भारत : एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र पर निबंध
प्रस्तावना- विश्व के इतिहास में एक समय ऐसा भी था जब मनुष्य के जीवन पर धर्म व धार्मिक अंधविश्वासों का गहरा प्रभाव था। जीवन के हर क्षेत्र में धर्म के नाम पर हस्तक्षेप होता था। केवल व्यक्तिगत जीवन में ही नहीं, अपितु राजनीतिक गतिविधियाँ भी धर्म से प्रभावित थी, अर्थात् हर तरफ धर्म के नाम पर निरंकुश शासकों का आधिपत्य था। जो धर्म राजा का होता था, प्रजा भी उसी धर्म को मानने के लिए बाध्य होती थी। यूरोप में ‘पोप’ की सत्ता थी इसीलिए सभी ‘पोप’ के बताए मार्ग पर चलने को बाध्य थे। उस समय यूरोप में ‘कैथोलिक’ एवं ‘प्रोटेस्टेण्ट’ धर्मावलम्बियों में काँटे का संघर्ष था तथा वे एक दूसरे के धर्म को नष्ट करना चाहते थे। यदि कोई व्यक्ति धर्म के नाम पर अपनी मनमानी करने की कोशिश करता था तो उसे डण्डों से पीटा जाता था इसलिए कोई भी यह साहस नहीं कर पाता था कि राजा के विपरीत धर्म को अपना सकें। फ्रांस एवं स्पेन के राजा ‘कैथोलिक’ थे, तो प्रजा भी कैथेलिक ही थी।
धर्म में राजनीति का प्रवेश- समय सदा एक सा नहीं रहता, वरन बदलता ही रहता है। जो कल था वह आज नहीं है और जो आज है वह कल नहीं होगा। युग परिवर्तन के साथ-साथ धर्म परिवर्तन की पुकार भी सुनाई पड़ने लगी! सदियों से दुखी तथा त्रस्त जनता ने भी चैन की साँस ली। धीरे-धीरे राज्य की शक्ति क्षीण होने लगी तथा राजाओं की निरंकुशता पर भी विराम लगने लगा। शासन की बागडोर जनता के हाथों में आने लगी। धीरे-धीरे धर्म से राजनीति का हस्तक्षेप भी कम होने लगा। जागरुक नागरिकों ने भी इस बात को समझना आरम्भ कर दिया कि धर्म तथा राज्य दो अलग-अलग क्षेत्र हैं। धर्म तो हर मानव की निजी सम्पत्ति होती है। धर्म की भावना तो दिल से पैदा होती है अतः किसी को भी कोई भी धर्म अपनाने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए। यह हर व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह कौन-सा धर्म छोड़ना चाहता है या फिर कौन सा धर्म अपनाना चाहता है।
धर्मनिरपेक्ष का वास्तविक अर्थ- धर्म निरपेक्षता का सिद्धान्त यह कहता है कि धर्म किसी राजा या शासक की सम्पत्ति नहीं है, वरन् व्यक्तिगत् रुचि तथा आस्था पर निर्भर करता है। राज्य का कोई एक धर्म नहीं होना चाहिए अपितु अनेक धर्मों का समावेश होना चाहिए। राज्य को प्रत्येक व्यक्ति तथा धर्मावलम्बी की भावनाओं का आदर करना चाहिए। भारतवर्ष तो प्रारम्भ से ही धर्म के प्रति सहिष्णु एवं उदार रहा है। यहाँ के विद्वानों एवं विचारकों ने सदा ही अपनी आस्था के अनुसार धर्म को अपनाया है तथा दूसरे धर्म को भी तु छ दृष्टि से न देखते हुए उसका आदर किया है। महाप्रतापी सम्राट अशोक स्वयं । एक बौद्ध थे, किन्तु भारत के अन्य धर्मावलम्बियों से भी वे घृणा नहीं अपितु प्रेम ही करते थे। किन्तु यूरोप में धर्म निरपेक्षता के सिद्धान्त को अपनाने कठिनाई हुई थी।
भारतवर्ष में अंग्रेजों का आगमन- भारतवर्ष में अंग्रेजों ने तो जैसे आगमन । ‘फूट डालो, शासन करो’ वाली नीति अपनाकर किया था। सन् 1857 में में बहुत ही हिन्दू मुसलमान दोनों जातियों ने मिलकर अंग्रेजों का पूरे जोश तथा हिम्मत से मुकाबला किया। अंग्रेज भी अचम्भित रह गए और उनके पैर उखड़ने लगे। सन् 1857 के भयंकर विद्रोह को तो अंग्रेजों ने किसी प्रकार दबा दिया, परन्तु उन्होंने यह बात ठान ली कि वे हिन्दू-मुसलमानों को कभी भी एक नहीं होने देंगे। अंग्रेज जानते थे कि हिन्दू-मुस्लिम एकता को भंग करके ही शासन किया जा सकता है तथा इसके लिए उन्होंने धर्म को आधार बनाया। धर्म की दीवार दोनों जातियों के मध्य इतनी मजबूत हो गई कि वह आज तक भी गिर नहीं पाई है। महात्मा गाँधी ने भी दोनों जातियों को मिलाने का भरसक प्रयल किया, परन्तु वे सफल नहीं हो सके। देश के सभी नेताओं ने स्वाधीनता संग्राम किया तथा अंग्रेजों को देश छोड़ने के लिए विवश कर दिया, परन्तु वे जाते-जाते धर्म के नाम पर भारत का विभाजन ‘हिन्दुस्तान’ एवं ‘पाकिस्तान’ के रूप में करा गए।
भारतवर्ष : एक सम्पूर्ण धर्म निरपेक्ष राज्य- 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों की परतन्त्रता के पश्चात् भारतवर्ष ने स्वयं को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य उद्घोषित किया, जिसका अभिप्राय सर्व-धर्म समभाव है। अर्थात् धर्म के आधार पर किसी भी व्यक्ति के साथ कोई पक्षपात या भेदभाव नहीं किया जाएगा। अपने आराध्य की अपने अनुसार पूजा-अर्चना उपासना इत्यादि करने के लिए प्रत्येक धर्म के लोग स्वतन्त्र है, राष्ट्र की ओर से उसमें किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचाई जाएगी। ऐसे धर्म-निरपेक्षतापूर्ण व्यवहार के बल पर ही भारत का स्थान अन्य राष्ट्रों की दृष्टि में बहुत उच्च है। विदेशी कूटनीतिज्ञों ने भारतीय प्रजातन्त्र शासन प्रणाली की मुक्त कंठ से प्रशंसा की जबकि पाकिस्तान के प्रजातन्त्र में उतार-चढ़ाव आते रहते है। पाकिस्तान की इसी धर्म सक्षेपता के कारण बांग्लादेश का निर्माण हुआ। परन्तु हमारा भारतवर्ष आज भी धर्म-निरपेक्षता के नियम का पूरी निष्ठा के साथ पालन कर रहा है अर्थात् हमारे देश में सभी धर्मों के लोग दूस वर्मों का पूरा सम्मान करते हैं।
हमारा इतिहास गवाह है कि हमारे देश में प्रारम्भ से ही धर्म निरपेक्षता का साम्राज्य रहा है। मुगल बादशाह अकबर का सर्व धर्म प्रेम एवं सम्राट अशोक का सर्वधर्म समभाव भारत में धर्म-निरपेक्षता के मजबूत स्तम्भ हैं। हमारे देश में हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी सभी धर्मों के लोगों के बीच परस्पर मैत्री तथा प्रेम भाव है। धर्म-निरपेक्षता को न तो अधार्मिकता कहा जा सकता है, न ही धर्म के प्रति उदासीनता, बस यह तो सभी धर्मों के प्रति आदर की भावना दर्शाता है। किन्तु कुछ संकीर्ण विचारों के व्यक्ति अपने निहित स्वार्थों के लिए धर्म का दुरुपयोग कर रहे हैं तथा ‘साम्प्रदायिकता’ फैला रहे हैं। जिसके कारण लोगों के बीच मनमुटाव फैल रहा है।
उपसंहार- पारस्परिक द्वेष, कलह, ईर्ष्या बैर-भाव इत्यादि को केवल धर्म-निरपेक्षता के सिद्धान्त पर चलकर ही समाप्त किया जा सकता है। धर्म-निरपेक्षता के अभाव में कोई भी प्रजातान्त्रिक राष्ट्र सफलतापूर्वक कार्य नहीं कर सकता इसीलिए 26 जनवरी 1950 से कार्यान्वित किए गए भारतीय संविधान में धर्म-निरपेक्षता के सिद्धान्त को अपनाया गया है तथा इसका पूरी निष्ठा एवं आस्था से पालन भी किया जा रहा है।
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