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भारत में सहकारी बैंकों के दोष अथवा दुर्बलताएँ बताइए तथा दोषों के निवारण हेतु सुझाव दीजिए।

भारत में सहकारी बैंकों के दोष अथवा दुर्बलताएँ एवं निवारण हेतु सुझाव
भारत में सहकारी बैंकों के दोष अथवा दुर्बलताएँ एवं निवारण हेतु सुझाव

भारत में सहकारी बैंकों के दोष अथवा दुर्बलताएँ

भारत में सहकारी बैंकों के दोष- भारत में सहकारी बैंकिंग आन्दोलन की मुख्य दुर्बलताएँ (दोष) और समस्याएँ निम्नलिखित हैं—

1. असन्तुलित विकास

देश के विभिन्न भागों में सहकारी बैंकिंग का विकास समान रूप से नहीं हो पाया है। देश के पूर्वी क्षेत्र को सहकारी साख का केवल 9 प्रतिशत प्राप्त होता है, जबकि इस क्षेत्र में देश की 27 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या निवास करती है।

2. सहकारी लाभों का असमान वितरण

प्रति हेक्टेयर फसली क्षेत्र पर मिलने वाली सहकारी साख गुजरात, हरियाणा, केरल, पंजाब और तमिलनाडु में अखिल भारतीय औसत से दुगुनी से भी अधिक है। प्रति सदस्य मिलने वाली सहकारी साख का अखिल भारतीय औसत 278 रुपये है, जबकि गुजरात में 769 रुपये, हरियाणा में 777 रुपये, पंजाब में 479 रुपये, उड़ीसा में 114 रुपये, उत्तर प्रदेश में 169 रुपये तथा पश्चिमी बंगाल में 178 रुपये है। यद्यपि साख आन्दोलन समूचे देश में फैल चुका है किन्तु इसकी सदस्यता 45 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों तक ही सीमित है। कुल सदस्य संख्या में ग्रामीण तथा खेतिहर मजदूरों का हिस्सा मात्र 10 प्रतिशत है। स्पष्टतः समाज में कमजोर वर्गों को सहकारी साख का लाभ नहीं मिल पाया है।

3. दुर्बल संरचना

लगभग 12 प्रतिशत साख समितियाँ ऐसी हैं, जिनका आकार बहुत छोटा है और जो निष्क्रिय बनी हुई हैं। केन्द्रीय सहकारी बैंकों में कार्यशील पूँजी की विस्तृत आवश्यकता को देखते हुए शेयर पूँजी की संरचना बहुत कमजोर है। लगभग 50 प्रतिशत केन्द्रीय सहकारी बैंक वित्त एवं प्रबन्ध की दृष्टि से बहुत दुर्बल हैं।

4. निहित स्वार्थी वर्गों का प्रभुत्व

अधिकांश साख समितियों पर साहूकारों, व्यापारियों, ठेकेदारों, अनुपस्थित भूस्वामियों आदि का प्रभुत्व बना हुआ है। निहित स्वार्थों की पूर्ति हेतु सम्पन्न सदस्य समिति में सदस्यों की भर्ती पर रोक लगा देते हैं, चुनावों में गड़बड़ी फैलाते हैं, मित्रों एवं सम्बन्धियों को वैतनिक कार्य सौंप देते हैं तथा समिति के साधनों का उपयोग निजी लाभ में करते हैं।

5. ऋणों का अनुत्पादक उपयोग

योजना आयोग के कार्यक्रम मूल्यांकन संगठन ‘ की रिपोर्ट के अनुसार, सहकारी बैंकों द्वारा प्रदत्त अधिकांश ऋणों का उपयोग सदस्यों ने अपना पैतृक ऋण चुकाने में या उपभोग कार्यों में किया है। सहकारी बैंकों ने ऋण राशि के उपयोग की। निगरानी की व्यवस्था नहीं की है।

6. निजी साधनों का अभाव

सहकारी बैंकों के पास शेयर पूँजी तथा जमाराशियों के रूप में निजी साधनों का अभाव पाया जाता है। प्राथमिक साख समितियों की बढ़ती हुई ऋण सम्बन्धी माँग को पूरा करने के लिए केन्द्रीय सहकारी बैंकों की राज्य सहकारी बैंकों पर निर्भरता बढ़ती जा रही है। राज्य सहकारी बैंक अपनी 50 से 90 प्रतिशत तक कार्यशील पूँजी रिजर्व बैंक से ऋणों तथा अग्रिमों के रूप में प्राप्त करते हैं।

7. बकाया ऋणों में वृद्धि

अवधि बीत जाने पर बकाया ऋणों (over dues) की समस्या सहकारी बँकिंग आन्दोलन के प्रत्येक स्तर पर पायी जाती है तथा निरन्तर बढ़ती ही जा रही है। बकाया ऋणों की समस्या का मुख्य कारण सहकारी बैंकों की दोषपूर्ण नीतियाँ एवं प्रबन्ध के साथ-साथ सदस्यों द्वारा जानबूझकर अदायगी रोकना भी है।

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सहकारी बैंकों के दोषों के निवारण हेतु सुझाव

भारत में सहकारी बैंकिंग आन्दोलन की ठोस प्रगति तथा इसके दोषों के निवारण हेतु निम्न सुझाव दिये जा सकते हैं-

1. क्षेत्रीय असन्तुलन का निवारण

सहकारी बैंकिंग के विकास में क्षेत्रीय असमानताएँ दूर करने का प्रयास होना चाहिए। यह आन्दोलन उन क्षेत्रों तथा वर्गों तक पहुँचाया जाना चाहिए, जहाँ और जिनको इसकी सर्वाधिक आवश्यकता है।

2. सहकारी साख को सहकारी विपणन से जोड़ना

सहकारी साख को सहकारी विपणन से सम्बद्ध किया जाना चाहिए, जिससे एक ओर प्राथमिक साख समितियों को अपने ऋणों का भुगतान समय पर मिल सके तथा दूसरी ओर विपणन समितियों का कार्य व्यापार बढ़े।

3. अल्पकालीन साख को दीर्घकालीन साख से जोड़ना

कृषि क्षेत्र के लिये अल्पकालीन और मध्यकालीन साख की व्यवस्था के साथ दीर्घकालीन साख की व्यवस्था का धीरे-धीरे एकीकरण किया जाना चाहिए। इस उद्देश्य से सहकारी बैंकों तथा भूमि विकास बैंकों की कार्य विधियों तथा ऋण नीतियों में एकरूपता लायी जानी चाहिए।

4. एकीकरण और पुनर्गठन

छोटे आकार की दुर्बल साख समितियों का पुनर्गठन द्वारा बड़े आकार की सक्षम इकाइयों में परिणित किया जाना चाहिए। केन्द्रीय सहकारी बैंकों को एकीकरण द्वारा सबल बनाया जाना चाहिए। रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के कृषि साख बोर्ड का सुझाव है कि प्राथमिक साख समितियों का एकीकरण या निस्तारण करने की बजाय ऐसी समितियों को छाँट लिया जाये जिन्हें बने रहने दिया जा सकता है अर्थात् वार्षिक लेन-देन आवश्यक धनराशि से कम नहीं है। ऐसी समितियों को सक्षम बनाने के लिये अधिक सहायता दी जानी चाहिए।

5. बहुध्येयी समितियों की स्थापना

प्राथमिक स्तर पर कृषि साख के साथ-साथ विकास हेतु अन्य साधनों की पूर्ति तथा तकनीकी मार्ग दर्शन के लिये बहुध्येयी समितियों की स्थापना की जानी चाहिए। बाद में चलकर इन्हें ‘कृषक सेवा समितियों का स्वरूप दिया जा सकता है।

6. कमजोर वर्गों को अधिक सहायता

ग्रामीण दस्तकारों, खेतिहर मजदूरों तथा ग्रामीण समाज के दूसरे वर्गों को अधिक सहकारी साख उपलब्ध करायी जानी चाहिए। इन वर्गों को उपभोग सम्बन्धी कार्यों के लिये भी साख सहायता मिलनी चाहिए।

7. जमाराशियाँ जुटाना

सहकारी बैंकों को चाहिए कि वे एक ओर कमजोर वर्गों को अधिक ऋण सहायता प्रदान करें तथा दूसरी ओर सम्पन्न वर्गों से जमाराशियों के रूप में अधिकाधिक साधन जुटाएँ।

8. बकाया ऋणों की समस्या का निवारण

सहकारी बैंकों के बकाया ऋणों की समस्या से सम्बन्धित एक अध्ययन दल के प्रतिवेदन (1974) के अनुसार कुछ परिस्थितियों में ऋणियों को स्थिरीकरण कोषों से विशेष सहायता दी जानी चाहिए, सहकारी बैंकों के प्रबन्ध में सुधार लाया जाना चाहिए तथा ऋणियों द्वारा जानबूझकर रोकी गयी अदायगियों की वसूली कठोरतापूर्वक की जानी चाहिए।

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