भाईचारे का पर्व : ईद
प्रस्तावना- ईद इस्लाम धर्म का पवित्र पर्व है। मुसलमानों के लिए प्रत्येक ईद का विशेष महत्त्व होता है। ईद एकता, प्रेम और भाईचारे का त्योहार है। सभी मुसलमान ‘ईद’ को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। भाईचारे के इस उत्सव की शुरुआत अरब से हुई बताई जाती है लेकिन ‘तुजके जहाँगीरी’ में लिखा गया है कि इस त्योहार को लेकर जो जोश, खुशी एवं उमंग भारतीयों में पाई जाती है, वह कंधार, बुखारा, खुरासान तथा बगदाद जैसे शहरों में नहीं पाई जाती, जबकि इन स्थानों पर इस्लाम का जन्म भारत से पहले हुआ था। ‘ईद का चाँद’ जैसे प्रचलित मुहावरे का सम्बन्ध ‘ईद’ नामक त्योहार से ही है क्योंकि ईद की गणना, आगमन एवं इसका मनाया जाना चन्द्रमा के उदय होने पर ही निर्भर करता है। ईद का त्योहार प्रसन्नता, सुन्दरता एवं पारस्परिक प्रेम का द्योतक है।
ईद-कुरान शरीफ की वर्षगाँठ- इस्लाम धर्म के प्रवर्तक मोहम्मद साहब का जन्म 570 ई. में अरब देश में हुआ था। आपके माता-पिता का आपकी बाल्यावस्था में ही देहावसान हो गया था इसीलिए आपके चचाजान अबू तालिन ने आपका लालन-पालन किया था। आपका निकाह बेगम खरीजा से हुआ तथा 40 वर्ष की आयु में ही आपने लौकिक आकर्षणों का परित्याग कर नबूवत प्राप्त कर ली। मोहम्मद साहब ने मुसलमानों को प्रेम तथा त्याग का पाठ पढ़ाया तथा उनका उचित मार्गदर्शन किया। ‘कुरान’ इस्लाम धर्म का पवित्र ग्रन्थ है। ईद का सम्बन्ध इस्लाम धर्म के पवित्र ग्रन्थ कुरान की उत्पत्ति से सम्बन्धित है। इस्लाम धर्म के मानने वाले ईद के इस पावन पर्व को कुरान शरीफ की वर्षगाँठ के रूप में भी मनाते हैं।
ईद के विभिन्न प्रकार- ईद का पवित्र पर्व एक वर्ष में दो बार आता है। एक को ‘ईद-उल-फितर’ अर्थात्, ‘मीठी ईद’ कहते हैं तो दूसरी को ‘ईद-उल-जुहा’ या ‘बकरीद’ कहते हैं। ‘ईद-उल-फितर’ से पूर्व रमजान का महीना आता है। इस पूरे माह मुसलमान दिन के समय ‘रोजा’ (उपवास) रखकर अपना सारा समय खुदा की इबादत (आराधना) में व्यतीत करते हैं तथा किसी भी अनैतिक कार्य को करने से बचते हैं। शाम के समय नमाज अदा कर रोज़ा खोलते हैं। इस प्रकार वे पूरे महीने यही प्रक्रिया दोहराते हैं। इस समय मुसलमान अधिक-से-अधिक दान-दक्षिणा देते हैं, गरीबों को भोजन कराते हैं तथा लाचारों की सेवा करते हैं क्योंकि ऐसा करने से उन्हें ‘जन्नत’ नसीब होती है। जिस विशेष रात को ‘ईद का चाँद’ दिखाई देता है, उसके अगले दिन ‘ईद’ मनाई जाती है। ‘ईद-उल-फितर’ के दिन घर-घर में तरह-तरह की मीठी सेवईयाँ पकती हैं तथा मित्रों एवं सम्बन्धियों में बाँटी जाती हैं।
मीठी ईद के दो महीने तथा नौ दिन बाद चाँद की दस तारीख को ‘ईद-उल-जुहा’ या ‘बकरीद’ मनाई जाती है। यह एक मांसाहारी ईद है क्योंकि इस दिन बकरे काटे जाते हैं तथा उनका गोश्त मित्रों तथा सम्बन्धियों में वितरित किया जाता है। इस दिन का अपना विशेष महत्त्व है। यह दिन कुर्बानी का दिन कहलाता है। परम्परा के अनुसार इब्राहीम नामक एक महान पैगम्बर थे। अल्लाह के दूत के आदेश पर वे अपने प्यारे बेटे की कुर्बानी देने के लिए गए। कुर्बानी देते समय इब्राहीम ने अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर ज्यों ही चाकू चलाया कि बीच में ही उनका प्रिय बकरा आ गया और इब्राहीम के बेटे के स्थान पर बकरे की बलि चढ़ गई। उसी दिन से यह प्रथा बन गई। कुर्बानी करने के भी कुछ नियम कायदे हैं जैसे कि उस बकरे की कुर्बानी नहीं दी जा सकती जो अपंग, बीमार या दुर्बल हो। कुर्बानी तो उसी बकरे की दी जानी चाहिए जिसे आपने बड़े प्यार से पाल-पोसकर बड़ा किया हो। इस दिन भी प्रातः मस्जिदों में नमाज अदा कर मुस्लिम एक दूसरे के गले मिलकर ईद की मुबारकबाद देते हैं।
ईद मनाने की विधि- ईद के दिन सभी सरकारी व निजी विद्यालय, ऑफिस, दुकाने आदि बन्द रहते हैं। ईद पर जगह-जगह मेलों का आयोजन होता है। प्रातःकाल होते ही स्त्री पुरुष, बच्चे बूढ़े सभी नए-नए वस्त्र धारण कर ईदगाह में जाकर नमाज अदा करते हैं। ईद के दिन हर मुसलमान के घर में तरह-तरह के पकवान बनते हैं तथा घर में मेहमानों का आवागमन चलता रहता है। इस शुभ अवसर पर बड़े-बूढ़े बच्चों को ‘ईदी’ देते हैं। सभी आपस में एक दूसरे को ईद की मुबारकबाद, मिठाईयाँ तथा उपहार आदि भी देते हैं।
उपसंहार- ईद का दिन सामाजिक महत्त्व का दिन है। यह पर्व समग्र मुस्लिम समुदाय में नवजीवन का संचार करता है। यह आज के संघर्षमय जीवन में नवीनता, सरसता तथा उमंग का संचार करता है। यह त्योहार हमें प्रसन्नता, समानता, भाई चारे तथा निःस्वार्थ प्रेम का सन्देश देकर जाता है, इसीलिए प्रत्येक मुस्लिम इन ईदों को पूरे जोश एवं उमंग से मनाता है।
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