संविधान के उन उपबन्धों की विवेचना कीजिये जिनमें भारत में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुरक्षित होती हैं? Discuss the provisions of the Constitution which are meant for ensuring the independence of judiciary in India.
एक स्वतन्त्र न्यायपालिका ही निष्पक्ष न्याय प्रदान कर सकती है अतः भारतीय संविधान द्वारा न्यायपालिका को स्वतन्त्र रखने का पूरा-पूरा प्रयास किया गया है। न्यायाधीश स्थानान्तरण के मामलों में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि न्यायपालिका की स्वतन्त्रता संविधान का “आधारभूत ढाँचा’ है। भारतीय संविधान में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को कायम रखने के लिए निम्नलिखित उपबन्धों का समावेश किया गया है-
(1) न्यायाधीशों की नियुक्ति-
संविधान के द्वारा सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार राष्ट्रपति को सौंपा गया है जो मुख्य न्यायाधीश तथा न्यायाधीशों से परामर्श प्राप्त करते हुए न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है। न्यायाधीशों की नियुक्ति के प्रसंग में सर्वोच्च न्यायालय ने अक्टूबर, 1998 के निर्णय के आधार पर व्यवस्था कर दी है कि अब इस प्रसंग में सरकार या भारत के मुख्य न्यायाधीश किसी के भी द्वारा मनमाना आचरण नहीं किया जा सकता। न्यायाधीशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में इसे निश्चित रूप से श्रेष्ठ स्थिति कहा जा सकता है।
(2) कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण-
अनच्छेद 50 राज्य को निदेश देता है कि राज्य लोक-सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करने का प्रयास करेगा। न्यायपालिका का कार्यपालिका के नियन्त्रण से मुक्त रहना स्वतन्त्रता और निष्पक्षता के लिए अत्यन्त आवश्यक है। अनेक राज्यों में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक् कर दिया गया है।
(3) न्यायाधीशों की पदावधि का संरक्षण-
एक बार नियुक्त किये जाने पर न्यायाधीशों को आसानी से पदच्युत नहीं किया जा सकता है। उसे पदच्युत करने के लिए संविधान एक विशेष प्रक्रिया का प्रावधान करता है। प्रथम तो उसको केवल संविधान में दिये गये आधारों पर ही पदच्युत किया जा सकता है, दूसरे, इस प्रयोजन हेतु राष्ट्रपति द्वारा पेश किये गये समावेदन संसद के प्रत्येक सदन के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पारित किया जाना चाहिये। यह समावेदन संसद के एक ही सत्र में प्रस्तावित और पारित किया जाना चाहिये। उक्त प्रक्रिया से यह स्पष्ट है कि न्यायाधीशों को उनके पदों से पदमुक्त करना आसान नहीं है।
(4) न्यायाधीशों के वेतन, भत्ते आदि विधायिका के मतदान से परे हैं-
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों का वेतन संविधान के अनुसार नियत किया जाता है और वह भारत की संचित निधि पर भारित होता है। उस पर संसद में मतदान नहीं होता है, उनके कार्यकाल के दौरान उनके वेतन और भत्तों में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। इसका केवल एक अपवाद है, वह यह कि देश में वित्तीय संकट के समय उनके वेतन और भत्तों में आवश्यक कटौती की जा सकती है।
(5) संसद उच्चतम न्यायालय की शक्ति और अधिकारिता को बढ़ा सकती है, किन्तु कम नहीं कर सकती-
सिविल-मामलों में संसद उच्चतम न्यायालय में की जाने वाली अपीलों की आर्थिक सीमा को बदल सकती है, और इस प्रकार उसकी अधिकारिता को बढ़ा सकती है। वह इसकी आपराधिक अधिकारिता को बढ़ा सकती है, वह इसको अपनी अधिकारिता को और अधिक कार्यसाधक रूप में प्रयोग करने के लिए सहायक शक्तियाँ प्रदान कर सकती है और अनुच्छेद 32 में वर्णित प्रयोजनों से भिन्न किन्हीं अन्य प्रयोजनों के लिए निदेश, आदेश, या लेख, जिनके अन्तर्गत परमाधिकार रिट भी शामिल है, निकालने की शक्ति प्रदान कर सकती है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि उक्त वर्णित अनुच्छेदों के अन्तर्गत संसद उच्चतम न्यायालय की शक्तियों एवं अधिकार को बढ़ा सकती है लेकिन घटा नहीं सकती।
(6) उन्मुक्तियाँ-
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय एवं कार्य आलोचना से परे हैं। संसद न्यायाधीशों के किन्हीं भी ऐसे कार्यों पर जिन्हें उन्होंने कर्तव्य पालन करते हुए किया है, विचार विमर्श नहीं कर सकती।
(7) न्यायालय के अवमान के लिए दण्ड देने की शक्ति-
संविधान का अनुच्छेद 129 उच्चतम न्यायालय को और अनुच्छेद 215 उच्च न्यायालय को अपने अवमान के लिए किसी भी शक्ति को दण्ड देने की शक्ति प्रदान करता है। यह शक्ति न्यायालयों की स्वतन्त्रता और निष्पक्षता को सुरक्षित रखने के लिए अत्यन्त आवश्यक है। इसका अर्थ यह नहीं है कि न्यायालय या न्यायाधीशें की आलोचना नहीं की जा सकती है। न्यायालय अथवा न्यायाधीशों की उचित और सत्य आलोचना वर्जित नहीं हैं।
संविधान के अनुच्छेद 124 और अनुच्छेद 226 में स्पष्ट उपबन्ध है कि राष्ट्रपति न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्ययालयों के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करेगा जिसे वह इस प्रयोजन के लिए उचित समझे। इस प्रकार संविधान निर्माताओं ने इस बात को सुनिश्चित किया था कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में राष्ट्रपति विधि विशेषज्ञों से परामर्श (consultation) करेगा।
अनुच्छेद 124 और अनुच्छेद 226 में स्पष्ट उपबन्ध के बावजूद आगे चलकर उच्चतर न्यायलयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ता गया और न्यायाधीशों की नियुक्ति राजनैतिक उद्देश्यों से प्रेरित होकर की जाने लगी।
प्रसन्नता की बात है कि एस.सी, एडवोकेट आन रिकार्ड एसोसियेशन बनाम भारत संघ के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि उच्चतम न्यायालय के और न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों और अन्य न्यायाधीशों के स्थानान्तरण के मामले में भारत के मुख्य न्यायमूर्ति का निर्णय ही अन्तिम होगा जो वह अपने दो सहयोगियों से परामर्श करके देगा। सरकार को केवल गलत नियुक्तियों को रोकने का अवसर मिलेगा। भारत के मुख्य न्यायाधिपति की नियुक्ति वरिष्ठता के आधार पर की जायेगी। यह निर्णय न्यायपालिका की स्वतन्त्रता एवं निष्पक्षता सुनिश्चित करने में पर्याप्त सहायक होगा।
इन री प्रेसीडेन्सियल रिफरेन्स के मामले में (न्यायाधीशों की नियुक्ति तथा स्थानान्तरण के नाम से प्रसिद्ध) 9 सदस्यीय संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से यह अभिनिर्धारित किया है कि उच्चतर न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति तथा स्थानान्तरण के मामले में 1993 में प्रतिपादित परामर्श प्रक्रिया’ के पालन किये बिना भारत के मुख्य न्यायमूर्ति द्वारा की गयी सिफारिश मानने के लिए, सरकार बाध्य नहीं है। न्यायालय ने परामर्श प्रक्रिया को अधिक विस्तृत कर दिया और यह निर्णय दिया कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में 4 वरिष्ठतम न्यायाधीशों के समूह से परामर्श करके ही राष्ट्रपति को भारत के मुख्य न्यायमूर्ति अपनी सिफारिश भेजेगा। मुख्य न्यायमूर्ति का अकेले का मत ‘परामर्श’ प्रक्रिया नहीं है। न्यायालय ने कहा कि न्यायाधीशों का अपना परामर्श आम राय से देना होगा और यदि उसमें से दो विरोध करते हैं तो नियुक्ति की सिफारिश नहीं भेजी जायेगी।
उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में भारत का मुख्य न्यायमूर्ति उच्चतम न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों से परामर्श करके अपनी सिफारिश राष्ट्रपति को भेजेगा।
उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के स्थानान्तरण के मामले में भारत के मुख्य न्यायमूर्ति उच्चतम न्यायालय के 4 वरिष्ठतम न्यायाधीशों से परामर्श करेगा और इसके अतिरिक्त सम्बन्धित न्यायालयों जिससे स्थानान्तरण किया गया है और जिसको स्थानान्तरण किया गया है उनके मुख्य न्यायाधीशों से भी परामर्श करेगा और तत्पश्चात् अपनी सिफारिश राष्ट्रपति को भेजेगा।
प्रस्तुत निर्णय से अब न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में पर्याप्त निष्पक्षता होगी और न्यायपालिका की स्वतन्त्रता एवं निष्पक्षता सुनिश्चित होगी। उक्त परामर्श प्रक्रिया में दुरुपयोग की आशंका अन्ततः कम है।
व्यवहार में भारत के अन्तर्गत उच्चस्तरीय न्यायपालिका अब तक नितान्त निष्पक्ष रही है तथा इसके द्वारा व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के दबाव से अपने आपको पूर्णतया मुक्त रखा है।
भारत में न्यायपालिका, विशेषतया उच्च न्यायपालिका अपनी शक्तियों, सम्मान एवं स्वतन्त्रता पर निरन्तर बल देती रही है। इसी क्रम में सर्वोच्च न्यायालय ने 1995 में अपने एक निर्णय में घोषित किया कि ‘न्यायाधीश और उच्च न्यायालय के अधिकारी राजकीय सेवा के सदस्य नहीं हैं।
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