लोकतांत्रिक व्यवस्था – का न्याय प्रणाली में अंतर्निहित होता है जिसमें विधि के शासन को सुनिश्चित, सुरक्षित और कायम रखने का भार न्यायपालिका पर रहता है।प्रशासनिक प्राधिकारियों को नियंत्रण में रखने के लिए किसी न किसी रूप में न्यायिक शक्ति का होना आवश्यक है, अन्यथा इस बात का खतरा रहता है कि कहीं उनका अपकर्ष निरंकुश निकायों के रूप में न हो जाये और ऐसा होना लोकतांत्रिक विकास तथा संविधान और विधि के शासन के लिए हानिकर होगा। अत: अधिकारियों और प्रशासनिक निकायों के कार्यों में देश की विधिक व्यवस्था में अन्तर्निहित मूलभूत मूल्यों का समंजस्य बैठाना न्यायालयों का कृत्य है क्योंकि ये प्राधिकारी इन विधिक मूल्यों की उपेक्षा भी कर सकते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में न्यायालयों के पास प्रशासनिक कार्यों को नियंत्रित करने के लिये भरपूर शक्तियाँ हैं जिनसे लोगों के अधिकारों की रक्षा की जा सकती हैं।
न्यायिक पुनर्विलोकन में अन्तनिर्हित सीमाओं के होते हुए भी हमारे यहाँ न्यायालयों ने पूर्व दशकों के दौरान इस चुनौती का सामना बहुत अच्छी तरह से किया है। प्रशासन और उसके कार्यों को नियन्त्रण में रखने तथा लोगों के अधिकारों की प्रशासनिक ज्यादतियों से रक्षा करने के लिए सामान्य न्यायिक तकनीकें-रिट, अपील, न्यायालयों का निर्देश, व्यादेश, घोषणा, प्रशासन और सिविल सेवकों के अपकृत्य और संविदा भंग हेतु नुकसानी आदि हैं।
अधिकार एवं उपचार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और उनको एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है। यही कारण है कि जब कोई व्यक्ति प्रशासकीय प्राधिकारी के अवैध कृत्य से पीड़ित होता है तो उसको कुछ उपचार उपलब्ध होते हैं, इन्हें ही रिट या लेख अथवा उपचार कहा जाता है और इनको सामान्यतः न्यायपालिका द्वारा जारी किया जाता है। रिट उच्चतम न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 32 के अधीन और उच्च न्यायलायों द्वारा अनुच्छेद 226 के अधीन निकाली जाती है। उच्च न्यायालयों को अधिकरणों पर पर्यवेक्षण करने की शक्ति अनुच्छेद 227 के अधीन प्रदत्त की गई है जो उनके क्षेत्रीय अधिकारिता में आते हैं। अधिकरणों के विनिश्चय से उच्चतम न्यायालय को अपील करने का उपबन्ध अनुच्छेद 136 के अधीन किया गया है। अनेक कानूनों के अन्तर्गत प्रशासनिक निकायों को न्यायालयों से विधि के प्रश्नों पर राय प्राप्त करने के लिए सशक्त किया गया है। व्यादेश और घोषणा प्रदान करने की शक्ति न्यायालयों को विनिर्दष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 के अधीन प्रदान की गई है।
इस प्रकार अनेकानेक तकनीकों का प्रयोग न्यायालयों द्वारा किया जाता है, किन्तु इनमें प्रशासनिक कृत्य को नियन्त्रित करने के लिए सर्वोत्कृष्ट पद्धति रिट प्रणाली है, जो सार्थक सिद्ध हुई तथा न्यायिक पुनर्विलोकन के अन्य सभी तरीकों के ऊपर छा गई है क्योंकि जनता को इसी ने सर्वाधिक लाभ पहुँचाया और लोगों के अधिकारों को संरक्षण दिया है। संविधान सभा में डा० भीमराव अम्बेडकर ने कहा था, “यदि मुझसे यह पूछा जाये कि संविधान में कौन-सा अनुच्छेद सबसे महत्वपूर्ण है जिसके बिना यह संविधान शून्य हो जायेगा तो मैं इस अनुच्छेद 32 के सिवाय किसी दूसरे का नाम नहीं लूंगा। यह संविधान की आत्मा है।”
भारतीय संविधान के भाग 3 के अन्तर्गत भारतीय नागरिकों को प्राप्त मूल अधिकारों का वर्णन किया गया है। परन्तु मूल अधिकारों का उल्लेख करना ही पर्याप्त नहीं होता जब तक कि उनके विधि अनुसार प्रवर्तन हेतु व्यवस्था न की गई हो। अत: भारतीय संविधान के अन्तर्गत संविधानिक उपचारों का वर्णन किया गया है जिनके अधीन इन संविधानिक उपचारों का उल्लंघन होने पर पीड़ित पक्षकार संविधानिक उपचारों का प्रयोग करके राहत महसूस कर सकता है। यही अनुच्छेद 32 का मुख्य उद्देश्य है। इन संविधानिक उपचारों की व्यवस्था सामान्यतया उच्चतम न्यायालय करता है अतः यह कहा जा सकता है-उच्चतम न्यायालय मूल अधिकारों का सजग प्रहरी है।
अनुच्छेद 32 निम्न चार प्रकार की व्यवस्थायें करता है-
(1) समावेदन करने का अधिकार-
प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार है कि वह अपने मूल अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए उच्चतम न्यायालय में आवेदन करे और जब ऐसा कोई समावेदन किया जाता है तो उसे स्वीकार करना उच्चतम न्यायालय का कर्त्तव्य हो जाता हैं।
प्रारम्भ में ऐसा समावेदन केवल पीड़ित पक्ष ही कर सकता था परन्तु आधुनिक समय में “लोक हित वाद” के अन्तर्गत कोई भी व्यक्ति समावेदन दे सकता है। अब यह भी आवश्यक नहीं है कि किसी निश्चित रीति से ही ऐसा समावेदन किया जाये। आधुनिक समय में दीन-हीन दुखियों के कष्टों को दूर करने हेतु अनेकों बार पोस्टकार्ड और समाचार पत्रों को भी रिट मानकर समुचित कार्यवाही की है।
सुनील बाला बनाम दिल्ली प्रशासन (1980, SC) के मामले में एक आजीवन कारावास का दण्ड भुगत रहे कैदी के साथ जेल-रक्षक द्वारा क्रूर एवं अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध एक-दूसरे कैदी ने पत्र द्वारा न्यायालय को इस अमानवीय घटना की सूचना भेजी । न्यायालय ने इस पत्र को बन्दी प्रत्यक्षीकरण रिट मानकर जेल अधिकारियों को निर्देश जारी किया कि कैदी के साथ अमानवीय व्यवहार न किया जाये और अपराधी व्यक्ति को दण्ड देने की उचित कार्यवाही की जाये।
(2) उच्चतम न्यायालय का निर्देश, आदेश एवं रिट जारी करने का अधिकार-
“उच्चतम न्यायालय मूल अधिकारों का सजग प्रहरी है।” वह निर्देश, आदेश एवं रिट के माध्यम से व्यथित व्यक्तियों को अनुतोष प्रदान करता है। इस प्रकार यह निर्देश, आदेश एवं रिट मूल अधिकारों के लिए एक ढाल का काम करते हैं। मूल अधिकारों के संरक्षण के लिए इस ढाल का प्रयोग करना उच्चतम न्यायालय का कर्त्तव्य है।
उच्चतप या उच्च न्यायालय- सोपान श्रृंखला में सर्वोच्च न्यायालय का स्थान उच्च न्यायालय से ऊपर । ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि क्या मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन हेतु सर्वोच्च न्यायालय में जाने से पूर्व उच्च न्यायालय में जाना आवश्यक है। इसका उत्तर नकारात्मक है। मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन हेतु नागरिक कहीं भी याचिका दायर कर सकता है चाहे वह सर्वोच्च न्यायालय हो अथवा उच्च न्यायालय। लेकिन यह सत्य है कि उच्च न्यायालय की रिट अधिकारिता क्षेत्र सर्वोच्च न्यायालय से व्यापक है। सर्वोच्च न्यायालय जहाँ केवल मूल अधिकारों के प्रवर्तन हेतु ही रिट जारी कर सकता है वहीं उच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों के साथ-साथ अन्य उद्देश्यों के लिये भी रिट अथवा लेख जारी कर सकता है।
(3) अन्य न्यायालयों की तत्सम अधिकारिता-
अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए रिट जारी करने की अधिकारिता यद्यपि केवल उच्चतम न्यायालय को है परन्तु संसद विधि बनाकर उच्चतम न्यायालय की शक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना यह अधिकारिता किसी अन्य न्यायालय को भी दे सकती है। यहाँ अन्य न्यायालय से अभिप्राय उच्च न्यायालयों से भिन्न न्यायालयों से है क्योंकि उच्च न्यायालयों को यह अधिकारिता अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत पहले से ही प्राप्त है।
(4) अधिकार का निलम्बन-
अनुच्छेद 32 के खण्ड (4) द्वारा यह उपबन्धित किया गया है कि अनुच्छेद 32 द्वारा प्रदत्त उपचार, संविधान द्वारा अन्यथा उपबन्धित किये जाने के सिवाय, निलम्बित न किया जायेगा। संविधान में एक ही ऐसी परिस्थिति है जबकि इन अधिकारों, उपचारों का निलम्बन हो जाता है, जबकि अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत आपात उद्घोषणा की जाती है। ऐसा निलम्बन केवल उस अवधि तक ही सीमित रहता है जब तक कि ऐसी उद्घोषणा चलन में रहती है।
विलम्ब का प्रभाव- यह एक सुस्थापित धारणा है कि विधि और न्यायालय जागरूक Or को सहायता करते हैं, आलसियों एवं उदासीनों को नहीं। यदि कोई व्यक्ति अपने अधिकरों के प्रति सचेत नहीं है और वह लम्बे समय तक उदासीन रहकर सोये रहता है तो वह न्यायालय से किसी प्रकार का अनुतोष प्राप्त करने का पात्र नहीं रह जाता है। यही कारण है कि न्यायालयों में जाने के लिए परिसीमा विधि का निर्माण किया गया है।
परन्तु विद्वानों एवं न्यायाधिपतियों के विचारों के अनुसार परिसीमा अधिनियम के अधीन 90 दिन की अवधि का नियम अनुच्छेद 32 के अधीन उपचार पाने के मामले में लागू नहीं होता है। अनुच्छेद 32 के अधीन केवल एक ही शर्त है कि उपचार युक्ति-युक्त समय के भीतर माँगा जाये।
किसके विरुद्ध जारी होगा-सामान्यतया रिट राज्य, कानूनी निकाय एवं लोक कर्त्तव्य करने वाले व्यक्तियों के विरुद्ध ही जारी होगा। यद्यपि निजी व्यक्ति सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालयों की रिट अधिकारिता से उन्मुक्त नहीं है परन्तु उनको रिट आपवादिक परिस्थितियों में ही निर्गत होंगे।
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