गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं का अर्थ
गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं का अर्थ- भारत में गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं को गैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनियाँ (Non-Banking Finance Companies, NBFCS) कहा जाता है। इससे तात्पर्य उन कम्पनियों से है जिनकी स्थापना बैंकिंग नियमन अधिनियम (Banking Regulation, Act) तथा रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया एक्ट के अन्तर्गत बैंकिंग कम्पनी के रूप में नहीं की गई होती है, परन्तु ये वित्त के लेन-देन व वित्तीय क्रियाकलापों में संलग्न रहती हैं। भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम 1934 (1977 में यथा संशोधित) की धारा 45-1 एफ) के अनुसार गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाएँ मुख्य व्यवसाय वित्तीय कम्पनियों के समान है जैसा कि धारा 45-1 (सी) में परिभाषित है अथवा किसी योजना के अन्तर्गत जमा राशियाँ स्वीकार करना अथवा किसी भी प्रकार से उधार देना है।
भारत में गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थान के प्रकार (Types of Non-Banking Financial Institutions)
भारतवर्ष में निम्नलिखित प्रकार की गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाएँ पाई जाती हैं।
1. लीजिंग कम्पनियाँ (Leasing Companies)
लीज एक वित्त प्रबन्ध करने का साधन है जिसका विकास अमेरिका में 1960 व 1970 में हुआ, परन्तु भारत में इसका प्रादुर्भाव 1980 के मध्य में हुआ। लीज वित्तीयन (Lease Financing) के अन्तर्गत हमें एक निश्चित अवधि के लिए किसी सम्पत्ति के उपयोग करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है परन्तु सम्पत्ति का स्वामित्व सम्पत्ति के मालिक के पास ही रहता है। प्रत्येक लीज में दो पक्ष होते हैं— सम्पत्ति के उपयोग करने वाले को लेसी (Leasee) कहते हैं और सम्पत्ति के स्वामी को लेसर (Lessor) कहते हैं।
भारत में लीजिंग उद्योग अभी शैशवावस्था में है। अभी इसके सम्बन्ध में प्रामाणिक आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। सन् 1986 में 339 लीजिंग कम्पनियाँ कार्यरत थीं उनकी लीज सम्पत्तियाँ रु. 421 करोड़ की थीं।
भारत में छोटे तथा मध्यम आकार वाली कम्पनियों के लिए लीजिंग (Leasing) एक लोकप्रिय तरीका बनता जा रहा है जिससे प्लाण्ट एवं मशीनरी के लिए वित्त प्राप्त किया जा सकता है। इनके विकास के कारणों में वैयक्तिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तीव्र गति, | अनौपचारिकता और लोचशीलता के गुण हैं।
2. किराया खरीद साख (Hire Purchase Credit)
या तो विक्रेता द्वारा स्वयं उपलब्ध कराया जाता है अथवा किसी वित्तीय संस्थान द्वारा उपलब्ध कराया जाता है। जब विक्रेता इस प्रकार की साख उपलब्ध कराता है तो वह या तो अपनी पूँजी से देता है अथवा किसी वित्तीय संस्थान से ऋण लेकर उपलब्ध कराता है।
विभिन्न प्रकार के वित्तीय संस्थान जैसे बैंक का विक्रय। वित्त कम्पनियाँ भी किराया खरीद साख के व्यवसाय में लगी हैं। जो उपभोक्ता द्वारा वस्तु खरीदे जाने पर उनकी किस्तों का भुगतान करती हैं और उसके उपलक्ष्य में ब्याज लेती हैं। भारत में इस प्रकार के ऋण टिकाऊ वस्तुओं, कार, स्कूटर, मोटर साइकिल, टी.वी., फ्रिज तथा मशीनरी आदि तक पढ़ाई आदि के लिए दिये जाते हैं। इस प्रकार किराया खरीद कम्पनियाँ छोटे यातायात संचालकों, किसानों व पेशेवर व्यक्तियों को किराया खरीद के आधार पर उपकरण व मशीन आदि खरीदने में सहायता करती हैं और जब तक ऋण पूरी तरह चुका नहीं दिया जाता, वस्तुएँ स्वयं जमानत का कार्य करती हैं।
रिजर्व बैंक ने किराया खरीद साख कम्पनियों को बहुत से निर्देशन (Guidelines) जारी किये हैं, ताकि उपभोक्ताओं के हितों का संरक्षण किया जा सके।
लीजिंग एवं किराया खरीद कम्पनियों के महत्त्व और बढ़ते हुए कार्यभार को स्वीकार करते हुए नरसिम्हम समिति ने सिफारिश की है कि :
(क) एक न्यूनतम पूँजी आवश्यकता निश्चित कर देनी चाहिए।
(ख) व्यापार करने के विवेकपूर्ण मानदण्ड और मार्गदर्शी सिद्धान्त निर्धारित कर देने चाहिए और
(ग) पर्यवेक्षण का आधार नियतकालिक तुलन-पत्र होने चाहिए जिनका एकीकृत पर्यवेक्षण प्राधिकार द्वारा परीक्षण होना चाहिए।
3. साहसी या जोखिम पूँजी कम्पनियाँ (Venture Capital Companies )
जोखिम पूँजी कम्पनियाँ भारतीय पूँजी बाजार में प्रवेश करने वाली नवीनतम संस्थाएँ हैं। इस प्रकार की पूँजी के लिए पर्याप्त बड़ा क्षेत्र उपलब्ध है। कारण यह है कि विगत वर्षों में टेक्नोक्रेट साहसियों (Technocrat Enterpreneur) के पास योग्यता तथा विशेषज्ञता है, किन्तु साहसिक पूँजी का अभाव है।
वित्तीय संस्थान आमतौर पर विनियोग वित्त प्रबन्ध में प्रवर्तक योगदान (Promoter contribution) की अधिक मात्रा पर बल देते हैं। जिस स्थिति में टेक्नोक्रेट उद्यमकर्ताओं को जोखिम पूँजी कम्पनियों के समर्थन की आवश्यकता पड़ती है, ताकि नये विचार और नई टेक्नोलॉजी आरम्भ करके अपनी परिस्थितियों के अनुकूल ढाली जा सके। इस कार्य में अत्यधिक जोखिम उठाना पड़ता है।
नरसिंहम् समिति ने अनुभव किया कि साहसिक पूँजी कम्पनियों की स्थापना के लिए जो मार्गदर्शन दिया जाता है, वह बहुत नियन्त्रात्मक और अवास्तविक है तथा इसके कारण इन कम्पनियों का विकास अवरुद्ध होता है। समिति ने सरकार से सिफारिश की है कि इन कम्पनियों की स्थापना के लिए मार्गनिर्देशों में संशोधन किया जाना चाहिए, ताकि उनकी वांछनीयता का क्षेत्र व्यापक हो सके और इनकी कार्य प्रणाली में लोचशीलता आ सके।
चूँकि जोखिम पूँजी वित्त-प्रबन्ध में जोखिम का अंश बहुत अधिक होता है, इसलिए नरसिम्हम समिति ने यह सिफारिश की है कि इन कम्पनियों पर पूँजी-लाभ कर (Capital Gains Tax) से कटौती करनी चाहिए और जोखिम पूँजी कम्पनियों के साथ वही व्यवहार किया जाना चाहिए जो पारस्परिक निधियों के साथ किया जाता है।
4. चिट निधियाँ (Chit Funds)
चिट फण्ड, जो कि कुरी (Kuri) कही जाती है, ऐसा वित्तीय अभिकरण है जो कि व्यक्तियों के समूह से नियमित रूप में आवधिक चन्दा वसूल करती हैं व उस फण्ड के प्रत्येक सदस्य को बराबर बाँट देती हैं। ये चिट निम्न प्रकार के होते
(क) साधारण चिट (Simple Chit) — इस पद्धति में, सदस्य एक निर्दिष्ट राशि नियमित रूप से निर्धारित समय के लिए प्रदान करते हैं व पर्ची डालकर जीतने वाले चिट होल्डर का नाम निकाल लिया जाता है। इस मामले में कोई संस्थापक या अगुवा नहीं होता।
(ख) इनामी चिट (Prize Chit) — यह ब्यवस्था एक लॉटरी की भाँति होती है। इसमें एक संस्थापक या अगुवा होता है जो कि सदस्यों की निर्दिष्ट संख्या में से आवश्यक राशि वसूल कर लेता है।
आजकल अनेक राज्यों में चिट निधियों पर सदस्यों के हितों की रक्षा के लिए अनेक कानून पास हुए हैं। बैंकिंग आयोग ने समस्त देश में चिट निधियों के नियमन के लिए एक-सा कानून पास करने का सुझाव दिया है। दूसरे, आयोग यह चाहता है कि भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा प्रस्तावित सावधानियों को देखते हुए व्यापारिक बैंकों को ही चिट फण्ड का व्यवसाय करना चाहिए।
(1) निवेश कम्पनी (Investment) प्रतिभूतियाँ प्राप्त करना तथा लाभ कमाने की दृष्टि से ऐसी प्रतिभूतियों की खरीद-बिक्री करना। ऋण कम्पनी (Loan Company LC) ऋण या अग्रिम या अपनी गतिविधि से भिन्न किसी अन्य गतिविधि के लिए वित्त प्रदान करना। इसमें उपस्कर पट्टेदारी/किस्ती खरीद/आवास-वित्त कम्पनियाँ शामिल नहीं हैं। या आवास वित्त कम्पनियाँ (Housing Finance Company (HFC) । मकान खरीदने या मंकान के निर्माण के लिए वित्त प्रदान करना जिसमें भूखण्ड प्राप्त करना या उसे विकसित करना भी शामिल है। राष्ट्रीय आवास बैंक ऐसी कम्पनियों का पर्यवेक्षण करता है।
वर्ष 2017-18 में भारतीय रिवर्ज बैंक ने 1500 कम्पनियों का अध्ययन कर कार्य के आधार पर उनका वर्गीकरण किया है। इसे निम्न सारणी द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है।
क्र.सं. | एन. बी. एफ. सी. का प्रकार | कम्पनियों की संख्या | प्रतिशत |
1. | शेयर ट्रेडिंग एवं इनवेस्ट होल्डिंग काम्पनियाँ | 390 | 33 |
2. | ऋण प्रदायी कम्पनियाँ | 260 | 22 |
3. | किराया क्रम फाइनेस कम्पनियाँ | 165 | 14 |
4. | लीजिंग फाइनेस कम्पनियाँ | 85 | 7 |
5. | विविधीकृत कम्पनियाँ | 72 | 6 |
6. | अन्य विविध कम्पनियाँ | 228 | 18 |
1200 | 100 |
उपर्युक्त सारणी के अंकों से स्पष्ट है कि गैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों में सबसे बड़ा शेयर ट्रेडिंग एवं इन्वेस्टमेण्ट कम्पनियों का 36.2% है उसके बाद क्रमशः ऋण प्रदायी कम्पनियाँ (21.4%) किराया क्रय फाइनेन्स कम्पनियाँ 11.2%, लीज फाइनेन्स 6.5% तथा विविधिकृत कम्पनियाँ (Diversified Companies) 5.8% का नम्बर आता है।
शेष 18.9% विविध फाइनेन्स कम्पनियाँ हैं जो किसी एक अथवा एक से अधिक व्यवसाय को विशेष रूप से फाइनेन्स करती हैं। सामान्यतया ये कम्पनियाँ घर, आभूषण, स्वर्ण, मशीनों आदि सम्पत्तियों को बन्धक के रूप में रखकर ऋण प्रदान करती हैं।
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