पल्लवन तथा अन्य रचना रूप पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
पल्लवन तथा अन्य रचना रूप- पल्लवन में मिलते-जुलते अन्य रचना-रूपों । स्पष्टीकरण, व्याख्या, भावार्थ और आशय को प्रमुख स्थान है। पल्लवन का सही स्वरूप समझ के लिए इनमें साम्य-वैषम्य का निरुपण करना आवश्यक है-
(1) पल्लवन और स्पष्टीकरण-
पल्लवन और स्पष्टीकरण दोनों में ‘विस्तार मूलाधार है। परन्तु इस एक मूलाधार के होते हुए भी दोनों के कार्य-क्षेत्र में पर्याप्त अन्तर है। स्पष्टीकरण मुख्य रूप से अवतरण में आई कठिन पंक्तियों का अथवा क्लिष्ट वाक्यों का किया जाता है। उनमें जो दुरूहता, अगम्यता और दुर्बोधता रहती है, उसे विश्लेषण, व्याख्या, उपमान अथवा दृष्टान्तों द्वारा स्पष्ट किया जाता है; पर पल्लवन में अर्थ की दुरूहता सुलझाने का उपक्रम मुख्य नहीं होता अपितु मुख्य होता है दिये गये सन्दर्भ के केन्द्रीय बिन्दु अथवा भाव का प्रसार और उसके सभी मार्मिक पक्षों का उद्घाटन करना। इस प्रकार दोनों के उद्देश्य पृथक् हैं। इस दृष्टि से पल्लवन और स्पष्टीकरण का मार्ग भी अलग है।
(2) पल्लवन और व्याख्या-
इन दोनों का भी मूलाधार ‘विस्तार’ है, पर दोनों का मार्ग भी अलग है। व्याख्या (Explanation) में किरी गद्यांश अथवा पद्यांश की पंक्तियों की सभी विशेषताओं को इस प्रकार उद्घाटित किया जाता है कि उनमें अभिव्यक्त विचार स्पष्ट और प्राब्जल रूप में पाठक के समक्ष उपस्थित हो जाते हैं। उसका आकार भी मूल से बड़ा होता है। परन्तु पल्लवन में हम किसी गद्यांश अथवा पद्यांश की विशेषताओं या सौष्टव का उद्घाटन नहीं करते, अपितु वाक्य के मूल भाव का ही पल्लवन उसका विषय क्षेत्र है। गद्यांश अथवा पद्यांश वे भाव का पल्लवन उसका कार्य नहीं है। व्याख्या में प्रसंग-निर्देश और विवेचित विषय के अनुकूल-प्रतिकूल समीक्षा भी हो सकती है, पर पल्लवन में इसका प्रश्न भी नहीं उठता। इस प्रकार इन दोनों का अन्तर स्पष्ट हो जाता है।
(3) पल्लवन और भावार्थ-
पल्लवन और भावार्थ (Substance) में मौलिक अन्तर हैं। साम्य है तो केवल इतना ही कि भावार्थ के आकार-प्रकार के सम्बन्ध में किसी प्रकार की सीमा-रेखा निश्चित नहीं की जा सकी है और पल्लवन के सम्बन्ध में भी कुछ ऐसी ही बात है, अन्यथा दोनों का क्षेत्र पृथक्-पृथक् है। भावार्थ के लिए अवतरण या अपेक्षया बड़ी रचना के आवश्यकता है। पल्लवन के लिए वाक्य मात्र यथेष्ट है। भावार्थ में समस्त अवतरण के भाव के स्पष्ट करना उद्देश्य रहता उसका पल्लवन नहीं, जबकि विस्तार में मूल भाव का संयुक्तिक विस्तार अपेक्षित है। अतः दोनों में मौलिक भेद है।
(4) पल्लवन और आशय-
आशय का आधार भी विस्तार है। एक आलोचक के अनुसार तो उसकी आकार सीमा सुनिश्चित नहीं की जा सकती, वह आवश्यकतानुसार मूल बड़ा भी हो सकता है और छोटा भी। यदि मूल छोटा, सारगर्भित और विचार-संकुल है तो आशय निश्चय ही मूल से बड़ा होगा और यदि मूल बड़ा है, उसकी शैली में कसाव से अधिक फैलाव? तो आशय भी संक्षिप्त होगा, मूल से कई गुना छोटा। आशय-लेखक का ध्यान स्पष्टता पर रहा है। यदि यह स्पष्टता अल्प शब्दों में आ गई तो ठीक, अन्यथा अधिक शब्दों का प्रयोग भी करना पड़ जाये तो वह हिचकेगा नहीं, उसे किसी भी स्थिति में स्पष्टता चाहिए, पर यह बात पल्लवन लिए नहीं है। उसके लिए मूल के छोटा-बड़ा होने का कोई प्रश्न नहीं उठता। यह निश्चय ही मूत है। बड़ा होता है। विस्तारक स्पष्टता पर ध्यान अवश्य रखता है, पर स्पष्टता ही उसके लिये सब कुछ नहीं होती। उसका सब कुछ तो सूक्ति के मूल-भाव को समझना होता है।
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