उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986
उपभोक्ताओं के जीवन एवं सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए भारत सरकार ने 15 अप्रैल 1986 ई0 को एक अधिनियम पारित किया जिसे उपभोक्त संरक्षण अधिनियम के नाम से जानते है। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य अधोलिखित हैं-
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के मुख्य उद्देश्य
1. संरक्षण का अधिकार-उपभोक्ता जीवन एवं सम्पत्ति के लिए हानिकर एवं खतरनाक माल एवं सेवाओं के विपणन के सम्बन्ध में सुरक्षा का अधिकार रखता है। अधिनियम की धारा 6(क) के अनुसार जीवन एवं सम्पत्ति के लिए परिसंकटमय माल एवं सेवाओं के विपणन के विरुद्ध उपभोक्ताओं को संरक्षण का अधिकार प्राप्त है। आजकल बाजार में बहुत-सी ऐसी वस्तुएँ बिक्री हेतु उपलब्ध होती हैं जो गुणवत्ता, मात्रा, शुद्धता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती, जिनका उपभोग हानिकर या असुरक्षित होता है। एक ही उत्पाद की अनुकृति (Duplicate) एक ही नाम और माडल में व्यापारियों द्वारा बाजार में बिक्री के लिये लायी जाती है जिसे व्यापारी उपभोक्ताओं को अधिक लाभ कमाने की दृष्टि से अनुचित मूल्य पर बेचता है जिससे उपभोक्ताओं को हानि उठानी पड़ती है। उच्चस्तरीय अनुसन्धान के आधार पर जिन औषधियों का प्रयोग मानव जीवन के लिये अनुपयुक्त घोषित कर दिया जाता है जिनकी बिक्री प्रतिबन्धित कर दी जाती है या जिनकी शक्तता अवसान हो जाती है उन्हें भी व्यापारी उपभोक्ताओं को बेचकर शोषण करता है। चिकित्सालय, बैंक, रेलवे तथा वित्तीय संस्थानों आदि के द्वारा, जो सार्वजनिक क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं, प्रदत्त सेवाओं में कमी, से उपभोक्ताओं को कष्ट उठाना पड़ता है अतः सरकार का यह दायित्व बनता है कि खतरनाक वस्तुओं को बाजार में आने से रोकने के लिए समुचित एवं प्रभावी वैधानिक कदम उठाये। अधिनियम के अन्तर्गत उपभोक्ताओं को माल खरीदने तथा यदि उसके उपभोग से क्षति पहुँचती है तो प्रतितोष अभिकरणों के समक्ष परिवाद प्रस्तुत करके उपचार प्राप्त करने का अधिकार प्रदान किया गया है।
2. सूचित किये जाने का अधिकार-अधिनियम की धारा (6)ख के अनुसार माल या सेवाओं, जैसी भी स्थिति हो, की गुणवत्ता, मात्रा, शक्ति, शुद्धता, मानक और मूल्य के बारे में उत्पादक द्वारा सूचित किये जाने का अधिकार प्राप्त है ताकि अनुचित व्यापारिक व्यवहार से उपभोक्ताओं को सुरक्षा दी जा सके। आज भी बाजार में ऐसे उत्पाद काफी मात्रा में उपलब्ध हैं जिनकी कीमतों एवं गुणवत्ता आदि के बारे में उपभोक्ताओं को जानकारी उत्पादकों द्वारा नहीं दी जाती है और विक्रेताओं को अनुचित व्यापारिक गतिविधियों के बारे में छूट मिल जाती है। माल की गुणवत्ता, शुद्धता, मानक आदि के बारे में उत्पादकों द्वारा प्रामक एवं प्रवंचनापूर्ण विज्ञापनों के माध्यम से बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता है जबकि वास्तविकता कुछ और होती है और उपभोक्ताओं का जीवन एवं सम्पत्ति संकटग्रस्त हो जाता है।
इस कानून के अन्तर्गत अनुचित व्यापार प्रथा से उपभोक्ताओं को संरक्षण देने की व्यवस्था की गई है जिससे किसी माल की बिक्री, प्रयोग या आपूर्ति की वृद्धि के लिये अथवा सेवाओं के सम्बन्ध में अनुचित तरीका या धोखाधड़ी का प्रयोग वर्जित है। कोई भी निर्माता, व्यापारी या विक्रेता यदि मौखिक या लिखित रूप में किसी माल के विशिष्ट मानक, गुणवत्ता, संरचना, किस्म या प्रतिमान या सेवाओं के विशिष्ट स्तर, गुण या श्रेणी के बारे में मिथ्या कथन करता है जिससे उपभोक्ता को हानि या क्षति पहुँचती है तो वह प्रतितोष प्राप्त करने का अधिकार रखता है।
3. आश्वासन दिये जाने का अधिकार- अधिनियम का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य यह भी है कि प्रतिस्पर्धी मूल्यों पर विभिन्न किस्मों के माल एवं सेवाएँ सुलभ कराने का आश्वासन दिये जाने के सम्बन्ध में उपभोक्ताओं को अधिकार प्रदान किया जाय। हमारे देश में प्रायः आवश्यक वस्तुओं का प्राकृतिक अथवा कृत्रिम अभाव हो जाता है। बाजार में उत्पाद का न आना या जमाखोरों एवं कालाबाजारियो द्वारा बाजार से सामान गायब कर दिये जाने का सीधा प्रभाव पड़ता है। उपभोक्ताओं को ऐसे सामान खरीदने के लिये विवश होना पड़ता है जो उनकी आवश्यकताओं एवं अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरें। बाजार में एकाधिकार की प्रवृत्ति शोषण को जन्म देती है इसलिए यह आवश्यक है कि उपभोक्ता जब बाजार में माल खरीदने जाए तो उसके पास चुनाव का विकल्प मौजूद रहना चाहिए। जनसामान्य के लिए उपभोक्ता वस्तुओं की आपूर्ति, उचित वितरण तथा उचित मूल्य आदि सुनिश्चित करने का सरकार का दायित्व और उपभोक्ता का अधिकार है।
4. सुने जाने का अधिकार-इस सम्बन्ध में अधिनियम के अन्तर्गत जिला, राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर अर्द्ध-न्यायिक अभिकरणों की स्थापना की गई है जो विनिश्चय के दौरान सिविल न्यायालय की प्रक्रियात्मक जटिलताओं से अलग प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों का अनुपालन करते हुए उपभोक्ताओं को शीघ्र न्याय प्रदान करते हैं।
5. प्रतितोष प्राप्त करने का अधिकार- अधिनियम की धारा 6 (ङ) के अन्तर्गत अनुचित व्यापारिक व्यवहार या प्रतिबंधित व्यापार, व्यवहार या उपभोक्ताओं के अनैतिक शोषण के विरुद्ध प्रतितोष प्राप्त करने का अधिकार दिया गया है। अतः उपभोक्ता को अनैतिक शोषण से सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से यह अधिकार बहुत महत्त्वपूर्ण है।
6. उपभोक्ता शिक्षा का अधिकार-उपभोक्ता आन्दोलन की सार्थकता उपभोक्ता शिक्षा के अधिकार पर निर्भर करती है, उपभोक्ताओं के लिये उनके हितों की सुरक्षा के सम्बन्ध में शिक्षित करने के लिए एक व्यापक शिक्षा नीति आवश्यक है जिसमें न सिर्फ उनके हितों एवं शोषण के बारे में बल्कि उपभोक्ता न्याय प्राप्त करने के लिए सभी सम्बन्धित विषयों का समावेश होना चाहिए।
विशेषतायें
उपभोक्ता संरक्षण उपभोक्ताओं के हितों के संरक्षण हेतु प्रवर्तित किया गया है जिसके प्रमुख विशेषताए निम्नवत् हैं-
1. सभी माल एवं सेवाओं पर यह अधिनियम लागू होता है।
2. अधिनियम के अन्तर्गत उपभोक्ता विवादों के शीघ्र निस्तारण एवं प्रतितोष देने के लिए जिला, राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर अर्ध-न्यायिक प्रतितोष अभिकरणों की स्थापना की गयी है जिसे उपभोक्ताओं को विनिर्दिष्ट प्रकृति का प्रतितोष देने तथा जहाँ भी उचित हो, प्रतिकर प्रदान करने की शक्ति प्राप्त है। जिलापीठ को आरम्भिक क्षेत्राधिकार तथा राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर अर्द्ध-न्यायिक अभिकरणों द्वारा विनिश्चय के दौरान प्रक्रियात्मक जटिलताओं से पृथक् प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों का पालन करना पर्याप्त है।
3. उपभोक्ता अधिनियम के अन्तर्गत केन्द्रीय एवं राज्य स्तर पर उपभोक्ता संरक्षण परिषदों की स्थापना उपबंधित करता है। इसमें उपभोक्ता हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले सरकारी और गैर-सरकारी सदस्यों को सम्मिलित किया जाता है। इन परिषदों का उद्देश्य उपभोक्ताओं के अधिकारों का संवर्धन और संरक्षण करना है।
4. उपभोक्ताओं को प्रभावी तरीके से संरक्षण उपलब्ध कराने हेतु इस कानून के अन्तर्गत अर्ध-न्यायिक अभिकरणों द्वारा दिये गये आदेशों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए शास्ति की भी व्यवस्था की गई है।
5. किसी विधि के अधीन रजिस्ट्रीकृत किसी स्वैच्छिक उपभोक्ता संगठन को भी उपभोक्ता मामलों में प्रतिनिधित्व करने का अवसर प्रदान किया गया है। इसके अतिरिक्त केन्द्रीय सरकार या कोई राज्य सरकार उपभोक्ता विवादों के सम्बन्ध में परिवाद प्रस्तुत कर सकती है।
6. अधिनियम अनुचित व्यापारिक गतिविधियों जिनसे उपभोक्ताओं को हानि या क्षति कारित हो, माल में त्रुटि, सेवाओं में कमी या निर्धारित मूल्य से अधिक मूल्य लेने आदि के कारण परिवाद दाखिल करने का प्रावधान करता है।
7. अधिनियम का विस्तार जम्मू-कश्मीर राज्य के सिवाय सम्पूर्ण भारत पर है।
अधिनियम की आलोचना
भारत में उपभोक्ताओं के हितों को ध्यान रखते हुए तथा उन्हें संरक्षण प्रदान करने के उद्देश्य से भारत सरकार द्वारा सन् 1986 में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, पारित किया गया। यह अधिनियम उपभोक्ताओं के हितों की अनेक प्रकार के उद्देश्य की पूर्ति करता है जैसे- माल या सेवाओं की गुणवत्ता, मात्रा तथा मूल्य के बारे में संरक्षण, अनुचित व्यापार व्यवहार या उपभोक्ता के अनैतिक शोषण के विरुद्ध प्रतिकर दिलाना, आदि।
अधिनियम में इस प्रकार अनेक विशेषतायें है फिर भी यह अपने उद्देश्य को पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं कर सकता है। इस संबंध में इसकी निम्न प्रकार से आलोचना की जा सकती है-
(1) अधिनियम उपभोक्ताओं के हितों सम्पूर्ण रूप से संरक्षित नहीं करता है। उपभोक्ताओं की अनेक समस्यायें ऐसी है जिसके लिए अधिनियम में उपचार की व्यवस्था नहीं है।
(2) बहुत से ऐसे उपभोक्ता है जिनको विधि का ज्ञान नहीं होता है इस कारण वे खराब सामान के लिए वाद दाखिल नहीं कर पाते है।
(3) उपभोक्ता अधिनियम में यद्यपि विधिक प्रक्रिया को दूर रखा गया है फिर भी बिना अधिवक्ता के सहारे आज भी वाद दायर नहीं किये जाते है।
(4) न्याय का विलम्ब से मिलना भी इस अधिनियम का सबसे बड़ा दोष है। यद्यपि कि मामले के निपटारे के 90 दिन की समय सीमा तय की गई है।
(5) जिस प्रकार नियमित न्यायालयों के निर्णयों में बल होता है उस प्रकार इस न्यायालय के निर्णयों में बल नहीं होता है।
(6) उपभोक्ता फोरम के न्यायालयों के निर्णयों के निष्पादन को प्रभावी तरीके से नहीं लागू किया जाता है।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि उपभोक्ता सरंक्षण अधिनियम, 1986 अपने उद्देश्यों में पूर्ण रूप से प्राप्त करने में असफल रहा है। इस अधिनियम में संशोधन करके इसे और प्रभावी बनाया जा सकता है।
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