिप्रद क्रियाओं का त्याग कर देता है। इस प्रकार चुनी गई सफल क्रियाएं जब पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती रहती हैं तो वे प्रथा बन जाती है अर्थात् प्रथा में कई पीढ़ियों का सफल अनुभव तथा व्यवहार विधि का समावेश रहता है, जिससे सीखने की प्रक्रिया सरल हो जाती है। इस प्रकार प्रथाएँ मनुष्य के मानसिक परिश्रम में कमी करती हैं, क्योंकि पूर्वजों ने अपने अनुभव के आधार पर जो कुछ सीखा है, मनुष्य को उन्हीं क्रियाओं को नये सिरे से सीखना नहीं पड़ता। दूसरे शब्दों में नई पीढ़ियाँ प्रयत्न और भूल की महंगी विधि से किसी चीज को दोबारा सीखने के कष्ट से बच जाती हैं जिसे पुरानी पीढ़ियों पहले ही सीख चुकी है। इसको दूसरे रूप में इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि पुरानी पीढ़ी के व्यवहार की प्रथाओं के माध्यम से नई पीढ़ी के व्यवहार बन जाते हैं।
(2) प्रथाएँ अनेक सामाजिक परिस्थितियों से अनुकूलन में मदद करती हैं- पिछली पीढ़ियों के सफल अनुभवों से समृद्ध प्रथा अनेक समस्याओं का एक बना-बनाया ढाँचा हर व्यक्ति के सामने प्रस्तुत करती हैं। इसलिये प्रथा की सहायता से व्यक्ति कठिन परिस्थिति में भी अधिक सोच-विचार किये बिना ही समस्या का समाधान कर लेता है। यह सच है कि सभी मानवीय समस्याओं का विशेषकर आधुनिक जटिल सामाजिक समस्याओं का समाधान, प्रथाओं के आधार घर नहीं किया जा सकता। उसके लिये नवीन विधियों को विकसित करने में प्रथाओं का विशेष हाथ हो सकता है, क्योंकि इनमें कई पीढ़ियों का सफल अनुभव सम्मिलित रहता है। नए तरीकों को विकसित करने में इन पुराने अनुभवों के महत्व से कोई इनकार नहीं कर सकता।
(3) प्रथाएँ व्यक्तित्व निर्माण में सहायता करती हैं- व्यक्तित्व निर्माण में वास्तव में प्रथाओं का अत्यधिक महत्व होता है। मानव प्राणी का जन्म ही एक प्रथा से आरंभ होता है, इसके उपरांत प्रथाओं में ही वह पलता है, बड़ा होता है और प्रथाओं के अनुसार ही उसका मृत्यु संस्कार भी होता है। इस प्रकार जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त वह प्रथाओं से घिरा रहता है। उसका समाजीकरण होता है। इन प्रथाओं के संदर्भ में और इस प्रकार उसका व्यक्तित्व भी प्रथाओं से पर्याप्त रूप में प्रभावित होता है यदि यह कहा जाये कि प्रथाएँ व्यक्तित्व निर्माण का एक आवश्यक पहलू हैं तो अतिश्योक्ति न होगी, चूँकि प्रथाओं के आधार पर मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होता है अतः एक समाज के व्यक्तियों के व्यक्तित्व में थोड़ी बहुत एकरूपता के कारण सामाजिक संगठन पनपता है और सामाजिक संघर्ष की भावनाएं कम हो जाती हैं।
(4) प्रथाएं समाज के लिये कल्याणकारी होती हैं- प्रथाएँ व्यर्थ के अंधविश्वासों और कुसंस्कारों का केवल संग्रह मात्र नहीं है। वास्तव में इनकी कुछ अपनी उपयोगिताएं होती हैं। यह सच है कि प्रथाएं तर्कविहीन होती हैं अर्थात् प्रथाओं द्वारा संचालित क्रियाओं को तार्किक आधार पर नहीं समझा जा सकता, फिर भी इनका विकास किसी समाजिक हित को दृष्टि में रखकर ही किया जाता है। कम से कम इतना तो निश्चित रूप से ही कहा जा सकता है कि जिस समय किसी प्रथा का प्रादुर्भाव होता है, उस समय वह समाज के सभी व्यक्तियों के हितों की पूर्ति करती है। यह हो सकता है कि भविष्य की परिवर्तित अवस्थाओं के साथ अपनी रुढ़िवादी प्रकृति के कारण कुछ प्रथाएं अपना अनुकूलन करने में असफल रहें और इसलिये उनके द्वारा सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति न हो। ऐसी प्रथाएं बहुधा प्रगति में बाधक भी हो जाती हैं परन्तु कुछ अनुपयोगी प्रथाओं का चलन देखकर हमें इस भ्रम में नहीं पड़ना चाहिये कि प्रथाएं निरर्थक या अर्थहीन होती है।
(5) प्रथायें सामाजिक जीवन में एकरूपता उत्पन्न करती हैं- प्रथाएं विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों से संबंधित कुछ निश्चित व्यवहार प्रतिमानों (behavioural norms) को प्रस्तुत करती हैं और समाज के सदस्यों पर यह दबाव डालती हैं कि वे उनको व्यवहार में लाएँ। इसका परिणाम यह होता है कि समाज के लोग अनेक परिस्थितियों में एक सा व्यवहार करते हैं। इससे सामाजिक जीवन में एकरूपता पनपती है।
(6) प्रथाएँ सामाजिक संगठन का स्वरूप हैं- प्रथाएं सामाजिक संगठन को भी बढ़ावा देती हैं। उदाहरणतः विवाह प्रथा सामाजिक संगठन को सहायता प्रदान करती है। इस प्रथा को न मानने से व्यक्ति विशेष की सामाजिक निन्दा होती है।
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