एक आदर्श अध्यापक की विद्यालय में महत्त्वपूर्ण स्थिति पर प्रकाश डालिए।
एक आदर्श अध्यापक के महत्व न केवल शिक्षा के क्षेत्र में है वरन् उसे राष्ट्र निर्माता भी कहा जाता है। किसी भी देश-काल की शिक्षा-पद्धति में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान शिक्षक का है। यह सम्पूर्ण विश्व अपने उन सभी शिक्षकों का ऋणी है, जिन्होंने ज्ञान के आधार पर संसार के आध्यात्मिक एवं भौतिक स्वरूप का निर्माण किया है। आज का शिक्षक या अध्यापक शब्द भले ही एक निश्चित अर्थ का द्योतक हो परन्तु गुरु, आचार्य और उपाध्याय शब्दों का निहितार्थ व्यापकता को समाविष्ट किये हुए है। ऋग्वेद में गुरु को ‘वाचस’ (उच्च ज्ञान से परिपूर्ण) कहा गया है गुरू का ही लगभग समानार्थी शब्द पाश्चात्य साहित्य में ‘प्रीसेप्टर’ है।
भारत में गुरु का स्थान ईश्वर से भी बढ़कर माना गया है। जो गुरू आत्मज्ञान साक्षात्कार कराकर मोक्ष के मार्ग पर शिष्य अथवा साधक को अग्रसर करना है, वह वास्तव में जगन्नियन्ता से भी बढ़कर वरेण्य और वन्दनीय है। शिक्षक छात्र को अज्ञान के अन्धकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाता है। गुरु माता-पिता से भी अधिक आदर का पात्र है, क्योंकि माता-पिता से हमें केवल पार्थिव शरीर ही मिलता है जबकि गुरु के द्वारा बौद्धिक उन्नति और सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास का मार्ग प्रशस्त होता है। अथर्ववेद, वशिष्ठ धर्म-सूत्र, बौधायनधर्म- सूत्र आदि में आचार्य को शिष्य का मानस-पिता मानते हुए यह कहा गया है कि श्रोत्रिय को कभी भी सन्तानहीन नहीं समझना चाहिए, क्योंकि उसके छात्र ही उसके पुत्र हैं।
किसी देश की जनता के सांस्कृतिक स्तर की माप वहाँ के अध्यापकों को प्राप्त प्रतिष्ठा से की जा सकती है। इसलिए दार्शनिकों, विचारकों, राजनीतिज्ञों और विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित विद्वानों ने मुक्त कण्ठ से शिक्षक का गुणगान किया है। महर्षि अरविन्द ने शिक्षक का महत्त्व निर्देशक और सहायता करने वाले व्यक्ति के रूप में प्रतिपादित किया है। उनके अनुसार शिक्षक विद्यार्थी के मस्तिष्क को प्रशिक्षित करने की अपेक्षा उसे यह बताता है कि वह ज्ञान के यन्त्रों को कैसे पूर्ण बना सकता है।
डॉ. जाकिर हुसैन ने कहा है- “अध्यापक वास्तव में हमारे भविष्य का वास्तुशिल्पी है। समाज उसकी उपेक्षा स्वयं की जोखिम पर ही कर सकता है।’ श्रीमन्नारायण ने असंदिग्ध रूप से शिक्षक को राष्ट्र का वास्तविक निर्माता कहा है। प्रो. हुमायूँ कबीर की दृष्टि में- “अच्छे अध्यापकों के अभाव में अच्छी से अच्छी शिक्षा प्रणाली भी नष्ट हो जाती है और अच्छे अध्यापकों के कारण शिक्षा प्रणाली के दोष भी अधिकांश रूप में दूर किये जा सकते है।”
माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) ने अपने प्रतिवेदन में शिक्षक को शैक्षिक पुनर्रचना में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारक मानते हुए लिखा है कि- “विद्यालय का सुयश और इसक जातीय जीवन पर प्रभाव उसमें कार्यरत शिक्षकों के प्रकार पर निर्भर है।” इसी प्रकार शिक्षा आयोग (1964-66) के अनुसार- “इसमें कोई सन्देह नहीं कि शिक्षा के स्तर और राष्ट्रीय विकास में शिक्षा-योगदान में जितनी थी बातें प्रभावित करती हैं, उनमें शिक्षकों के गुण, क्षमता और चरित्र सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।”
शिक्षकों के प्रशस्ति वर्णन में पाश्चात्य विद्वान् भी पीछे नहीं हैं। जहाँ जॉन एडम्स ‘शिक्षक को मनुष्य का निर्माता कहा है। वहीं एच.जी. वेल्स ने— ‘शिक्षक को इतिहास का वास्तविक निर्माता बतलाया है।’ एलेक्जेण्डर, ‘जन्म देने के कारण अपने पिता के ऋणी हैं और के अच्छी तरह रहने के लिए अपने शिक्षक के।’ डॉ. इ.ए. पायरस लिखते हैं- “यदि राष्ट्र अध्यापक तृतीय कोटि के हैं, तो इसमें सन्देह नहीं कि राष्ट्र भी तृतीय कोटि का होगा। यदि हम प्रथम कोटि के होना चाहते हैं तो हमारे अध्यापकों को प्रथम कोटि का होना पड़ेगा।” हेनरी एडम्स का कहना है कि- “एक अध्यापक शाश्वतता को प्रभावित करता हैं वह कभी भी नहीं बता सकता है उसका प्रभाव कहाँ समाप्त होता है।” जॉन डीवी ने अध्यापक की महत्ता का प्रतिपादन इन शब्दों में किया है- “इस प्रकार शिक्षक सदैव सच्चे ईश्वर का भविष्यवक्ता है और ईश्वर के वास्तविक साम्राज्य का ज्ञान करने वाला अथवा उपशिक्षक है।” लॉक ने कहा है कि जिस विद्यालय के पास अच्छे अध्यापक हैं, उसकी अपेक्षाएँ बहुत थोड़ी हैं परन्तु जिस विद्यालय में अच्छे अध्यापक नहीं हैं, वह न्यूनतम अच्छा है।
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