भारतीय न्यायिक प्रणाली में आप किन सुधारों की आवश्यकता समझते है ? What reform do you suggest in the Indian Judicial System ?
भारतीय न्यायिक प्रणाली की आवश्यकता
वर्तमान समय में भारत में न्यायिक सुधारों की जबरदस्त दरकार है। आज स्थिति यह है कि शिथिलता, भ्रष्टाचार और सुस्ती न्यायपालिका की पहचान बनती जा रही है। मुकदमों का बोझ बढ़ता जा रहा है और परिणामस्वरूप न्याय मिलने में अनावश्यक रूप से विलंब की समस्या विकराल होती जा रही है। न्याय में विलंब से धन और समय की बर्बादी तो बढ़ती ही है, वादकारी के हित भी प्रभावित होते हैं। न्यायिक प्रणाली में बढ़ते भ्रष्टाचार के कारण भी न्यायपालिका की विश्वसनीयता घटी है। महाभियोग के प्रस्ताव के दायरे में आए न्यायमूर्ति पॉल डेनियल दिनाकरन एवं न्यायमूर्ति सौमित्र सेन के प्रकरण इसके ताजा उदाहरण हैं। भ्रष्टाचार के आरोप सिर्फ न्यायाधीशों पर ही नहीं हैं, बल्कि न्यायालय के अधिकारियों एवं अधिवक्ताओं पर भी रिश्वतखोरी के आरोप है। न्यायपालिका में बिचौलियों का वर्चस्व भी बढ़ा है। इस सम्बन्ध में वर्ष 2007 में ट्रांसपेरेंसी इन्टरनेशनल के सर्वे के वे आंकड़े महत्वपूर्ण हैं, जिनमें बताया गया है कि 61 प्रतिशत मामलों में वकीलों को रिश्वत दी गई तथा 29 प्रतिशत मामलों में न्यायालय के अधिकारियों को। 5 प्रतिशत मामलों में रिश्वत का भुगतान बिचौलियों को किया गया। इन स्थितियों में यह आवश्यक हो गया है कि देश की न्यायिक प्रणाली में पारदर्शिता एवं सुधार लाया जाए।
यह सच है कि पारदर्शी लोकतांत्रिक व्यवस्था तथा विधि के शासन के लिए न्यायपालिका की स्वतन्त्रता आवश्यक है तथा इसको सुनिश्चित करने के पर्याप्त उपाय भी हमारे संविधान में किए गए हैं, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि न्यायपालिका को निरंकुश बनाया गया है और उसमें उत्तरदायित्व का अभाव है। न्यायपालिका, देश के संविधान, लोकतांत्रिक परम्परा और जनता के प्रति जवाबदेह है। इस जवाबदेही को और बढ़ाने तथा न्याय प्रणाली में अधिक पारदर्शिता वत्चरिता लाने के लिए ही न्यायिक सुधारों की आवश्यकता हमारे देश में महसूस की जा रही है। यह आवश्यकता इसलिए और महसूस की जा रही है, क्योंकि पिछले कुछ समय से न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी हुई हैं।
देश में न्यायिक सुधारों के लिए इस समय जहां सरकार द्वारा प्रस्तावित न्यायिक मानक एवं उत्तरदायित्व विधेयक, 2010 विशेष रूप से प्रासंगिक है, वहीं इस निमित अन्ना हजारे एवं उनके सहयोगियों द्वारा प्रस्तावि जनलोकपाल विधेयक 2011 की भी उपयोगिता से इन्कार नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा न्याय प्रतिपादन एवं विधिक सुधारों हेतु राष्ट्रीय मिशन की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो सकती है, जिसकी स्थापना की स्वीकृति सरकार दे चुकी है।
न्यायिक सुधारों के लिए ग्राम पंचायत स्तर पर पांच हजार से अधिक ग्राम न्यायालयों की स्थापना की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। केन्द्र सरकार ने सीबीआई की 71 विशेष अदालतों के भी गठन का निर्णय लिया है। न्याय प्रणाली के आधुनिकीकरण की भी शुरूआत हो चुकी है तथा न्यायालयों को कम्प्यूटरीकृत किया जा रहा है। पारिवारिक एवं वाणिज्यिक अदालतों की संख्या बढ़ना प्रस्तावित है, ताकि मुकदमों का बोझ कम हो सके। उठाए जा रहे इन कदमों के अच्छे परिणाम मिलने चाहिए। ऐसा नहीं है कि सरकार न्यायिक सुधारों के लिए प्रयासरत नहीं है। सरकारी प्रयास जारी हैं, किन्तु ये उतने प्रभावी साबित नहीं हो रहे, जितने होने चाहिए। न्यायिक सुधारों को अधिक प्रभावी बनाने के लिए कुछ सुझाव यहां बिन्दुवार दिए जा रहे हैं-
- उन न्यायाधीशों को पुरस्कृत एवं प्रोत्साहित किया जाए, जो अधिक से अधिक मुकदमों का निपटारा कम से कम समय में करते हों।
- न्यायाधीशों की निगरानी के लिए एक तंत्र विकसित किया जाए।
- लोकपाल के दायरे में न्यायपालिका को भी लाया जाए।
- अदालती प्रक्रियाओं को पारदर्शी बनाए जाए तथा न्याय सस्ता और सुलभ हो, जाना चाहिए। इस दिशा में विशेष ध्यान दिया जाए।
- उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति, सिर्फ वकालत के अनुभव के आधार पर न की जाए, इसके लिए परीक्षा की अनिवार्यता होनी चाहिए तथा नियुक्ति के समय पृष्ठभूमि पर विशेष ध्यान देना चाहिए। जज बनाए जाने के बाद उसी उच्च न्यायालय में नियुक्ति न दी जाए, जहां वह वकालत कर चुका हो।
- कानूनी पेचीदगियों को कम कर न्याय प्रक्रिया को आसान बनाया जाए।
- कार्यवाहियों का स्थगन रोका जाना चाहिए । अधिवक्ताओं द्वारा दलीलें पेश करने का समय मीमित किया जाना चाहिए। अनावश्यक तथा गुणहीन याचिकाओं का दाखिला रोका
- न्यायालय से बाहर समझौता कराने का विशेष प्रयास किया जाना चाहिए। मध्यस्थम, लोक अदालत तथा संराधन को यथा गाभव बढ़ावा दिया जाना चाहिए। सुलह समझौता संस्कृति का विकाय कर, न्यायालयों का कार्य बोझ घटाने का प्रयास होना चाहिए।
- सरकार को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि उसके विभाग अनावश्यक मुकदमेबाजी मे बचें। केवल उन्हीं मामलों में मुकदमें दायर किए जाने चाहिए जो अतिआवश्यक हो तथा लोकहित में सीधे जुड़े हों। सरकार द्वारा अपने अनावश्यक मुकदमें वापस लेना चाहिए।
- न्यायाधीशों के रिक्त पदों को तेजी से भरा जाना चाहिए तथा न्यायाधीशों के नए पद सृजित किए जाने चाहिए। न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया योग्यता, दक्षता तथा प्रशासनिक सक्षमता सुनिश्चित करने वाली होनी चाहिए।
- विशेष न्यायालयों तथा न्यायाधिकरणों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए तथा निचले न्यायालयों में ढांचागत सुविधाएं बढ़ाकर, संसाधनों का बेहतर प्रबन्ध सुनिश्चित किया जाना चाहिए। न्यायालयों के अभिलेखों तथा न्यायालयों के दैनिक कार्यों को कम्प्यूटरीकृत किया जाना चाहिए।
- विधि तथा विधिक प्रक्रिया को सरलीकृत किया जाना चाहिए। अनावश्यक विधिक तकनीकियों का निवारण किया जाना चाहिए।
- समान मामलों को एक साथ संलग्न कर प्राथमिकता के आधार पर निपटाया जाना चाहिए। न्यायाधीशों को सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देशों के अनुसार एक निश्चित समय सीमा में निर्णय उद्घोषित करना चाहिए।
- उच्च न्यायालय के अवकाश में न्यूनतम 10 से 15 दिनों की कमी की जानी चाहिए। साथ ही न्यायालय की कार्यावधि में न्यूनतम आधा घण्टा की वृद्धि की जानी चाहिए।
- वकीलों की मौखिक दलीलें एक या डेढ़ घण्टे से अधिक नहीं होनी चाहिए (जब तक कि उनमें विधि का पेचीदा प्रश्न अंतर्विष्ट न हो) । उनकी लिखित दलीलों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
- अधिवक्ताओं को हड़ताल से दूर रहना चाहिए। हड़ताल पर रोक लगाने वाले संविधान पीठ के निर्णय पर अमल होना चाहिए।
न्यायिक व्यवस्था के प्रति जनास्था का घटना शुभ संकेत नहीं है। हमारे देश में पंच को परमेश्वर मानने की परम्परा रही है। ऐसे में न्यायिक सुधारों के जरिए न्याय व्यवस्था की खोई हुई गरिमा को वापस लाना ही होगा और इससे जुड़ी आदर्श स्थितियाँ निर्मित करनी होंगी। हमें यह याद रखना होगा ‘न्याय’ मात्र एक शब्द नहीं है, बल्कि यह समाज दर्शन की बुनियादी धारणा है।
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