प्रश्न 7- राष्ट्रपति और संसद के बीच संबंध पर एक आलोचनात्मक टिप्पणी लिखिए। Write a Critical note relationship between President and Parliament.
संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित है। वह तीनों सेनाओं का प्रधान, प्रथम नागरिक एवं संवैधानिक अध्यक्ष होता है। सभी महत्वपूर्ण नियुक्तियाँ उसी के द्वारा होती हैं। सन्धियाँ, समझौते, युद्ध और आपात की घोषणा उसी के द्वारा की जाती है। देखने से ऐसा लगता है कि वह सारे कार्य करने की शक्ति रखता है अर्थात् वही सर्वशक्तिमान है परन्तु फिर भी उसकी संवैधानिक स्थिति विवादपूर्ण रही है। कोई उसे ‘रबर की मोहर’ तो कोई ‘कठपुतली’ कहता है। कोई इंग्लैण्ड के सम्राट से इसकी तुलना करता है तो कोई इसे वास्तविक अध्यक्ष कहता है।
राष्ट्रपति की संवैधानिक स्थिति-अनुच्छेद 53 (1)- संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी और इसका प्रयोग संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों द्वारा करेगा।
अनु.53 (2)- उसे भारतीय सेना का सर्वोच्च सेनापति बनाता है किन्तु उसकी यह शक्ति कानून द्वारा विनियमित होने की बाध्यता है।
42वां संशोधन अधिनियम, 1976 ने अनुच्छेद 74 (1) में संशोधन करके राष्ट्रपति को मन्त्रिपरिषद की सलाह से अपने कार्य करने के लिये सांविधानिक रूप से, बाध्य कर दिया है। इस संशोधन से पहले मन्त्रि-परिषद की सलाह मानने की बाध्यता उस पर आरोपित नहीं थी।
किन्तु अन 44वां संशोधन अधिनियम, 1976 ने अनुच्छेद 74 (1) में संशोधन द्वारा नया पैरा जोड्कर राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया है कि वह मन्त्रिपरिषद की किसी सलाह को उसे पुनर्विवचार के लिए लौटा सकता है, किन्तु ऐसे पुनर्विचार के बाद पुनः जो सलाह मन्त्रिपरिषद देगी, उसके अनुसार कार्य करने के लिए राष्ट्रपति बाध्य होगा।
पी.बी. सामन्त बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, ए.आई.आर. 2005 के मामले में बम्बई उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि राष्ट्रपति अपने मन्त्रियों द्वारा दी गई सलाह को मानने के लिए बाध्य था। उससे अपने विवेक पर कार्य करने की अपेक्षा नहीं की जाती
अनुच्छद 75 (1) उपबन्ध करता है कि प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति करेगा और अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह पर करेगा।
अनुच्छेद 75 (2) मन्त्रिगण राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त अपने पद धारण करेंगे। अनु. 75 (3) मन्त्रिपरिषद लोक सभा के प्रति उत्तरदायी होगी।
उपर्युक्त संवैधानिक उपबन्धों के आधार पर कहा जा सकता है राष्ट्रपति कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान है और यदि वह चाहे तो तानाशाह बन सकता है। फिर भी संविधान के ही अनुसार आगे उसे कुछ ऐसी ही शक्तियाँ प्रदान की गई हैं जो उसे तानाशाह बना सकती हैं। ये निम्नलिखित हैं-
1. वह आपातकालीन घोषणा करके संसद को भंग कर सकता है और बड़ी सरलतापूर्वक कार्यपालिका की शक्ति को अपने हाथ में ले सकता है। (अनु. 352)
2. अनुच्छेद 359 राष्ट्रपति को प्राधिकार देता है कि वह संविधान के भाग 3 प्रत्याभूत सभी मूल अधिकारों के प्रवर्तन को आदेश द्वारा निलंबित कर दे, पर अनुच्छेद 20 और 21 के अधीन अपराधों की दोषसिद्धि के संरक्षण तथा जीवन एवं स्वातंत्र्य के संरक्षण से संबंधित अधिकार इसके अपवाद होंगे।
3. वह अध्यादेश जारी करके कानूनों को बनाकर लागू कर सकता है। (अनु. 123)
4. वह सशस्त्र सेनाओं का प्रधान होता है। यदि उसके खिलाफ विद्रोह भड़कता है तो वह सैनिक शक्ति का प्रयोग करके उसे दबा सकता है। (अनु. 53 (2))
परन्तु यदि राष्ट्रपति के बारे में संविधान निर्माताओं की भावनाओं पर विचार करें तो उपर्युक्त सही नहीं लगता-
संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जो प्रथम राष्ट्रपति भी थे, के अनुसार, “यद्यपि संविधान में स्पष्ट रूप से ऐसा कोई उपबन्ध नहीं है जो राष्ट्रपति को अपने मन्त्रिपरिषद् से मन्त्रणा लेने के लिए बाध्य करता हो फिर भी यह आशा की जाती है कि वे रूढ़ियाँ जिनके अधीन सम्राट सदैव अपनी मंत्रिपरिषद की मन्त्रणा से कार्य करता है, इस देश में भी प्रतिस्थापित की जाएगी और राष्ट्रपति सभी मामलों में एक संवैधानिक अध्यक्ष होगा।”
डॉ. भीमराव अम्बेडकर के अनुसार- “भारतीय संविधान में राष्ट्रपति का वही स्थान है जो इंग्लैण्ड के संविधान में वहाँ के सम्राट का है। वह राष्ट्र का प्रधान होता है, पर शासक नहीं, सामान्यतः वह मंत्रिपरिषद की मंत्रणा से आबद्ध होगा। वह उसकी मन्त्रणा के बिना कुछ नहीं कर सकता है।”
उच्चतम न्यायालय का दृष्टिकोण
रामजवाया कपूर बनाम स्टेट ऑफ पंजाब, ए.आई.आर. 1955 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह विचार प्रकट किया था कि “हमारे संविधान में इंग्लैण्ड की संसदीय प्रणाली को अंगीकृत किया गया जिसका मूल सिद्धान्त यह है कि राष्ट्रपति कार्यपालिका का केवल संवैधानिक प्रधान होता है। वास्तविक कार्यपालिका शक्ति मंत्रिपरिषद् में निहित होती है।”
यू.एन. राव बनाम इन्दिरा गाँधी, ए.आई.आर. 1974 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया “लोकसभा विघटित हो जाने पर भी मन्त्रिपरिषद समाप्त नहीं होती। वह हर हालत में बनी रहती है और राष्ट्रपति को परामर्श देती है। यदि राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद की सलाह के बिना कार्य करता है तो यह असंवैधानिक होने के साथ-साथ अनुच्छेद 53 (1) के विपरीत भी होगा।”
निष्कर्ष- उपर्युक्त उपबंधों के संकीर्ण संकीर्ण और शाब्दिक निर्वचन के आधार पर कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान है और यदि वह चाहे तो तानाशाह बन सकता है। अनुच्छेद 53 में प्रयुक्त शब्दावली उसको वास्तविक शासक बनने का अवसर प्रदान करती है। अनुच्छेद 74 (1) उसे यह शक्ति प्रदान करता है कि वह मंत्रिपरिषद के निर्णय को अपने किसी सुझाव के संदर्भ में, पुनर्विचार करने के लिये लौटा सकता है, लेकिन यदि हम अपने संविधान की पृष्ठभूमि में अन्तर्निहित मूल भावना पर विचार करें तो यह निष्कर्ष निकलता है कि उपर्युक्त मत सही नहीं है। हमने संसदीय प्रणाली का आदर्श अपनाया है। संसदीय प्रणालियों का मूल सिद्धान्त यह है कि राष्ट्रका प्रधान सांविधानिक प्रधान होता है और वास्तविक शक्ति जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों की मंत्रिपरिषद् में निहित होती है जो लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होती है।
अतः उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यद्यपि राष्ट्रपति नाममात्र का संवैधानिक प्रमुख होता है फिर भी अपनी पदीय हैसियत से वह राष्ट्रीय एकता और आदर तथा प्रातिष्ठा का प्रतीक है और सरकार के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है इसलिए यह कहना उचित नहीं होगा कि संविधान में राष्ट्रपति के पद का कोई महत्व ही नहीं है।
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