मुद्रा के प्रमुख कार्य (Functions of Money in Hindi)
मुद्रा के प्रमुख कार्य को निम्नलिखित तीन मुख्य भागों में विभाजित कर सकते हैं— (अ) प्राथमिकार्य (ब) सहायक कार्य (स) आकस्मिक कार्य ।
(I) प्राथमिक कार्य (Primary Function)
मुद्रा के प्राथमिक कार्य दो है—
1. विनिमय का माध्यम- विनिमय का अर्थ क्रय-विक्रय । क्रय-विक्रय का कार्य मुद्रा द्वारा ही सम्पादित होता है। हम बाजार से कोई वस्तु खरीदते हैं, तो बदले में हमें मुद्रा का भुगतान करना पड़ता है। उसी तरह किसी वस्तु को बेचने से उसके बदले में मुद्रा प्राप्त होती है। वस्तु की ही भाँति सेवा प्राप्त करने के बदले मुद्रा देना पड़ता है और सेवा के बदले मुद्रा प्राप्त होती है। उत्पादक से लेकर उपभोक्ता तक की विनिमय की कड़ी मुद्रा द्वारा ही सम्पादित होती है। उत्पादक थोक विक्रेता को मुद्रा के बदले सामान देता है। उसी प्रकार थोक व्यापारी फुटकर व्यापारी को और अन्ततः फुटकर व्यापारी उपभोक्ता को मुद्रा के बदले वस्तुएँ बेचता है। हर लेन-देन के पीछे मुद्रा होती है, क्योंकि मुद्रा को सर्वग्राह्यता प्राप्त होती है। हर व्यक्ति बिना किसी हिचकिचाहट के इसे स्वीकार कर लेता है। इस प्रकार हम अपने आधिक्य को मुद्रा के बदले बेचते हैं और उस मुद्रा से हम अपनी आवश्यकता की वस्तु आवश्यक समय पर प्राप्त कर लेते हैं।
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2. मूल्य का मापन- मुद्रा का दूसरा मुख्य कार्य है वस्तुओं, सेवाओं का मूल्य व्यक्त करना। जिस तरह सभी वस्तुओं की मात्रा व्यक्त करने के लिए एक मापदण्ड होता है, उदाहरण के लिए, कपड़े के लिए मीटर, तरल पदार्थों के लिए लीटर एवं अनाज आदि के लिए किलोग्राम, उसी प्रकार इन सभी वस्तुओं के मूल्य को आँकने के लिए मुद्रा ही एक मापदण्ड है। उदाहरण के लिये, दस रुपया प्रति किलोग्राम, पचास रुपया प्रति मीटर एवं बीस रुपया प्रति लीटर आदि। हम सभी वस्तुओं के मूल्यों को मापने के लिए मापदण्ड न रखें तो ऐसी व्यवस्था वस्तु विनिमय से भिन्न न होगी, क्योंकि हमें तुलनात्मक मूल्य का पता लगाना असम्भव-सा हो जायेगा।
(II) सहायक कार्य
मुद्रा के सहायक कार्य भी बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य हैं, पर उतने नहीं जितने कि प्राथमिक कार्य अतः इन कार्यों को सहायक कार्य कहते हैं। मुद्रा के सहायक अर्थ मुख्तया तीन हैं—
1. स्थगित भुगतानों का मानक- आज लगातार बढ़ते उद्योग और व्यापार के युग में वस्तुओं सेवाओं का क्रय-विक्रय नकद के साथ-साथ अधिक मात्रा में उधार पर भी होने लगा है। उधार की दशा में स्वाभाविक है कि क्रय-विक्रय के कुछ समय बाद ही भुगतान होगा। ऐसी परिस्थिति में समस्या यह आती है कि भविष्य में भुगतानों को किस रूप में दिया जाय। यदि एक व्यक्ति किसी से ऋण लेता है, तो भविष्य में उस ऋण को किस वस्तु में लौटाया जाय, यह भी एक समस्या आ सकती है। प्राचीन समय में तो जिस वस्तु को उधार लिया जाता था उसी वस्तु के रूप में ऋण लौटाना पड़ता था, परन्तु अब मुद्रा ने इस समस्या का हल कर दिया है। उधार का भुगतान मुद्रा में किया जा सकता है और उस मुद्रा से ऋणदाता अपनी इच्छा का सामान प्राप्त कर सकता है। स्थगित भुगतान केवल मुद्रा द्वारा ही सर्वोत्तम रूप में सम्पन्न किये जा सकते हैं, क्योंकि एक तो मुद्रा में सर्वग्राह्यता का गुण होता है, दूसरे, मुद्रा का मूल्य प्रत्यक्ष रूप से स्थिर रहता है। वस्तुओं/सेवाओं के मूल्य तो घटते-बढ़ते हैं, पर मुद्रा का मूल्य प्रत्यक्ष रूप से स्थिर रहता है। तीसरे, मुद्रा अधिक टिकाऊ होती है। अन्य वस्तुएँ शीघ्र नष्ट हो सकती हैं, पर मुद्रा अधिक दिन तक चलती है।
2. मूल्य का संचय- अपनी वर्तमान आय में से कुछ बचाकर भविष्य के लिए रखने के उद्देश्य से मुद्रा एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण साधन है। यदि हम अपनी आय का एक भाग भविष्य की आवश्यकताओं एवं अनिश्चितताओं को पूरा करने के उद्देश्य से वस्तु के रूप में रखें तो वे वस्तुएँ हमारी आवश्यकता के समय तक खराब हो सकती हैं। दूसरे, आवश्यक नहीं कि भविष्य में हम उसी वस्तु का प्रयोग करना चाहें। यदि हमें अन्य वस्तु की आवश्यकता पड़ी तो हमारी बचत बेकार हो जायेगी। अतः अपनी भविष्य की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए मुद्रा के रूप में ही बचत किया जा सकता है, क्योंकि मुद्रा से हम अपनी आवश्यकता की हर चीज हर समय खरीद सकते हैं।
मुद्रा के ऊपर बताये गये चार कार्य इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि अंग्रेजी की एक कविता के अनुसार मुद्रा के उपर्युक्त चार कार्य ही मुद्रा के कार्य माने जाते हैं।
“Money is a matter of functions four-a medium, a measure, a standard, a store.”
अर्थात्
“मुद्रा के कार्य हैं चार- माध्यम मापक, संचय, आधार।”
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3. क्रय शक्ति का हस्तांतरण- मुद्रा में क्रय-शक्ति निहित होने यानी मुद्रा से किसी में भी वस्तु का क्रय किये जा सकने के कारण मुद्रा को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाकर हम वहाँ अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकते हैं। अर्थात् अपनी आवश्यकता की वस्तुएँ सेवाएँ क्रय कर सकते हैं। इस गुण का लाभ उठाकर अगर कोई व्यक्ति एक स्थान से दूसरे स्थान पर बसना चाहे, तो अपनी सम्पत्ति, मकान आदि बेचकर मुद्रा प्राप्त कर सकता है और उसी मुद्रा से पुनः नये स्थान पर सम्पत्ति, घर आदि खरीद सकता है।
(III) आकस्मिक कार्य
आकस्मिक कार्य उन कार्यों को कहते हैं, जिनका होना निश्चित नहीं होता। ये कार्य हो भी सकते हैं और नहीं भी। वास्तव में, यह कार्य अर्थव्यवस्था की प्रकृति पर निर्भर होता है। यदि, अर्थव्यवस्था में इन कार्यों की आवश्यकता होती है, तो मुद्रा इनको करती है, अन्यथा नहीं। आकस्मिक कार्य मुख्यतया 7 प्रकार के होते हैं- (1) साख का आधार (2) पूँजी का निर्माण (3) राष्ट्रीय आय का वितरण (4) उत्पादन एवं कार्य क्षमता में वृद्धि (5) शोधन क्षमता का मूल्यांकन (6) इच्छा का वाहक (7) सीमान्त उपयोगिता का लाभ। इन कार्यों का अलग-अलग वर्णन संक्षेप में नीचे दिया जा रहा है
1. साखा का आधार- आज व्यापार एवं उद्योग के विशालतम पैमाने ने उधार को भी उतना ही आवश्यक बना दिया है जितना कि नगद, बल्कि हम यों कह सकते हैं कि आज नकद की तुलना में उधार लेन-देन अधिक होते हैं। साख का निर्माण बैंक किया करते हैं जो कि मुद्रा के आधार पर ही होता है। जितनी अधिक मुद्रा होगी, उतना ही अधिक साख का निर्माण हो सकेगा। इसकी प्रक्रिया का अध्ययन हम बाद में करेंगे। व्यक्तिगत साख भी मुद्रा पर ही आधारित है। जो जितनी ही अधिक मुद्रा का मालिक होगा, बाजार में उसकी उतनी ही अधिक साख होगी।
2. पूँजी का निर्माण- मुद्रा के माध्यम से व्यक्ति की छोटी-छोटी बचतें इकट्ठा होकर पूँजी का रूप धारण कर लेती हैं। अपनी बचत को लोग मुद्रा के रूप में स्वयं अपने पास रखते हैं और धीरे-धीरे यही बचत अधिक मात्रा में इकट्ठा होकर पूँजी का रूप धारण कर लेती है। बैंकों में विभिन्न लोगों द्वारा जमा की गयी विभिन्न रकमें इकट्ठा होकर पूँजी बन जाती है। यदि मुद्रा के स्थान पर वस्तुओं के रूप में बचत की जाय तो यह बचत धीरे-धीरे खराब होती रहेगी। दूसरे, जिस वस्तु के रूप में बचत की जायेगी, केवल उसी वस्तु के व्यापार के लिये ही पूँजी दी जा सकेगी।
3. राष्ट्रीय आय का वितरण- राष्ट्र में जो कुछ वस्तुओं/सेवाओं का उत्पादन एक वर्ष में होता है, उसे हम राष्ट्रीय आय के नाम से जानते हैं। इस उत्पादन में विभिन्न घटकों का योगदान होता है और उनके योगदान के अनुसार ही हम उनका भुगतान करते हैं। यानी, मजदूर को मजदूरी, पूँजीपति को ब्याज, भूमि मालिक को किराया आदि का भुगतान हम करते हैं। चूँकि राष्ट्रीय आय की गणना मुद्रा में की जाती है, इसलिए विभिन्न घटकों को देय राशि भी मुद्रा में अनुमानित कर उनका भुगतान किया जाता है।
4. उत्पादन एवं कार्यक्षमता में वृद्धि- मुद्रा के माध्यम से उत्पादन के विभिन्न घटकों का समुचित भुगतान हो जाता है और प्रत्येक घटक सन्तुष्ट रहता है। इससे घटकों का उत्पादन कार्यों में मन रहता है और उनकी कार्य क्षमताओं में वृद्धि होती है तथा उत्पादन भी बढ़ता है। यदि, घटकों को वस्तुओं के रूप में भुगतान किया जाय तो घटकों को अपनी आवश्यकता की अन्य वस्तुओं के लिए इधर-उधर भटकना पड़ेगा, जिससे उनकी कार्यक्षमता और उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
5. शोधन क्षमता का मूल्यांकन- कोई भी व्यक्ति अथवा संस्था अपने भुगतानों सामान्यतया मुद्रा के माध्यम से ही करती है। अगर संस्था के पास समुचित रकम है, तभी वह अपने भुगतानों को सम्पन्न कर सकती है अन्यथा नहीं। बैंकों और बीमा कंपनियों की दशा में मुद्रा का यह कार्य अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। यदि बैंक अपने ग्राहकों का तुरन्त भुगतान नहीं करता है, तो वह बैंक दिवालिया घोषित किया जा सकता है। इसी प्रकार भुगतान न करने पर बीमा कम्पनियों की साख खत्म हो सकती है।
6. इच्छा का वाहक- मुद्रा को निर्णय का वाहक भी कहा जाता है। वास्तव में मुद्रा – क्रय-शक्ति है। जिसके पास क्रय-शक्ति के रूप में मुद्रा संचित है वह अपनी आवश्यकतानुसार, मुद्रा द्वारा, मन पसन्द वस्तुएँ खरीद सकता है। धन का संचय निश्चित अथवा अनिश्चित उद्देश्यों के लिये किया जा सकता है। इस प्रकार अपनी इच्छानुसार हम मुद्रा को विभिन्न मदों पर व्यय कर सकते हैं।
7. सीमान्त उपयोगिता का लाभ- मुद्रा के प्रयोग से एक उपभोक्ता विभिन्न वस्तुओं के के प्रयोग से मिलने वाले लाभों (उपयोगिता) की तुलना कर सकता है और सर्वोत्तम उपयोगिता देने वाली वस्तु-सेवा का चयन कर सकता है। इस प्रकार उपभोक्ता उस बिन्दु को प्राप्त कर सकता है जहाँ उसे विभिन्न वस्तुओं से मिलने वाली सीमान्त उपयोगिता बराबर लगे। यह सब केवल मुद्रा मुद्रा के द्वारा ही सम्भव है।
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