विधि या कानून की परिभाषा
विधि या कानून, किसी नियम संहिता को कहते हैं। विधि प्रायः भली-भाँति लिखी हुये संसूचकों (इन्स्ट्रक्शन्स) के रूप में होती है। समाज को सम्यक ढंग से चलाने के लिये विधि अत्यन्त आवश्यक है। विधि मनुष्य के आचरण संबंधी वे सामान्य नियम होते हैं जो राज्य द्वारा स्वीकृत तथा लागू किये जाते हैं जिनका पालन अनिवार्य होता है। पालन न करने पर न्यायपालिका दण्ड देती है। कानूनी प्रणाली कई तरह के अधिकारों और जिम्मेदारियों को विस्तार से बताती है। विधि शब्द अपने आप में ही विधाता से जुड़ा हुआ शब्द लगता है। आध्यात्मिक जगत में विधि के विधान का आशय विधाता द्वारा बनाये हुये कानून से है। जीवन एवं मृत्यु विधाता के द्वारा बनाया हुआ कानून है या विधि का ही विधान कह सकते हैं। सामान्य रूप से, विधाता का कानून, प्रकृति का कानून जीव-जगत का कानून एवं समाज का कानून राज्य द्वारा निर्मित विधि से आज पूरी दुनिया प्रभावित हो रही है। राजनीति आज समाज का अनिवार्य अंग हो हो गया है। समाज का प्रत्येक जीव कानूनों द्वारा संचालित है।
आज समाज में भी विधि के शासन के नाम पर दुनिया भर में सरकारें नागरिकों के लिये विधि का निर्माण करती हैं। विधि का उद्देश्य समाज के आचरण को नियमित करना है। अधिकार एवं दायित्वों के लिये स्पष्ट व्याख्या करना भी है साथ ही समाज में हो रहे अनैतिक कार्य या लोकनीति के विरूद्ध होने वाले कार्यों को अपराध घोषित करके अपराधियों में भय पैदा करना भी अपराध विधि का उद्देश्य है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1945 से लेकर आज तक अपने चार्टर के माध्यम से या अपने विभिन्न अनुसंगिक संगठनों के माध्यम से दुनिया के राज्यों को व नागरिकों को यह बताने का प्रयास किया कि बिना शांति के समाज का विकास संभव नहीं है, परन्तु शांति के लिये सह अस्तित्व एवं न्यायपूर्ण दृष्टिकोण ही नहीं आचरण को जिंदा करना भी जरूरी है। न्यायपूर्ण समाज में ही शांति सद्भाव, मैत्री, सह-अस्तित्व कायम हो पाता है।
कानून या विधि का मतलब है मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित और संचालित करने वाले नियमों, पाबंदियों और हकों की संहिता, लेकिन यह भूमिका तो नैतिक, धार्मिक और अन्य सामाजिक संहिताओं की भी होती है। पहली बात तो यह है कि कानन सरकार द्वारा बनाया जाता है लेकिन समाज में उसे सभी के ऊपर समान रूप से लागू किया जाता है। दूसरे राज्य की इच्छा’ का रूप लेकर वह अन्य सभी सामाजिक नियमों और मानकों पर प्राथमिकता प्राप्त कर लेता है। तीसरे कानून अनिवार्य होता है अर्थात् नागरिकों को उसके पालन करने के की स्वतंत्रता नहीं होती। पालन न करने वाले के लिये कानून में दण्ड की व्यवस्था होती है लेकिन कानून केवल दण्ड ही नहीं देता। वह व्यक्तियों या पक्षों के बीच अनुबंध करने, विवाह, चुनाव उत्तराधिकार, लाभों के वितरण और संस्थाओं को संचालित करने के नियम भी मुहैया कराता है। कानून, स्थापित सामाजिक नैतिकताओं की पुष्टि की भूमिका भी निभाता है। चौथे कानून की प्रकृति ‘सार्वजनिक’ होती है क्योंकि प्रकाशित और मान्यता प्राप्त नियमों की संहिता के रूप में उसकी रचना औपचारिक विधायी प्रक्रियाओं के जरिये की जाती है। अंत में कानून में अपने अनुपालन की एक नैतिक बाध्यता निहित है जिसके तहत वे लोग भी कानून का पालन करने के लिये मजबूर होते हैं जिन्हें वह अन्यायपूर्ण लगता है। राजनैतिक व्यवस्था चाहे लोकतांत्रिक हो या अधिनायकवादी, उसे कानून की किसी न किसी संहिता के आधार पर चलना पड़ता है लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में बदलते समय के साथ आप्रासंगिक हो गये या न्यायपूर्ण न समझे जाने वाले कानून को रद्द करने और उसकी जगह नया बेहतर कानून बनाने की माँग करने का अधिकार होता है। कानून की एक उल्लेखनीय भूमिका समाज को संगठित शैली में चलाने के लिये नागरिकों को शिक्षित करने की भी मानी जाती है। शुरूआत में राजनीतिशास्त्र के केंद्र में कानून का अध्ययन ही था। राजनीतिक दार्शनिक विधि के सार और संरचना के सवाल पर जबरदस्त बहसों में उलझे रहे हैं। कानून के विद्वानों को मानवशास्त्र, राजनीतिक अर्थशास्त्र, नैतिकशास्त्र और विधायी मूल्य प्रणाली का अध्ययन भी करना पड़ता है।
मार्क्स कानून को राजनीति और विचारधारा की भाँति उस सुपरस्ट्रक्चर या अधिरचना का हिस्सा मानते हैं। नारीवादियों ने भी कानून के शासन की अवधारणा की आलोचना की है कि वह लैंगिक निष्पक्षता पर आधारित नहीं है इसलिये न्यायपालिका और कानून के पेशे पर पुरुष का कब्जा रहता है। कानन का आधार नैतिक प्रणाली में मानने वालों का विश्वास ‘प्राकृतिक कानून’ के सिद्धांत में है। प्लेटो और अरस्तू की मान्यता थी कि कानून और नैतिकता में नजदीकी रिश्ता होता है, एक न्यायपूर्ण समाज वही हो सकता है जिसमें कानून नैतिक नियमों पर आधारित प्रजा की पुष्टि करते हों। मध्ययुगीन ईसाई विचारक थॉमस एक्विना भी मानते थे कि इस धरती पर उत्तम जीवन व्यतीत करने के लिये नेचुरल लॉ यानी ईश्वर प्रदत्त नैतिकताओं के मुताबिक कानून होने चाहिये। उन्नीसवीं सदी में बुद्धिवाद और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा बढ़ने के कारण प्राकृतिक कानून का सिद्धांत निष्प्रभावी होता चला गया। कानून को नैतिक धार्मिक और रहस्यवादी मान्यताओं से मुक्त करने की कोशिशें हुयी। कानून इसलिये कानून है कि उसका पालन करवाया जाता है और करना पड़ता है। विधिक प्रत्यक्षतावाद की कही अधिक व्यवहारिक और नफीस व्याख्या एच.एल.ए. हार्ट की रचना ‘द कंसेप्ट ऑफ लॉ’ 1961 में मिलती है। हार्ट कानून को नैतिक नियमों के दायरे से निकाल कर मानव समाज के संदर्भ में परिभाषित करते है। उनके मुताबिक कानून प्रथम और द्वितीयक नियमों का संयोग है। प्रथम श्रेणी के नियमों को कानून के सार की संज्ञा देते हुये हार्ट कहते हैं कि उनका संबंध सामाजिक व्यवहार के विनियमन से है। जैसे फौजदारी कानून । द्वितीय श्रेणी के नियम सरकारी संस्थाओं को हिदायत देते है कि कानून किस तरह बनाया जाये तथा उसका किस प्रकार कार्यान्वय किया जाये, किस तरह उसके आधार पर फैसले किये जायें और इन आधारों पर किस तरह उसकी वैधता स्थापित की जाए। हार्ट द्वारा प्रतिपादित विधिक प्रत्यक्षतावाद के सिद्धांत की आलोचना राजनीतिक दार्शनिक रोनाल्ड डंवर्किन ने की है। उनके अनुसार कानून केवल नियमों की संहिता ही नहीं होता और न ही आधुनिक विधि प्रणालियाँ कानून की वैधता स्थापित करने के लिये किसी एक समान तरीके का प्रावधान करती है।
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