संवैधानिक विधि/constitutional law

बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका की प्रकृति | Nature of Habeas Corpus

बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका की प्रकृति

बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका की प्रकृति

बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका की प्रकृति एवं विस्तार का वर्णन कीजिए। Discuss the nature and scope of Writ of Habeas Corpus

बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus) –

बन्दी प्रत्यक्षीकरण एक लैटिन शब्द वियस कार्पस का समानार्थी है जिसका शाब्दिक अर्थ है”निरुद्ध व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करो।” यह एक आदेश के रूप में उन व्यक्तियों के विरुद्ध जारी किया जाता है जो किसी व्यक्ति को अवैध ढंग से बन्दी बनाये है। इस लेख द्वारा उन्हें आदेश दिया जाता है कि वे निरुद्ध व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करें और यह बतायें कि उन्होंने किस अधिकार से उसे निरुद्ध किया है। यह लेख निरुद्ध व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने का आदेश देता है।

“हाल्सबरीज लाज ऑफ इंग्लैण्ड” में इस रिट को निम्नलिखित तरीके से परिभाषित । किया गया है-“बन्दी प्रत्यक्षीकरण की रिट विशेषाधिकार सम्बन्धी ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति को अपनी स्वतन्त्रता सुरक्षित रखने के लिए उसे अवैध अथवा अनुचित रूप से बन्दी बनाये जाने के विरुद्ध तुरन्त मुक्त करने का आदेश दिया जाता है। यह कार्यकारिणी के विरुद्ध उपलब्ध होता है।”

रिट की उत्पत्ति- इस रिट की उत्पत्ति के विषय में विभिन्न मत हैं-मेटलैण्ड ने अपनी पुस्तक ‘कान्टीट्यूशनल हिस्ट्री’ में लिखा है कि यह एक ऐसी रिट थी जिसके द्वारा सामान्तवादी युग में प्राइवेट बन्दीगृह में किसी व्यक्ति के बन्दी बनाये जाने पर सम्राट उसके बन्दी बनाये जाने के कारणों की पूछताछ करता था। जेंक्स के अनुसार बन्दी प्रत्यक्षीकरण की उत्पत्ति सम्राट की प्रजाओं की स्वतन्त्रता के समर्थन में नहीं हुई वरन् किसी व्यक्ति को किसी कार्यवाही के दौरान इंग्लैण्ड की विधि पद्धति का एक बहुत बड़ा काण्ड रहा है। जेंक्स के अनुसार वह प्रतिष्ठित संवैधानिक विधि से उत्पन्न हुई रिट है जिसके द्वारा न्यायालय किसी व्यक्ति के प्रस्तुतीकरण को निश्चित करता था। बन्दी-प्रत्यक्षीकरण रिट मूलत: प्रक्रिया सम्बन्धी विधि से उत्पन्न हुई रिट है।

बन्दी-प्रत्यक्षीकरण रिट के आधार-

इस रिट के जारी किए जाने के लिए निम्नलिखित आधार हैं-

  1. याची को बन्दी अथवा अभिरक्षा में होना चाहिए।
  2. यदि निरोध कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुरूप नहीं किया गया है।
  3. यदि व्यक्ति को 24 घण्टे के अन्दर मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत नहीं किया गया।
  4. यह रिट उन मामलों में भी जारी की जा सकती है जहाँ प्राधिकारी ने अपने निरुद्ध करने की शक्ति का दुर्भावना से प्रेरित होकर प्रयोग किया है।
  5. गिरफ्तारी तथा अवरोध से सम्बन्धित सभी औपचारिकताएँ यदि सम्पन्न नहीं की गई हैं तथा गिरफ्तारी का आदेश असद्भाव से दिया गया है तो रिट जारी की जायेगी।
  6. जहाँ गिरफ्तारी का आदेश सारतः त्रुटिपूर्ण होता है, उदाहरणार्थ बन्दी का गलत हुलिया बताना, उसकी गिरफ्तारी का स्थान न बताना आदि वहाँ यह रिट जारी की जायेगी।

कौन आवेदन कर सकता है?-

सामान्यतया किसी भी रिट के लिए याचिका उसी व्यक्ति द्वारा प्रस्तुत की जाती है जिसके अधिकारों का अतिक्रमण होता है किन्तु बन्दी प्रत्यक्षीकरण रिट इस सामान्य नियम का अपवाद है। इस रिट के लिए बन्दी के अतिरिक्त उसके संरक्षक, नातेदार या अन्य कोई भी व्यक्ति जो उसकी स्वतन्त्रता में हितबद्ध हो याचिका दायर कर सकता है। सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन (1980 SC) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णीत किया कि इस रिट की मांग निरुद्ध व्यक्ति की ओर से कोई अथवा अन्य व्यक्ति, यहाँ तक जो उसके साथ निरुद्ध कर सकता है। इसवाद में प्रेमचन्द्र नामक एक अपराधी तिहाड़ जेल, नई दिल्ली में सजा भुगत रहा था। इस जेल में अनेक गड़बड़ियाँ थीं। परिरुद्ध अपराधियों से मिलने के लिए जब कोई मुलाकाती आता तो उन्हें उनसे मिलने नहीं दिया जाता था, उनसे पैसे वसूल के लिजात और अपराधियों को जेल के वार्डरों द्वारा मारा पीटा भी जाता था। यही बात प्रेमचन्द भी पहुँचायी गयी। प्रेमचन्द का साथी सुनील बत्रा नामक अपराधी भी जिसे मृत्युदण्ड दिया गया था जेल में परिरुद्ध था। उसने प्रेमचन्द की यह दुर्दशा देखी और उच्चतम न्यायालय के एक न्यायाधीश को इस आशय का पत्र लिखा कि ऐसी स्थिति में इस पत्र को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत कर दिया जाय, जिससे कि न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 32 के अधीन बन्दी प्रत्यक्षीकरण रिट की कार्यवाही प्रारम्भ की और रिट मंजूर की।

प्रक्रिया-

बंदी प्रत्यक्षीकरण के आवेदन के साथ एक शपथ-पत्र जिसमें ऐसी अर्जी के लिए तथ्य और परिस्थितियों का वर्णन हो, आवश्यक है। यदि न्यायालय का यह समाधान जाता है कि प्रार्थना स्वीकार करने का प्रथम दृष्ट्या मामला है तो वह निरुद्ध करने वाले प्राधिकारी को प्रारम्भिक आदेश निकालकर एक निर्दिष्ट तिथि को यह बताने के लिए कहेगा कि आरम्भिक आदेश को अन्तिम आदेश क्यों न बनाया जाए। विनिर्दिष्ट तारीख के दिन न्यायालय मामले के गुणागुण पर विचार करेगा और समुचित आदेश पारित करेगा। यदि न्यायालय की यह राय है कि निरोध न्यायोचित नहीं था तो वह निरुद्ध करने वाले प्राधिकारी को रिट निकालकर यह निर्देश देगा कि बंदी को तुरंत छोड़ दिया जाए। दूसरी तरफ, न्यायालय के अनुसार यदि निरोध न्यायसंगत था तो आरम्भिक आदेश का उन्मोचन कर दिया जायेगा। जहाँ आरम्भिक आदेश की वापसी नहीं होती, बंदी तुरंत रिहाई का हकदार है। याचिका के निस्तारण तक न्यायालय को अन्तरिम जमानत देने की अधिकारिता है। आपवादिक मामलों में जहाँ व्यक्ति वास्तव में निरुद्ध नहीं हैं, याचिका पोषणीय है।

कब नामंजूर किया जा सकता है-

बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट का उद्देश्य उपचारात्मक है और दाण्डिक नहीं है, न्यायालय को निरोध की वैधता या अन्यथा का निर्णय आरम्भिक आदेश की वापसी के संदर्भ में करना आवश्यक है और आवेदन की तिथि के संदर्भ में नहीं करना है। इसलिए यदि प्रारम्भिक आदेश के समय बंदी अविधित; निरुद्ध नहीं था तो बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट नहीं निकाला जाएगा भले ही निरोध के समय आदेश अवैध रहा हो। इसी प्रकार यदि बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट के लिए फाइल की गई याचिका के निलम्बन की अवधि में बंदी को छोड़ दिया जाता है तो वह निष्फल हो जाएगा। अत: उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि व्यक्ति की स्वतन्त्रता मानव स्वतन्त्रताओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है तथा न्यायाधीशों ने इनकी रक्षा हेतु समय-समय पर बहुत साहसिक भूमिका अदा की है। अत: जहाँ भी यह अभिकथन कहा जाता है कि व्यक्ति अवैध अभिरक्षा में है वहाँ न्यायपालिका का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह उसके जीवन या दैहिक स्वतन्त्रता के अतिक्रमण की रक्षा करे।

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