“प्रयोजनमूलक हिन्दी व भाषा प्रयोग में अन्तर्निहित संबंध है।” कथन स्पष्ट कीजिए। भाषा प्रयोग और प्रयोजनमूलक हिन्दी का क्या सम्बन्ध है? कथन स्पष्ट करिये।
भाषा का प्रयोग समाज में व्यापक रूप से होता है। भाषा मात्र कविता, कहानी, उपन्यास की ही भाषा नहीं होती है अपितु भाषा की व्यापकता सम्प्रेषणीयता का एक अनिवार्य प्रतिफल यह भी है कि उसमें सामाजिक सन्दर्भो और नये प्रयोजनों को साकार करने की कितनी सम्भवना है। यह प्रयोजनीयता संसार भर की भाषाओं में धीरे-धीरे विकसित हुई और रोजी-रोटी का माध्यम बनने की विशिष्टताओं के साथ भाषा का नया आयाम सामने आया है। यह नई भाषिक भूमिका भाषा की व्यावहारिक प्रयोजनमुखी चेतना से सम्बन्धित है। प्रयोजनमूलक भाषा से तात्पर्य ऐसी व्यावहारिक भाषा से है जिसका उपयोग एकाधिकार विशेष प्रयोजनों के लिये होता है। जीवन में आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्रयुक्त भाषा ही प्रयोजनमूलक भाषा है। यह भाषा व्यापकतर जीवनोपयोगी उपकरणों से गढ़ी जाती है। साथ ही इसकी व्यावहारिक कुशलता भी संदेह से परे हैं, स्वाभावतः भाषा की सामाजिक व्यावहारिक प्रयुक्तियों के साथ प्रयोजनमूलक भाषा की चर्चा का सीधा और अपरिहार्य सम्बन्ध है।
यह तथ्य सर्वविदित है कि भाषा हमारे सामाजिक सम्प्रेषण का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साधन है। भाषा का विकास भी जिन सोपानों के माध्यम से होता है उसमें संस्कृति अर्थतंत्र और सभ्यता की स्थितियाँ सहायक होती हैं। हमारी विचारधारा, चिन्तना तथा भावार्थ व्यक्ति को मुखर करने का एक मात्र साधन भाषा ही है। यही एक महत्वपूर्ण कारण है भाषा का ज्ञान प्राप्त करना ताकि उसके माध्यम से ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न शाखाओं से ज्ञान प्राप्त किया जा सके। भाषा की ऐसी संचार व्यवस्था है, जिसके केन्द्र में मानव की पूरी सत्ता आ बैठती हैं। यह भाषा ही हमारे सम्प्रेषण का सशक्त माध्यम है, साथ ही सामाजिक नियन्त्रण का समर्थ उपकरण भी है। यह भाषा ही है, जो मानव को अन्य प्राणियों से अलग करती है। भाषा एक समाज सापेक्ष अभिव्यक्ति साधन है।
भाषा के रूप का वर्गीकरण निम्नलिखित है-
बोलचाल या सम्पर्क भाषा- यह भाषा उत्तर भारत में प्रायः जनभाषा, मातृभाषा के रूप में प्रचलित है। यह ऐसी भाषा है जिसका कोई मानक रूप नहीं है। एक ही जनपद के एक सिरे पर एक प्रकार की भाषा बोली जाती है तो दूसरे सिरे पर दूसरे प्रकार की। उत्तर भारत में भोजपूरी, मैथिली, अवधी, कन्नौजी, ब्रज, बुन्देलखण्डी, कुमाँयूनी, आदि बोलियों का क्षेत्र है। फलतः भाषा उच्चारण के इतने भिन्न रूप होते हैं कि हिन्दी न जानने वाले व्यक्ति को उनको पकड़ना सहज सम्भव नहीं है। बोलचाल की भाषा जनपदीयता और आंचालकिता से अत्याधिक प्रभावित है।
इस विशेषता एवं विभिन्नता के साथ व्यावहारिक यह भाषा हमारे लिये कठिनाई उपस्थित नहीं करती क्योंकि यह हिन्दी विविध भाषाओं, बोलियों और उप बोलियों का मिश्रण है। संख्या की दृष्टि से यह विश्व के तीन नम्बर की भाषा है। इसके ही माध्यम से कोटि-कोटि जन अपना काम चला रहे हैं। फिल्मी गीत सारे भारत में सुने जाते हैं गुनगुनाये जाते हैं। इस हिन्दी को गाँधीजी द्वारा “हिन्दूस्तानी ” नाम दिया गया था।
प्रयोजनमूलक भाषा- यह शब्द प्रयोजनमूलक अंग्रेजी के Functional Language के आधार पर प्रचलित हुआ है यह ऐसी भाषा है, जिसका प्रयोग किसी विशिष्ट प्रयोजन के लिए होता है। कार्यालय, व्यवसाय, उद्योग, सचार, राजनीति आदि क्षेत्रो में यही भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम बनती है। अधिकाधिक प्रमुख क्षेत्रों में प्रवेश का अनुभव और सम्प्रेषण के अन्तर्गत प्रयोजनों की पूर्ति करने के कारण यह भाषा अपनी विशिष्ट सोद्देश्यता के कारण ही प्रयोजनमूलक नाम की हकदार है। यह भाषा प्रवाहमान सरिता के समान अपना पथ स्वयं ग्रहण करती है और अपनी प्रयोग क्षमताओं का निरन्तर विस्तार और करती चलती है।
इस शब्द का विरोध भी हुआ है। डॉ. रमाप्रसन्न नायक की मान्यता है कि प्रयोजनमूलक भाषा से संकेत मिलता है जैसे कोई निष्प्रयोजन भाषा भी है। डॉ. नायक ने प्रयोजनमूलक के स्थान पर ‘व्यावहारिक’ शब्द को अधिक उचित माना है। पर व्यावहारिक भाषा यही बोध कराती है कि वह भाषा जो दैनिक जीवन में प्रयुक्त होती है। जबकि प्रयोजनमूलक का व्यवहार क्षेत्र सामान्य से भिन्न भी होता है। डॉ. नगेन्द्र ने कहा भाषा के कई रूप हैं- आनन्दमूलक भाषा और प्रयोजनमूलक भाषा। आज हम अपने विशिष्ट प्रयोजनों में जिस भाषा का प्रयोग करते हैं, वही प्रयोजनमूलक’ भाषा है।
यह भाषा हमारे दैनिक व्यवहार उपयोग में नहीं आती यह साहित्यिक भाषा से भी भिन्न होती है। रचनात्मक भाषा में अनुभव और कल्पना का समन्वय होता है जबकि प्रयोजनमूलक भाषा विशिष्ट ज्ञान और अनुभव के साथ प्रयोग में आती है। जन भाषा की कोई पारिभाषित शब्दावली नहीं होती साथ ही उसके मानक रूप में प्रतिसंचेतना भी नहीं होती। प्रयोजनमूलक भाषा का अपना-अलग विधान होता है। इसका प्रयोग विशेष प्रयोजन हेतु किया जाता है अतः उसमें पारिभाषिक शब्दावली का होना अपेक्षित है साथ ही मानक संरचना के प्रति सजग भी रहती है। यहाँ भावुकता एवं कलात्मकता का समावेश नहीं होता। यह हिन्दी पराम्परागत ही है जो परिभाषा की नई भूमिका की ओर इंगित करती है। इसी को व्यावहारिक हिन्दी, प्रशासनिक हिन्दी, तकनीकी हिन्दी तथा जनसंचार की भाषा भी कहा जाता है। इसका उपयोग बढ़ रहा है तो प्रयोजन भी बढ़ता जा रहा है बल्कि व्यवहार, व्यापार, गोष्ठी, बाजार, न्यायालय, कार्यालय, लेखन, चिन्तन, समाचार-पत्र, दूरदर्शन, रेडियो पर यही प्रयुक्त होती है। केन्द्र राज्य पत्र व्यवहार, विधान मण्डल की कार्यवाही, कार्यालयी पत्राचार अधिसूचनार्थ, निविदायें, प्रतिवेदन आयोग, समितियों की कार्यवाहियाँ, सभी अब इसके आधर पर ही होता है। मन्दिर, बैक, डाकघर, रेलवे, बसे, शेयर बाजार सब जगह यह ही प्रयुक्त होती है। संचार क्षेत्र में तो यह आधार ही है। समस्त पत्र पत्रिकायें इसी से चलती है। इस विस्तार के कारण हिन्दी के स्वभाव, शब्द भण्डार और संरचना में भी परिवर्तन आ गया है। नये प्रयोजन सामने आये। नयी पारिभाषिक शब्दावली की आवश्यकता अनुभव हुई उसकी रचना की गयी।
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