भारत के राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियाँ (Emergency Powers of the Indian President)
नवीन संविधान ने भारत के राष्ट्रपति को संकटकाल में विस्तृत शक्तियाँ प्रदान की हैं जिससे वह संकटकालीन समस्याओं का दृढतापूर्वक सामना करने में सफल हो सकें। भारतीय राष्ट्रपति निम्नलिखित परिस्थितियों में संकटकाल की घोषणा कर सकता है
(1) युद्ध या बाहा आक्रमण या ‘सशस्त्र विद्रोह’ से उत्पन्न आपात (अनुच्छेद 352 )।
(2) राज्यों में संवैधानिक तन्त्र के विफल होने से उत्पन्न आपात (अनुच्छेद 356)।
(3) वित्तीय या आर्थिक आपात (अनुच्छेद 360)
(1) युद्ध या बाह्य आक्रमण या ‘सशस्त्र विद्रोह’ से उत्पन्न आपात- अनुच्छेद 352 के अनुसार, यदि राष्ट्रपति को इस बात का समाधान हो जाये कि गम्भीर संकट विद्यमान है जिससे कि युद्ध या बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह से भारत या उसके राज्य क्षेत्र के किसी भाग की सुरक्षा संकट में है, तो ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति संकटकाल की घोषणा कर सकता है। ऐसे संकट की आशंका की स्थिति में भी राष्ट्रपति के द्वारा संकटकाल की घोषणा की जा सकती है।
42वें संवैधानिक संशोधन के पूर्व यह व्यवस्था थी कि अनुच्छेद 352 के अधीन संकटकाल की घोषणा पूरे देश के लिए ही की जा सकती थी, देश के केवल किसी एक या कुछ भागों के लिए नहीं। इस संवैधानिक संशोधन द्वारा अब यह व्यवस्था की गयी है कि राष्ट्रपति अनुच्छेद 352 के अधीन संकट की घोषणा पूरे देश के लिए या देश के किसी एक या कुछ भागों के लिए कर सकते हैं।
संकटकाल घोषित करने की विधि तथा उसकी अवधि- राष्ट्रपति के द्वारा घोषित संकटकाल की घोषणा को दो महीने के अन्दर संसद के प्रत्येक सदन में प्रस्तुत करना आवश्यक है। संकटकाल की घोषणा होने के दो माह के पश्चात् संकटकाल समाप्त समझा जायेगा; यदि इसकी समाप्ति के पूर्व संसद के दोनों सदन प्रस्तावों के आधार पर इसे स्वीकार न कर लें। राष्ट्रपति को अधिकार है कि अपने द्वारा की गयी इस घोषणा को किसी भी समय वापस ले ले।
परन्तु संकटकाल की इस घोषणा के समय अथवा उसके दो माह के अन्दर लोकसभा का विघटन हो गया हो, तो वह संकटकाल नये सदन की बैठक के 30 दिन पश्चात् तक जारी रह सकता है, यदि राज्यसभा दो माह की निश्चित अवधि के अन्दर उसे स्वीकार कर चुकी हो।
लोकसभा की बैठक के प्रारम्भ होने के 30 दिन पश्चात् संकटकाल उसी समय जारी रह सकता है, जबकि लोकसभा उसे स्वीकार कर ले।
घोषणा का प्रभाव- इस प्रकार की संकटकालीन घोषणा के प्रभाव इस प्रकार हैं
(i) इस प्रकार की संकटकालीन स्थिति में राज्य पूर्णतया एकात्मक शासन का रूप धारण कर लेता है। (ii) संसद सम्पूर्ण देश या देश के किसी भी भाग के लिये किसी भी विषय पर कानून बना सकती है। (iii) राष्ट्रपति राज्य की कार्यपालिका को किसी भी विषय में आदेश दे सकता है। (v) राष्ट्रपति नागरिकों के मौलिक अधिकारों को कुछ समय अथवा पूरी अवधि के लिये स्थगित कर सकता है। (v) राष्ट्रपति केन्द्र तथा राज्यों के राजस्व वितरण में संशोधन कर सकता है। (vi) इस काल में राष्ट्रपति को यह अधिकार प्राप्त हो जाता है कि वह किसी भी पदाधिकारी को किसी प्रकार के अधिकार सौंपे।
(2) राज्यों में संवैधानिक तन्त्र के विफल होने से उत्पन्न आपात- संविधान के द्वारा संघीय सरकार को यह उत्तरदायित्व सौंपा गया है कि वह प्रत्येक राज्य की बाहरी आक्रमण तथा आन्तरिक अशान्ति से रक्षा करेगा तथा यह सुनिश्चित करेगा कि प्रत्येक राज्य की सरकार संविधान के उपबन्धों के अनुसार चलायी जाती है। अनुच्छेद 356 के अनुसार, अगर राष्ट्रपति का राज्यपाल के प्रतिवेदन पर या अन्य किसी प्रकार से समाधान हो जाये कि ऐसी परिस्थितियाँ पैदा हो गयी हैं कि किसी राज्य का शासन संविधान के उपबन्धों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है, तो वह संकटकाल की घोषणा कर सकता है।
ऐसा संकट घोषित करने की विधि वही है जो प्रथम प्रकार के संकट की घोषणा के लिए है। मूल संविधान में यह व्यवस्था थी कि संसद के द्वारा एक बार में 6 माह की अवधि के लिए राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता था। 42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गयी है कि संसद के द्वारा एक बार प्रस्ताव पास कर 1 वर्ष के लिए राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है। जहाँ तक राज्य में राष्ट्रपति शासन की अधिकतम अवधि का सम्बन्ध है, पहले की भाँति अब भी यह अधिकतम अवधि तीन वर्ष ही है। संकट घोषित करते समय तथा प्रत्येक बार उसकी अवधि बढ़ाते समय संसद के दोनों सदनों की स्वीकृति आवश्यक है।
वर्तमान में विशेष व्यवस्था यह है कि 1 वर्ष से अधिक की अवधि के लिए आपातकाल को तभी जारी रखा जा सकता है जबकि चुनाव आयोग का उपर्युक्त परिस्थिति के विद्यमान होने का प्रमाण-पत्र प्राप्त न हो जाये।
घोषणा के संवैधानिक प्रभाव – अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत की गयी घोषणा के. निम्नलिखित संवैधानिक परिणाम होंगे-
(i) राष्ट्रपति यह घोषित कर सकता है कि किसी राज्य की विधायिका शक्ति का प्रयोग केन्द्रीय संसद करेगी। संसद ऐसे व्यवस्थापन की शक्ति राष्ट्रपति को प्रदान कर सकती है अथवा उसको यह अधिकार दे सकती है कि वह यह शक्ति किसी और अधिकारी को प्रदान कर दे। (ii) राष्ट्रपति किसी भी राज्याधिकारी की कार्यकारिणी शक्तियों को हस्तगत कर सकता है। (iii) राष्ट्रपति उद्घोषणा के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उच्च न्यायालय की शक्ति को छोड़कर अन्य समस्त शक्ति अपने हाथ में ले सकता है। (iv) जब लोकसभा की बैठकें नहीं हो रही हों, उस समय राष्ट्रपति राज्य की संचित निधि में से व्यय के लिए आदेश दे सकता है। (v) संकट की अवधि में, राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त स्वतन्त्रताओं पर रोक लगा सकता है और उसके द्वारा संवैधानिक उपचारों के अधिकार का भी अन्त किया जा सकता है।
(3) वित्तीय या आर्थिक आपात – संविधान के अनुच्छेद 360 के अनुसार, यदि राष्ट्रपति को यह विश्वास हो जाये कि देश में ऐसी स्थिति पैदा हो गई है, जिससे राष्ट्र की वित्तीय स्थिरता या साख (Financial Stability or Credit) संकट में है तो वह वित्तीय संकट की घोषणा कर सकता है। वित्तीय संकट की घोषणा का प्रभाव – ऐसी घोषणा होने पर-
(i) राज्यों के समस्त कर्मचारियों के वेतन, भत्ते आदि में कमी की जा सकती है।
(ii) राज्य विधान मण्डल द्वारा पारित वित्तीय विधेयकों को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजने की आज्ञा दी जा सकती है।
(iii) राष्ट्रपति संघीय कर्मचारियों के वेतन व भत्ते आदि में कमी करने का आदेश दे सकता है। इन कर्मचारियों में सर्वोच्च न्यायालय के व उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी सम्मिलित हैं।
(iv) राष्ट्रपति को यह भी अधिकार होगा कि वह संघ और राज्यों के बीच राजस्व वितरण में परिवर्तन कर सके।
संविधान के लागू होने के समय से अभी तक वित्तीय संकटकाल की घोषणा करने की आवश्यकता नहीं पड़ी है।
राष्ट्रपति की संकटकालीन शक्तियों का मूल्यांकन कीजिए।’ Examine the emergency powers of President.
भारतीय संविधान की यह संकटकालीन व्यवस्था संविधान निर्माण के समय और उसके बाद कटु आलोचना का विषय रही है। जिस दिन संविधान सभा में यह व्यवस्था स्वीकार हुई, उस दिन श्री हरिविष्णु कामथ ने संविधान में कहा था ‘यह शर्मनाक दिन है।ईश्वर भारतीयों की रक्षा करे’ इस संकटकालीन व्यवस्था की प्रमुख रूप से निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है-
(1) राष्ट्रपति अधिनायक बन सकता है-
आलोचकों के अनुसार संकट की स्थिति में एकमात्र निर्णायक राष्ट्रपति ही है और राष्ट्रपति के द्वारा संसद की स्वीकृति प्राप्त किये बिना ही संकटकालीन घोषण एक माह के लिए लागू की जा सकती है। एक माह की अवधि में वह मन्त्रिमण्डल को पदच्युत तथा लोकसभा को भंग कर लगभग 5 या 7 माह तक तो मनमाना शासन कर ही सकता है। महात्वाकांक्षी राष्ट्रपति इस अवधि में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर अधिनायक बनने का प्रयत्न कर सकता है।
(2) संघात्मक रूप का अन्त-
संविधान द्वारा भारत में एक संघात्मक शासन व्यवस्था की स्थापना की गयी है लेकिन संविधान के ये संकटकालीन उपबन्ध संघात्मक शासन व्यवस्था का आधारभूत स्वरूप ही समाप्त कर देते हैं। संवैधानिक तन्त्र की विफलता के समय राज्य सरकार लगभग समाप्त ही हो जाती है और युद्धकालीन अथवा वित्तीय संकट की स्थिति में राज्य सरकारों पर केन्द्रीय सरकार का नियन्त्रण अत्यधिक बढ़ जाता है। परिणामत: राज्य सरकारों का रूप एक ऐसे एजेन्ट के समान हो जाता है जिसका कार्य संघीय सरकार के आदेशों का पालन करना भर हो।
(3) राज्यों में विरोधी दलों की सरकारों का दमन सम्भव है-
अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत राज्यों में संवैधानिक तन्त्र की विफलता की स्थिति में संकटकालीन घोषणा की जो व्यवस्था की गयी है कि केन्द्र का शासनदल राष्ट्रपति के माध्यम से राज्यों में विरोधी दलों की सरकारों का दमन कर सकता है। अब तक इस प्रकार की शक्ति का जिस रूप में प्रयोग किया जाय, उससे भी इस प्रकार के भय की पुष्टि ही होती है।
(4) राज्यों की वित्तीय स्वतन्त्रता समाप्त हो जायेगी-
संकटकाल में केन्द्रीय कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका को व्यापक वित्तीय अधिकार प्रदान किये गये हैं। राष्ट्रपति आर्थिक क्षेत्र में राज्य सरकारों को किसी भी प्रकार का आदेश दे सकता है और श्री हृदयनाथ कुंजरू के शब्दों में, “संकट काल के नाम पर राज्यों की वित्तीय स्वतन्त्रता समाप्त की जा सकती है।”
(5) मौलिक अधिकार अर्थहीन हो जायेंगे-
संकटकालीन उपबन्धों के विरुद्ध सबसे बड़ी आलोचना यह की जाती है कि ये उपबन्ध संविधान द्वारा प्रदान किये गये मौलिक अधिकारों को समाप्त कर देंगे। श्री कामथ और श्री शिब्बन लाल सक्सेना के द्वारा इसे ‘भारतीय संविधान पर एक धब्बा’ कहा गया है।
निष्कर्ष- संविधान में दिए गए इन संकटकालीन उपबन्धों का अरुचिकर प्रतीत होना नितान्त स्वाभाविक है किन्तु साथ ही यह स्वीकार करना होगा कि संकटकाल के सम्बन्ध में की गयी यह व्यवस्था नवजात राष्ट्र की स्वतन्त्रता, एकता और प्रजातन्त्र की रक्षा के लिए नितान्त आवश्यक है। टी०टी० कृष्णास्वामी ने संविधान सभा में ठीक ही कहा था कि “संविधान के अन्तर्गत की गयी संकटकालीन व्यवस्था को एक आवश्यक बुराई के रूप में स्वीकार करना होगा, क्योंकि इन उपबन्धों के बिना संविधान निर्माण के हमारे सभी प्रयत्न ही अन्ततः असफल हो जायेंगे।” इस बात को दृष्टि में रखना संकटकाल में नागरिक अधिकारों की अपेक्षा राज्य की सुरक्षा अधिक महत्वपूर्ण होती है।
यह तथ्य है कि 1975 में लागू किए गए 19 माह के आपातकाल में आपातकालीन शक्तियों का बहुत अधिक दुरूपयोग किया गया। इस स्थिति को देखकर आपाताकलीन शक्तियों के दुरूपयोग पर अंकुश लगाने की आवश्यकता अनुभव की गयी। अत: 44 वें संवैधानिक संशोधन द्वारा ऐसी व्यवस्थाएं की गयी कि भविष्य में शासक वर्ग के द्वारा निजी स्वार्थों की रक्षा के लिए आपातकाल लागू नहीं किया जा सके और आवश्यक होने पर जब आपातकाल लागू किया जाए तब भी शासक वर्ग द्वारा शक्तियों का मनमाना प्रयोग न किया जा सके। राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियाँ या संविधान के आपातकालीन प्रावधान, संविधान की ऐसी व्यवस्था है जिसका प्रयोग अन्तिम विकल्प के रूप में ही किया जाना चाहिए, यह प्रयोग कम से कम समय के लिए तथा संयमित रूप में ही होना चाहिए।
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