रंगों का त्योहार : होली
प्रस्तावना- रंगों का त्योहार होली हँसी-खुशी, नाचने-गाने, व्यंग्य विनोद करने तथा एक दूसरे से गले मिलकर गिले-शिकवे दूर करने का दिवस है। यह जीवन से सभी दुखों, निराशाओं, चिन्ताओं, कष्टों, रोगों तथा पीड़ाओं को दूर भगाकार आनन्द के सागर में डुबो देने वाला त्योहार है। यह धार्मिक एवं सामाजिक महत्त्व का त्योहार है। यह त्योहार सर्दी के गमन तथा गर्मी के आगमन का प्रतीक है। यह प्रकृति में वसन्त के यौवन का चिह्न है। यह त्योहार पृथ्वी पर हरियाली, फूलों की खूशबू तथा सुगन्धि का परिचायक है।
ऋतु पूर्व होली मनाने की तिथि- होली वसन्त-ऋतु का पर्व है। यह पर्व वसन्त-ऋतु के आरम्भ में फागुन मास की पूर्णिमा को पूरे भारतवर्ष में पूर्ण हर्षोल्लास से मनाया जाता है। पूर्णिमा को होली-पूजा तथा होलिका दहन होता है तथा उसके दूसरे दिन रंग (फाग) खेला जाता है, जिसे ‘दुल्हण्डी’ भी कहते हैं। वसन्त ऋतु के आने पर हर ओर हरियाली हो जाती है। वृक्ष नए पत्ते धारण कर लेते हैं तथा बगीचों में रंग-बिरंगे फूलों की छटा दर्शनीय होती है। इस समय तक फसल पककर तैयार हो जाती है। इस नवान्न को देवता को समर्पित करने के लिए ‘नवान्नोष्टि’ का विधान है। किसान अपनी पकी हुए फसल देखकर फूले नहीं समाते। इसीलिए कृषि प्रधान देश भारतवर्ष में होली प्रसन्नता का प्रतीक पर्व माना जाता है।
सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व का पर्व- होली का त्योहार अपने साथ सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व भी लेकर आता है। प्राचीन समय में इस दिन यज्ञ में कच्चे धान व अनाज की आहुति डालकर उसे खाना आरम्भ करते थे। संस्कृत में भुने हुए अन्न को ‘होलक’ तथा हिन्दी में ‘होली’ कहते हैं। इसी आधार पर इस पर्व का नाम ‘होली’ पड़ा। इसी दिन लोग आग को प्रथम अन्न की आहुति देकर अन्न का प्रसाद एक दूसरे को बाँटते हैं तथा खुशी से गले मिलते हैं।
इस त्योहार से सम्बन्धित अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकश्यप नामक एक कपटी, अत्याचारी, दुराचारी तथा निरंकुश शासक था। सारी प्रजा उससे भयभीत रहती थी। वह स्वयं को ही भगवान मानता था। उसका पुत्र प्रहलाद इश्वर का परम भक्त था तथा वह दिन रात ईश्वर भक्ति में मग्न रहता था। हिरण्यकश्यप से यह सब सहन नहीं हुआ। हिरण्यकश्यप ने अपने पुत्र प्रहलाद को अपना परम विरोधी मानकर उसे अनेक प्रकार की यातनाएँ दिलवाई। जब उन यातनाओं के बावजूद भी प्रहलाद अपनी भक्ति से विचलित नहीं हुआ तब उसने अपनी बहन होलिका को यह आदेश दिया कि वह प्रहलाद को लेकर आग में बैठ जाए जिससे वह जलकर भस्म हो जाए। होलिका को यह वरदान प्राप्त था कि आग भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी। इस प्रकार होलिका प्रहलाद को लेकर आग में बैठ गयी, लेकिन प्रहलाद की सच्ची भक्ति ने उसे बचा लिया तथा होलिका उसी अग्नि में जलकर भस्म हो गई। होलिका के बुरे कर्मों और प्रहलाद की अटल भक्ति भावना की याद में फाल्गुन पूर्णिमा की रात को होलिका दहन किया जाता है।
होलिका के साथ मदन-दहन का प्रसंग भी जुड़ा हुआ है। ऐसा माना जाता है कि भगवान शंकर जी की समाधि भंग करने का प्रयत्न करने वाले कामदेव (मदन) को उन्होंने अपने तीसरे नेत्र से भस्म कर दिया था। तभी यह महादेव द्वारा ‘मदन-दहन’ का ‘स्मृति-पर्व’ के रूप में भी मनाया जाता है। इसके अतिरिक्त भगवान श्रीकृष्ण द्वारा पूतना वध की घटना का भी इससे सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। इसी कारण भगवान कृष्ण की रास-लीलाओं में होली खेलने का विशेष महत्त्व है। इस शुभ अवसर पर जैन सम्प्रदायी आठ दिन तक सिद्ध चक्र की पूजा अर्चना करते हैं जिसे ‘अष्टाहिका पर्व’ कहते हैं। इन सभी घटनाओं के कारण ही होली एक राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक महत्त्व का पर्व है।
होली तथा फाग मनाने की विधि- होली का पर्व अमीर-गरीब, शिक्षित-अशिक्षित सभी लोग पूर्ण हर्षोल्लास से मनाते हैं। इस त्योहार में बच्चे, युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरुष सभी एक दूसरे पर रंग गुलाल मलते हैं, रंग भरी पानी पिचकारियों में भरकर डालते हैं तथा गुब्बारों में रंग भरा पानी भरकर एक दूसरे के ऊपर फोड़ते । कुछ लोग इनसे बचना भी चाहते हैं तो कई लोग बुरा भी मान जाते हैं तब लोग बड़े प्यार से कह देते हैं “बुरा न मानो होली है।” जब गलियों में चौराहों पर रंगे हुए लोगों की टोलियाँ नाचती गाती नारे लगाती गुजरती हैं तो
तथा चेहरे इन्द्रधनुषी रंगों में रंगे होते हैं तथा सभी एक जैसे प्रतीत होते हैं। इससे पूर्व पूर्णिमा की रात को लोग अपने मुहल्लों एवं चौराहों पर होली जलाते हैं। उसमें गेहूँ, जौ आदि की बालें भूनकर खाते हैं। श्री नरेन्द्र ने होली का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है-
“बज रहे कहीं ढप ढोल, झाँझ, पर बहुत दूर,
गा रही संग मदमस्त मंजिरो की टोली।
कल काम धाम करना सबको पर नींद कहाँ?
है एक वर्ष में एक बार आती होली।”
होली का त्योहार तो मुगलशासन काल में भी अपना एक अलग महत्त्व रखता था। जहाँगीर ने अपने रोजनामचे तुजुक-ए-जहाँगीरी से कहा है कि यह त्योहार हिन्दुओं में संवत्सर के अन्त में आता है। इस दिन लोग आग जलाते हैं, जिसे होली कहते हैं। अगली सुबह होली की राख एक दूसरे पर फेंकते तथा मलते हैं। अल बरुनी ने अपने यात्रा वृत्तान्त में होली का सम्मानपूर्वक उल्लेख किया है। ग्यारहवीं सदी के प्रारम्भ में जितना वह देख सका, उस आधार पर उसने बताया कि होली पर विशेष पकवान बनाए जाते हैं इसके बाद वे पकवान ब्राह्मणों को देने के पश्चात् आपस में आदान-प्रदान किये जाते हैं। बहादुर शाह ज़फर ने अपनी एक रचना में होली का वर्णन इस प्रकार किया है-
“क्यो मोपे रंग की डारे पिचकारी
देखो सजन जी दूँगी मैं गारी
भाग स. मैं कैसे मोसो भागा नहिं जात
ठाड़ी अब देखू और तो सनमुख गात ॥”
इसके पश्चात् ब्रजवासियों की होली तो जग-प्रसिद्ध है। वहाँ तो आज भी लोग कीचड़, कोड़ो आदि से होली खेलते हैं। कविवर ‘पद्माकर’ की इन पंक्तियों में ऐसी ही स्थिति का चित्रांकन किसी गोपिका द्वारा श्रीकृष्ण से होली खेलने के प्रसंग में किया गया है-
“फाग के भीर अहीरन में, गई गाविन्द ले गई भीतर गोरी।
छाई करी मन की ‘पद्माकर’ अपर नाई अबीर की झोरी।
छीनी पितम्बर कम्मर, सु विदाकरी भी कपोलन रोरी।
नैन बचाइ कहौ मुसकाई, लला फिर आइयो खेलन होरी॥”
वर्तमान समय में होली का स्वरूप-आज तो प्रदर्शन का युग है, जीवन के सभी क्षेत्रों में कृत्रिनता की प्रधानता विद्यमान है। आज हम होली के वास्तविक को भूल रहे हैं तथा इसे एक दिखावे के रूप में मनाने लगे हैं। धनी लोग नए-नए प्रकार के रासायनिक रंगों का प्रयोग करते हैं, जो महँगे भी होते हैं, साथ ही त्वचा तथा आँखों के लिए हानिकारक भी होते हैं। दिल्ली, मुम्बई जैसे महानगरों में लोग ऊँची-ऊँची इमारतों की छतों पर से गुब्बारे फेंकते हैं जो बहुत चोट पहुंचाते हैं। अनेक लोग चोरी भी करते हैं तथा शराब पीकर स्त्रियों से साथ भद्दा व्यवहार भी करते हैं। यह होली का अत्यन्त विकृत रूप है।
उपसंहार- होली तो एक दूसरे से गले मिलकर मुबारकबाद देने तथा गुलाल लगाकर मुँह मीठा कराने का पर्व है। होली को उसके पवित्र तथा सहज रूप में मनाया जाना चाहिए। यह पर्व सुप्त प्रायः जीवन में नव-चेतना तथा जागृति का सन्देशवाहक है। इस दिन तो लोग पुराने बैर-भाव भुलाकर मित्र बन जाते हैं इसलिए होली को ‘उत्सवों की रानी’ कहना अनुचित न होगा।
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