आरक्षण-नीति पर निबंध
प्रस्तावना- हमारे देश भारतवर्ष में प्राचीन काल से ही जाति प्रथा प्रचलित रही है। उच्च वर्गीय लोग निम्नवर्गीय लोगों को तुच्छ दृष्टि से देखते हैं साथ ही उनका शोषण भी करते हैं। यह स्थिति भारत जैसे देश में और भी कष्टदायक हो जाती है क्योंकि यहाँ अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की संख्या देश की कुल जनसंख्या का लगभग 24 प्रतिशत है। इन जातियों के लोग पिछड़े हुए होने के साथ-साथ आर्थिक दृष्टि से भी कमजोर हैं। इन जातियों के उत्थान हेतू महात्मा गाँधी जैसे महान पुरुषों ने अनेक कार्य किए। स्वतन्त्र भारत के संविधान में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के हितों की रक्षा व उत्थान के लिए सीटों का प्रावधान है। संविधान की धारा 330 में लोकसभा में इनके लिए आरक्षण का प्रावधान है, साथ ही राज्यों एवं संघ शासित प्रदेशों में भी कुछ सीटे सुरक्षित हैं । संविधान की धारा 335 और 16 (4) के अनुसार सरकार अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियों में पर्याप्त आरक्षण कर सकेगी बशर्ते उनकी नियुक्तियों से प्रशासन की कुशलता पर कोई दुष्प्रभाव न पड़े।
आरक्षण का अर्थ- ‘आरक्षण’ का अर्थ है कोई वस्तु, स्थान या सुख-सुविधा किसी विशेष व्यक्ति, वर्ग या समूह के लिए सुनिश्चित कर देना। भारत के संविधान में इसका अर्थ है-अपने या अन्य के लिए कोई स्थान सुरक्षित करना या कराना । जो लोग सदियों से दलित, पीड़ित या उपेक्षित जीवन व्यतीत कर रहे हैं, समाज के विभिन्न क्षेत्रों में उनके लिए स्थान सुरक्षित रखकर उन्हें प्रगतिके पथ पर अग्रसर करना। परन्तु आज नेता लोग अपने स्वार्थ के लिए पिछड़े व दलितों के नाम पर खेल खेलकर सत्ता की कुर्सी हथियाना चाहते हैं।
आरक्षण का पूर्व इतिहास- 11 नवम्बर, 1930 को लन्दन में प्रथम ‘गोलमेज सम्मेलन‘ हुआ था, जिसमें ब्रिटिश सरकार ने ‘अछूतों’ को अलग वर्ग मानकर उनके प्रतिनिधि के रूप में डॉ. भीमराव अम्बेडकर को भी अन्य वर्गों के प्रतिनिधियों के साथ आमन्त्रित किया था। गोलमेज सम्मेलन में डॉ. अम्बेडकर ने शोषित वर्ग की जनसंख्या के अनुसार ही अपना प्रतिनिधित्व भी माँगा था। उनकी यही माँग आरक्षण की नींव बनी। अगस्त 1932 में अंग्रेजों ने ‘कम्युनल अवॉर्ड’ घोषित किया जिसमें अछूतों को पर्याप्त राजनीतिक अधिकार दिए गए। उसी में अछूतों के लिए अलग निर्वाचन-मण्डल की बात उठी, जिसे महात्मा गाँधी ने अस्वीकार कर दिया। बाद में पूना जेल में 24 सितम्बर 1932 को गाँधी जी एवं डॉ. अम्बेडकर के मध्य एक समझौता हुआ, जो ‘पूना एक्ट’ कहलाया।
स्वतन्त्रता के पश्चात् आरक्षण- अगस्त 1947 में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् ‘पूना एक्ट’ को संविधान में सवैधानिक गारंटी देने की बात उठी। तत्पश्चात् आरक्षण के निर्धारण सम्बन्धी काका कालेलकर आयोग 29 जून, 1953 को गठित किया गया। जिसने अपना प्रतिवेदन 30 मार्च, 1955 को प्रस्तुत किया, किन्तु तत्कालीन सरकार ने न तो उसे संसद में प्रस्तुत किया तथा न ही कोई प्रभावी कार्यवाही ही की। 1978 में वी.पी. मण्डल की अध्यक्षता में दूसरा आयोग गठित किया गया जिसने 31 दिसम्बर 1980 को राष्ट्रपति को अपना प्रतिवेदन दे दिया, किन्तु उसकी भी कालेलकर आयोग के प्रतिवेदन जैसी ही दुर्दशा हुई। अलग-अलग समुदाय को अब तक कितना आरक्षण मिला है इस सम्बन्ध में निष्पक्ष विवरण प्रकाशित ही नहीं किया जाता है। नौवे आम चुनाव को दृष्टि में रखकर 12 मई, 1989 को घोषणा की गई कि तीन महीनों में रिक्त पदों पर केवल आरक्षित श्रेणियों के प्रत्याशी ही लेकर विगत चालीस वर्षों की कमी पूरी की जाएगी। इस अभियान के अन्तर्गत केन्द्र सरकार, सभी दलों की राज्य सरकारों एवं अन्य प्रतिष्ठानों में देश भर में आरक्षित श्रेणी के हजारों व्यक्तियों को नौकरी दी गई। फलस्वरूप देश में रहने वाली अन्य जातियों को अपना भविष्य अन्धकारमय लगने लगा तथा आरक्षण का विरोध होने लगा।
वर्तमान ‘आरक्षण नीति’ का विरोध- सर्वप्रथम समय पाकर तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री. वी.पी. सिंह ने कुर्सी पर अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखने के लिए ‘मंडल आयोग’ को लागू करने का प्रयत्न किया। परिणामस्वरूप इसके विरोध में जो मारी-मारी, तोड़-फोड़, आगजनी, आत्महत्याएँ आदि हुई वे भुलाई नहीं जा सकती। इन आन्दोलनों में बिहार, उत्तर प्रदेश, गुजरात तथा मध्य प्रदेश आदि राज्य विशेष रूप से प्रभावित हुए हैं। विरोधी पक्ष आरक्षण के विरोध में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत करते हैं-
(1) जातिगत आधार पर आरक्षण करने से जातिवाद और अधिक सुदृढ़ होगा, जो देश के उत्थान में सबसे बड़ी बाधा है।
(2) जातिगत आधार पर आरक्षण होने से अयोग्य व्यक्ति भी ऊँचे पदों पर आसीन हो जाते हैं, जिससे कार्यप्रणाली अयोग्य हाथों में चली जाती है तथा प्रशसनिक सेवाओं का स्तर गिर जाता है।
(3) जातिगत आरक्षण में केवल कुछ चतुर व्यक्ति ही लाभान्वित हो पाते हैं, शेष तो वंचित ही रह जाते हैं। इस प्रकार के आरक्षण से कर्महीनता आती बन जाते हैं। है, जन्म का महत्त्व स्थापित होता है तथा इस प्रकार जातिप्रथा कभी भी समाप्त नहीं हो पाएगी।
(4) जातिगत आरक्षण से सवर्ण जातियों के अधिक योग्य युवक भी नौकरी से वंचित रह जाते हैं जिससे उनमें कुंठा पैदा होती है तथा कुंठित नवयुवक समाज-विरोधी गतिविधियों जैसे हिंसा, बलात्कार, लूटपाट, हत्या आदि के हिस्से बन जाते हैं।
(5) आरक्षण के कारण आरक्षितों में अहंकार बढ़ा है जो सामाजिक व मानसिक अपंगता का परिचायक है।
(6) पिछड़ापन कभी जातिगत नहीं होता, वह तो व्यक्तिगत एवं पारिवारिक होता है, जो सवर्ण व निम्न सभी जातियों में मिल जाता है अतः आरक्षण का आधार ‘जाति’ नहीं अपितु ‘आर्थिक’ होना अधिक न्यायसंगत है।
वर्तमान समय में आरक्षण- आजकल तो ‘आरक्षण’ शब्द इतना व्यापक हो चुका है कि सभी लोग चाहे वे मुसलमान हो, सिख या ईसाई, नारी-पुरुष सभी अपना अलग-अलग आरक्षण चाहते हैं। आज आरक्षण के नाम पर सभी जातियों में इतनी रस्साकसी हो रही है कि सभी प्रदेश अलग-अलग आरक्षण की माँग करने लगे हैं। मराठी, बंगाली, गुर्जर सभी आरक्षण चाहते हैं यह देखकर तो ऐसा लगता है कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब सभी किसी-न-किसी वर्ग में आरक्षित होंगे।
उपसंहार- प्रत्येक समस्या की भाँति इस समस्या का एक समाधान यह है कि ‘आरक्षण’ शब्द के स्थान पर ‘भारतीय’ शब्द रखकर सबको एक छत के नीचे खड़ा कर दिया जाए तथा सभी योग्यता के आधार पर आगे आए। यदि दलितों को सुविधा देनी ही है, तो उनकी पढ़ाई में मदद करनी चाहिए। ऐसा होने पर ही हमारे देश का कल्याण सम्भव है। इसके अतिरिक्त सरकार को ऐसी योजनाएँ बनानी चाहिए कि प्रत्येक प्रतिशाली छात्र उच्च शिक्षा प्राप्त कर अच्छी नौकरी या व्यवसाय कर सके।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि ‘आरक्षण’ शब्द का प्रयोग सूझ-बूझ के साथ किया जाना चाहिए ताकि व्यक्तिगत तथा राष्ट्रीय दोनों स्तर पर हमारा देश प्रगति कर सके।
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