राज्य स्तर पर शैक्षिक प्रशासन को लोकतान्त्रिक बनाने के उपाय और आवश्यकताओं का उल्लेख कीजिए।
राज्य स्तर पर शैक्षिक प्रशासन को लोकतान्त्रिक बनाने के उपाय
राज्य स्तर पर शैक्षिक प्रशासन को अधिक लोकतन्त्रात्मक बनाने के लिए हमें स्मरण रखना होगा कि जनतन्त्रीय व्यवस्थापन जनतन्त्रीय आदर्शों पर आधारित होता है। अतः सबसे पहले हमें उन जनतन्त्रीय आदर्शों पर विचार करना होगा जो जनतन्त्रीय व्यवस्था के निर्देशक तत्त्व का कार्य करते हैं। ये जनतन्त्रीय आदर्श अग्नलिखित हैं-
(1) व्यक्ति जगत् की बहुमूल्य सम्पत्ति है। इसके व्यक्तित्व का आदर किया जाना चाहिए। यह आदर्श जनतन्त्रीय व्यवस्था का मूल आधार है। जन्तन्त्रीय व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति को महत्त्व प्रदान किया जाता है और उसका सम्मान किसी जाति, धर्म अथवा अन्य कारण से नहीं अपितु उसके गुणों के कारण होता है।
(2) व्यक्ति में अपने विचार व्यक्त करने की क्षमता है और उसे इसका अवसर मिलना चाहिए। निष्पक्ष और दबाव रहित विचार व्यक्त व्यक्त करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है। इस प्रकार की स्वतन्त्रता अध्यापक और छात्र दोनों को स्वतन्त्र चिन्तन तथा अभिव्यक्ति के अवसर प्रदान करती है तथा घुटन से उसकी मुक्ति होती है।
(3) प्रत्येक व्यक्ति को उन सब निर्णयों में भाग लेने का अधिकार है जो उसके जीवन से सम्बन्ध रखते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि जनतन्त्रीय व्यवस्था में निर्णय ऊपर से थोपे नहीं जाते अपितु अध्यापक, छात्र तथा अभिभावक सभी उसके निर्णय में भाग लेते हैं। वे निर्णय करते हैं कि क्या करना है और क्या नहीं करना है।
(4) जनतन्त्रीय व्यवस्था में विचारों की भिन्नता को स्वीकार नहीं किया जाता अपितु उसका आदर किया जाता है। यदि कहीं विचारों में भिन्नता होती भी है तो उसे स्वस्थ ढंग से स्वीकार कर लिया जाता है। एक सामूहिक निर्णय लेने के बाद विचारों में भिन्नता होते हुए भी व्यक्ति कार्य प्रणाली में बाधा उत्पन्न नहीं करते।
(5) प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के अधिकतम विकास का अधिकार है और उसे उसका उचित अवसर मिलना चाहिए। जनतन्त्रीय व्यवस्था में हम प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व का आदर करते हैं और बिना किसी भेदभाव के उसके अधिकतम विकास के लिए अवसर भी प्रदान करते हैं। आजकल इसी विचारधारा के कारण, निःशुल्कता, अनेक छात्र-वृत्तियाँ तथा अन्य प्रकार की सुविधाएँ प्रत्येक व्यक्ति की उसकी क्षमता के आधार पर प्रदान की जाती हैं। इस बात का ध्यान रखा जाता है कि साधनों के अभाव में कोई प्रतिभा कुण्ठित न हो जाय।
(6) प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है और उसके समानता आवश्यक है। जनतन्त्रीय व्यवस्था में विशेषाधिकारों का प्रयोग नहीं होता। न जाति-पाँति, वंश, व्यवसाय के आधार पर दो व्यक्तियों में अन्तर किया जाता है अपितु प्रत्येक को समान मानकर व्यवहार किया जाता है।
(7) अल्पसंख्यकों तथा पिछड़े लोगों को शिक्षा तथा नौकरी में स्थान सुरक्षित तथा शिक्षा के अवसर प्रदान कर उनके अधिकारों की रक्षा करते हैं। इस प्रकार की व्यवस्था इसलिए है कि समाज के पिछड़े वर्ग को ऊपर आने और स्वतन्त्र रूप में सामाजिक विकास में अपनी भूमिका निभाने का अवसर दिया जा सके।
(8) जनतन्त्र अन्ध-विश्वासों, संकीर्णताओं, जातिवाद, असहिष्णुता तथा शोषण का घोर विरोधी है और समस्याओं के शान्तिपूर्ण हल में विश्वास करता है। यदि इनसे मुक्त होकर व्यवहार न किया तो जनतन्त्र कभी पनप नहीं सकता है।
शैक्षिक प्रशासन की आवश्यकताएँ
(1) बालकों के व्यक्तित्व का बाधा-रहित अधिकतम विकास हो। यदि कोई शैक्षिक व्यवस्था इस उद्देश्य को प्राप्त करने में असमर्थ रहती है तो वह चाहे कितनी ही आकर्षक दिखाई पड़ती हो किन्तु शिक्षा की दृष्टि से अव्यावहारिक तथा असफल सिद्ध होगी।
(2) अपनी शक्ति, क्षमता तथा अभिरुचि के अनुसार व्यक्ति किसी व्यवसाय के लिए तैयार हो सके, क्योंकि शिक्षा का उद्देश्य बच्चों को जीवन के लिए तैयार करना है जिससे वह अपने पैरों पर खड़े हो सकें और समाज के लिए भार न बनें। इसी बात को ध्यान में रखकर आजकल शिक्षा को व्यवसाय उन्मुख बनाने की विचारधारा प्रबल हो उठी है।
(3) आने वाली पीढ़ी में ऐसे आदर्श उत्पन्न हो सकें तथा उनके व्यवहार में ऐसा परिवर्तिन हो सके जिससे वे कुशल नागरिक बनकर देश के विकास में योगदान कर सकें।
(4) प्रशासनिक व्यवस्था को ऐसी बनाना है जिससे वे अपने व्यक्तित्व और सामाजिक जीवन की समस्याओं के प्रति वैज्ञानिक ढंग से विचार कर सकें और उसके समाधान में स्वयं सक्षम हो सकें।
(5) विद्यालय की व्यवस्था को ऐसा रूप दिये जाने की आवश्यकता है जिससे वे एक जीवन-दर्शन का निर्माण कर सकें तथा नैतिक जीवन के प्रति उनमें आस्था ही न हो वरन् आचरण भी कर रहे हों।
हमारा शैक्षिक प्रशासन और विद्यालय संगठन जिस सीमा तक इन आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकेगा, उसी सीमा तक उसे सफल व्यवस्था कहा जा सकता है।
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