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सर्जनात्मक भाषा के स्वरूप | Forms of Creative Language in Hindi

सर्जनात्मक भाषा के स्वरूप
सर्जनात्मक भाषा के स्वरूप

सर्जनात्मक भाषा के स्वरूप

सर्जनात्मक भाषा- सर्जनात्मक भाषा के सम्बन्ध में अनेक अवधारणाएँ फैली हुई हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि भाषा में होने वाले किसी भी परिवर्तन या नय प्रयोग का सर्जनात्मकता कहा जा सकता है। समाज का प्रत्येक सदस्य इससे प्रभावित होता है।

सम्यक् शब्दों से सरचित कलेवर तथा उदार अर्थ की आत्मा वाली भाषा सृजन सामथ्र्य से युक्त होती है। सम्यता और संस्कृति के गतिमान पहियों पर निन्तर विकासोन्मुख समाज, अपने विकास की प्रगति की मशीनी गाथा लिखने के लिए एक भाषा की आवश्यकता का अनुभव करता है। यह भाषा वही हो सकती है जिसमें सजनकी निर्बाध सामर्थ्य हो, जिसमें अनुभूतियों के उद्यम वेग को अतीव संयम, संतुलन, सार्थकता, सम्प्रभाव के साथ रचनात्मक अभिाव्यक्ति का कलात्मक कौशल हो।

भाषा के प्रयोजन सम्प्रेषण या विचारों का आदान

प्रदान होता है। जो व्यक्ति सम्प्रेषण के प्रयोजन से भाषा का प्रयोग करता है, उसे भाषा के सभी नियमों का पालन करना होता है। वक्ता भाषा का प्रयोग करके अपनी बात को कहता है और लेखक लिखकर पाठक तक पहुँचाता है।

भारतीय आर्य भाषाओं में हिन्दी सर्वाधिक लोगों द्वारा बोली, समझी एवं प्रयोग की जाने वाली भाषा है हिन्दी का प्रयोग देश एवं विदेश दोनों में होता है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा के साथ ही साथ संविधान द्वारा राजभाषा का गरिमामय पद भी प्राप्त है। विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र में प्रयोग होने से इसमें वैविध्य का होना स्वाभाविक ही नहीं बल्कि अनिवार्य है। हिन्दी में एक रूपता के विकास हेतु इसका मानकीकरण किया गया है। इसलिये हिन्दी का मानक रूप भी विकसित किया गया। भाषाओं में निरन्तर परिवर्तन होने से शब्दों की संख्या घट-बढ़ जाती है। इस घटा-बढ़ी के पीछे अनेक कारण कार्य करते हैं जैसे- हिन्दी में बहुत से शब्द ऐसे हैं जिनका संस्कृत रूप ही ग्रहण किया गया। कुछ शब्द संस्कृत पर आधारित तो हैं, परन्तु उनके रूप में परिवर्तन आ गया।

सम्प्रति वैज्ञानिक युग में मनुष्य बहुआयामी विकास में गतिशील है। मानव के विकास में भाषा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। हिन्दी के विविध रूप मानव की गतिशीलता में सहयोगी सिद्ध होते हैं।भाषा का सर्जनात्मक प्रयोग कई विधाओं में हो सकता है। कविता, कहानी, नाटक, निबन्ध, संस्मरण आदि सर्जनात्मक प्रयोग के प्रमुख उदाहरण है। इस प्रकार के प्रयोगों में यह महत्वपूर्ण नहीं होता कि क्या कहा गया है, अपितु महत्पूर्ण होता है कि संदेश कैसे दिया गया।

भाषा में होने वाला कोई भी परिवर्तन या नया प्रयोग सर्जनात्मक स्वरूप कहा जाता है। सृजनात्मक भाषा एक परिनिष्ठित तथा संस्कारित भाषा होती है। अत: उसका व्याकरण उच्चारण आदि सुनिश्चित होता है। पर कभी-कभी- उस पर प्रादेशिक बोलियों का प्रभाव भी पड़ जाता है। उदाहरणार्थ लगा है। हिन्दी पर पंजाबी भाषा का प्रभाव पड़ने से हमको जाना है वाक्य हमने जाना है के रूप में प्रयुक्त होने लगा।

किसी भी क्षेत्र कृति के लिए उसमें सृजनात्मकता का होना आवश्यक है। उसकी इस शक्ति को स्पष्ट करने के लिए भाषा का भी सर्जनात्मक होना आवश्यक है यह भाषा कृतिकार की निजी विशेषता होती है। इसमें, शिल्पगत वैशिष्ट्य के साथ पाठक का सामात्मक सम्बन्ध स्थापित करती है। डॉ. हरदयाल सृजनात्मकता के महत्व को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं-

“साहित्य में मौलिकता इसी सृजनात्मकता के कारण आती है। इसे रचना और रचनाकार दोनों का वैशिष्ट्य कहा जा सकता है। जिस रचना में यह सृजनात्मकता या मौलिकता या निजी वैशिष्ट्य जितना अधिक होगा वह रचना उतनी ही श्रेष्ठ होगी।

एक युग के सृजनात्मक प्रयोगों में एक जैसी प्रवृत्तियाँ या लक्षण हों और उस युग विशेष के लेखक की रचनाओं में कुछ व्यक्तिगत विशेषताएँ हो पर यह कोई निश्चित नियम नहीं है। सर्जनात्मक भाषा में भावचित्र रूपायित करने की शक्ति होती है। शब्द शक्तियों से युक्त यह भाषा एक साथ कई अर्थों की अभिव्यंजना कर सकती है।

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