मुद्रा का अर्थ एवं परिभाषा-Meaning and Definitions of money in Hindi
मुद्रा का अर्थ (Meaning of money)-अंग्रेजी भाषा में मुद्रा को मनी (money) कहा जाता है। अंग्रेजी भाषा का शब्द मनी (Money) लैटिन भाषा के शब्द मोनेटा (Moneta) से लिया गया है। मोनेटा रोम की देवी जूनो (Goddess Juno) का ही दूसरा नाम है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में इटली में इस देवी को स्वर्ग की देवी माना जाता था और इसके मन्दिर में ही सिक्कों के टंकन (ढलाई) का काम होता था। इसलिए देवी जूनों के मन्दिर में जो मुद्रा बनायी जाती थी, सका नाम भी मोनेटा रखा गया और इसी को बाद में ‘Money’ कहा गया। अतएव, मुद्रा कोई भी वस्तु हो सकती है जो कि सामन्य सम्पत्ति से विनिमय के माध्यम के रूप में स्वीकार की गयी हो या व्यपाक रूप से वस्तुओं और सेवाओं के भुगतान व ऋणों के निपटारे में प्रयुक्त की जाती है, परन्तु इसके लेन-देन में भुगतान करने वाले व्यक्ति की स्थिति व प्रतिष्ठाको से कोई सम्बन्ध नहीं होता। कोई भी इसे ले-दे सकता है। अतः मुद्रा सामान्य स्वीकृति प्राप्त वह वस्तु है जो विनिमय के माध्यम और मूल्य के मापक के रूप में प्रयुक्त होती है।
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मुद्रा की परिभाषाएँ
मुद्रा की परिभाषा को मुख्यतः दो भागों में बाँटा जा सकता है-
(i) प्रकृति के आधार पर दी गयी परिभाषाएँ (Definitions based on Nature of Money)- प्रकृति के आधर पर दी गयी परिभाषाओं को निम्नलिखित तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है।
(1) वर्णनात्मक अथवा कार्यात्मक परिभाषाएँ (Descriptive or Functional Definitions) –
इस वर्ग में वे परिभाषाएँ आती है जो मुद्रा के कार्यों का वर्णन करती हैं। इन्हें वर्णनात्मक या कार्यात्मक परिभाषाएँ कहा जाता है। इसमें मुख्य रूप से प्रो. हार्टले विदर्स, कौलबोर्न, टामस व प्रो. सिजविक आदि अर्थशास्त्रियों की परिभाषाएँ उल्लेखनीय हैं।
(i) कौलबोर्न के अनुसार, “मुद्रा वह है जो मूल्य मापक और भुगतान का साधन है।”
(ii) हार्टले विदर्स के अनुसार, “मुद्रा वह है जो मुद्रा का कार्य करे। “
(iii) प्रो. टामस के शब्दों में, “मुद्रा किसी आर्थिक लक्ष्य की प्राप्ति का साधन है अर्थात् जो दूसरों की वस्तुओं और सेवाओं को प्राप्त करने के लिए दी जाती है।”
दोष- उपर्युक्त परिभाषाएँ वास्तव में परिभाषाएँ न होकर केवल मुद्रा का वर्णन करती है, इसलिए इनको उपयुक्त नहीं कहा जा सकता है। हाँ, ये व्यावहारिक अवश्य है।
( 2 ) वैधानिक परिभाषाएँ (Legal Definitions)
मुद्रा के सम्बन्ध में दूसरा विचार यह है कि किसी भी देश में वही वस्तु मुद्रा पानी जा सकती है जिसे सरकार ने मुद्रा घोषित किया हो। इस मत के प्रतिपादक जर्मनी के प्रो. नैप तथा ब्रिटिश अर्थशास्त्री हॉट्रे हैं।
प्रो. नैप (Knapp) के अनुसार, “कोई भी वस्तु जो राज्य द्वारा मुद्रा घोषित कर दी जाती है, मुद्रा कहलाती है।”
दोष- प्रो. नैप द्वारा दी गई परिभाषा में निम्नलिखित दोष है:
(i) सर्वग्राह्यता का आधार जनता का विश्वास है- मुद्रा की सर्वग्राह्यता का वास्तविक आधार जनता का विश्वास है, राज्य का दाव नहीं क्योंकि वैधानिक मान्यता के होते हुए भी जब कभी किसी मुद्रा से जनता का विश्वास उठ जाता है तो वह मुद्रा का कार्य नहीं कर पाती।
(ii) स्वतन्त्रता व ऐच्छिकता का लोप- सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से भी यह परिभाषा दोषपूर्ण है क्योंकि विनिमय के सिद्धान्त के अनुसार विनिमय स्वतन्त्र (Free) और ऐच्छिक (Voluntary) होना चाहिए किन्तु यदि मुद्रा की स्वीकृति सरकार द्वारा अनिवार्य घोतित कर दी जाती है, तब इससे विनिमय कार्य स्वतन्त्र तथा ऐच्छिक नहीं रह जाता है।
( 3 ) सामान्य स्वीकृति पर आधारित परिभाषाएँ (Definitions based on common Acceptance)- इस वर्ग में उन सभी परिभाषाओं को रखा जाता है जो की सामान्य स्वीकृति पर बल देती है। इस वर्ग की प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित है;
(i) सेलिगमैन (Seligman) के अनुसार, “मुद्रा वह वस्तु है जिसे सव्रग्राह्यता प्राप्त हो”
(ii) क्राउथर के अनुसार, “मुद्रा वह वस्तु है जो विनिमय के माध्यम के रूप में सामान्यतः स्वीकार की जाती हो तथा उसी समय मूल्य संचय का कार्य भी करती हो ।
(iii) क्रीन्स के अनुसार, “मुद्रा वह है जिसको देकर ऋण तथा मूल्य सम्बन्धी भुगतानो को निबटा जाता है तथा जिसके रूप में सामान्य क्रय-शक्ति का संचय किया जाता है।’
(iv) केण्ट के अनुसार, “मुद्रा कोई भी वह वस्तु है जो विनिमय के माध्यम या मूल्य के मापक के रूप साधारणतः प्रयोग की जाती हो तथा सामान्य रूप से ही ग्रहण कर ली गयी हो”
विशेषताएँ (Characteristics) सामान्य स्वीकृति पर आधारित परिभाषाओं के विश्लेषण से मुद्रा की ‘निम्नलिखित तीन विशेषताओं का पता चलता है।
(i) मुद्रा में समान स्वीकृति होनी चाहिए। (ii) मुद्रा की स्वीकृति स्वतन्त्र तथा ऐच्छिक में होनी चाहिए। (iii) मुद्रा विनिमय का माध्यम और मूल्यमापन का कार्य साथ-साथ करना चाहिए।
दोष- इस वर्ग के अर्थशास्त्रियों के अनुसार बैकों, हुण्डियों तथा विनिमय-पत्रों को मुद्रा में सम्मिलित नहीं किया जा सकता क्योंकि ये विनिमय केक माध्यम के रूप में सामान्यतः स्वीकार नहीं किये जाते ।
( 4 ) केन्द्रीय बैंकिंग या रैडक्लिक दृष्टिकोण (Central Banking or Redeliff M Approach)
इस दृष्टिकोण के अनुसार, “मुद्रा से अभिप्राय विभिन्न साधनों द्वारा दी गयी साख से है।” इस दृष्टिकोण के अनुसार, मुद्रा के अन्तर्गत करेन्सी, मॉग जमा, समय जमा, गैर-बैंकिंग वित्तीय मध्यस्थों तथा असंगठित संगठनों द्वारा जारी की गयी कुल साख को शामिल किया जाता हैः अर्थात् :
मुद्रा = करेन्सी + माँग जमा + सावधि जमा + गैर-बैंकिंग वित्तीय मध्यस्थों के ऋण पत्र, बचत जमा, शेयर तथा बॉण्ड्स + असंगठित क्षेत्रों की साख ।
Money= Currency + Demand Deposit + Time Deposit +Non-banking Financial Intermediaries- Debentures, Saving Bank Deposits, Shares, Bonds + Credit from Unorgaanized Sectors.
इस दृष्टिकोण के अनुसार मुद्रा तथा अन्य वित्तीय साधनों में समानता पायी जाती है, इसलिए कुल साख को मुद्रा में शामिल किया जाता है।
यह परिभाषा केन्द्रीय बैंक अधिकरियों में अधिक लोकप्रिय सिद्ध हुई है।
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