परसंस्कृति ग्रहण की समस्या
परसंस्कृति ग्रहण की समस्या पर प्रकाश डालिए।
जनजातीय सन्दर्भ मे परसंस्कृति ग्रहण अथवा संस्कृतीकरण एक ऐसी दशा है जिसमें किसी दूसरी संस्कृति के प्रभाव से एक समुदाय का सम्पूर्ण जीवन परिवर्तन की प्रक्रिया मे आ जाता है। दूसरे शब्दों में, जब एक समूह का सम्पूर्ण सांस्कृतिक जीवन किसी बाहरी संस्कृति के द्वारा बदलने लगता है, तब इसी दशा को हम संस्कृतीकरण कहते हैं। जहाँ तक भारत में जनजातियों का प्रश्न है, आज कुछ समय पहले तक जनजातीय समूहों की संस्कृति सभ्य समाजों की संस्कृतियों से पूर्णतया भित्र थी। जनजातियों का सामाजिक संस्तरण, परिवार-व्यवस्था, नातेदारी, विवाह पद्धतियाँ, धार्मिक विश्वास, कानून, न्याय, कला, धर्म, जादू, खान-पान, वेशभूषा तथा व्यवहार के तरीके दूसरे समाजों से बिल्कुल भिन्न थे। इन सांस्कृतिक विशेषताओं की सहायता से जनजातियों का जीवन आत्म-निर्भर था और इस प्रकार मानव की मालिक सभ्यता का प्रतिनिधित्व कर रही थी। यह स्थिति पहले हजारों वर्षों से अपरिवर्तित रूप से चली आ रही थी इसलिए जनजातीय जीवन की समस्याएँ केवल आर्थिक तथा भौगोलिक दी, सामाजिक अथवा सांस्कृतिक नहीं। इसके पश्चात् ब्रिटिश काल में ईसाई मिशनरिया तथा हिन्दू संस्कृति के प्रभाव से जनजातीय समाजों की सांस्कृतिक विशेषताओं में परिवर्तन की प्रक्रिया आरम्भ हो जाने के कारण अनेक समस्याएँ उत्पत्र होने लगी।
परसंस्कृति-ग्रहण से सम्बन्धित इन समस्याओं को संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है।
(1) जातीय संस्तरण का विकास-
जनजातियों में संस्कृतीकरण की प्रक्रिया के कारण अनेक भित्र सामाजिक स्थिति वाले समूहों का निर्माण हुआ। एक ओर जिन आदिवासियों ने ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया, वे ईसाइयो की राजनीति और आर्थिक प्रभुता के कारण स्वयं को अन्य आदिवासियों से उच्च समझने लगे। दूसरी ओर जिन लोगों ने हिन्दू धर्म ग्रहण किया, उन्होंने हिन्दू होने के नाते ही शेष लोगों से अपने को ऊँचा समझना शुरु कर दिया, चाहे वास्तविक स्थिति कुछ भी रही हो। इस प्रकार आदिवासियों ने चाहे अपनी इच्छा से धर्म-परिवर्तन किया अथवा दबाव के द्वारा, वे अपनी परम्परागत विशेषताओं को छोड़ने लगे। उनकी प्रमुख समस्या यह रही कि धर्म परिवर्तन के बाद भी न तो उन्हें पूरी तरह ईसाई समाज में स्थान मिल सका और न ही हिन्दू समाज में। हिन्दुओं ने उन्हें हिन्दू बनाने के बाद भी उनसे निम्न जातियों के समान व्यवहार करना आरम्भ कर दिया। उसके फलस्वरूप जनजातियों में भी जातिगत विभाजन के समान ऊँच-नीच का एक स्पष्ट संस्तरण विकसित हो गया जिसने जनजातीय समूहों के बीच अनेक संघर्षों और तनावों को जन्म दिया। इससे जनजातियों की परम्परागत सामाजिक एकता और सामुदायिकता समाप्त होने लगी।
(2) सांस्कृतिक विघटन-
अनेक जनजातियाँ ‘संस्कृतीकरण के दुष्परिणामों को न समझते हुए उन्हीं समूहों की भाषा बोलने लगीं जिनकी संस्कृति को उन्होंने स्वीकार कर लिया था। आज भारत की उत्तर-पूर्वी तथा दक्षिणी भागों की जनजातियों में कितने ही व्यक्ति अंग्रेजी की अपनी मातृभाषा के रूप में स्वीकार करने लगे हैं। उन्होंने धीरे-धीरे अपनी मूल भाषा का बिल्कुल त्याग कर दिया। इससे सांस्कृतिक विघटन की समस्या उत्पत्र हुई। वास्तव में प्रत्येक समूह की भाषा में उनके प्रतीकों को अभिव्यक्त करने की क्षमता होती है और यदि भाषा में परिवर्तन हो जो तो समूहों के मूल्यों और उपयोगी व्यवहारों में भी परिवर्तन होने लगता है। इस प्रकार जनजातीय समूहों में उनकी परम्परागत भाषा से सम्बन्धित सांस्कृतिक मूल्यों और आदर्श नियमों का हास होने लगा। बहुत सी जनजातियों ने हिन्दुओं अथवा ईसाइयों के सामाजिक मूल्यों और आदर्श- नियमों को स्वीकार कर लिया, लेकिन वे भी स्वाभाविक रूप से ग्रहण नहीं कर सके। इस प्रकार भाषा और व्यवहारों के परिवर्तन से जनजातियों के जीवन में एक शून्यता की स्थिति पैदा हो गयी।
(3) जनजातीय धर्म के प्रति तिरस्कार-
प्रत्येक समाज में धर्म सामाजिक अनुकूलन का एक प्रमुख आधार होता है। इसका कोई उचित विकल्प खोजे बिना ही इसके प्रति तिरस्कार बढ़ने से समाज के सामने अनेक दूसरी कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती है। भारत की जनजातियों में उनका धर्म और जादू उनके स्थानीय अनुभवों और आवश्यकताओं से सम्बन्धित रहा है। इस प्रकार उनका जीवित सत्तावाद और मानावाद उनके समाज के लिए जो कार्य कर सकता है, वह कार्य हिन्दू धर्म का दर्शन अथवा ईसाई धर्म का मानवतावादी पहलू नहीं कर सकता। जनजातीयों के जादू सम्बन्धी विश्वास उनकी बीमारियों को दूर करने में महत्वपूर्ण सिद्ध हुए थे तथा धार्मिक विश्वासों के द्वारा सामाजिक आदर्श-नियमों को संरक्षण मिलता रहा था। जब सस्कृतीकरण के प्रभाव से एक जनजाति के अन्दा कुछ व्यक्ति अपने धार्मिक विश्वासों में सन्देह करके उनका तिरस्कार करने लगे, तब उनके सांस्कृतिक आदर्श-नियमों पर इससे प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। सामाजिक मूल्यों में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाने के कारण उनका सामाजिक ढाँचा भी टूटने लगा। इसके अतिरिक्त संस्कृतीकरण के फलस्वरूप जनजातीयों में नयी बीमारियों का प्रवेश हुआ जिन्हें जादू के अभाव में उनके नये ज्ञान से दूर नहीं किया जा सकता था। इस प्रकार नये धार्मिक विश्वास उनकी स्थानीय आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सके।
(4) राजनीतिक विघटन-
जनजातियों में संस्कृतीकरण की प्रक्रिया तब और अधिक सष्ट हो गयी जब ब्रिटिश सरकार ने इनकी राजनीतिक संस्थाओं, अर्थात् सरकार और कानून में हस्तक्षेप करना शुरु किया। यह कार्य जनजातियों को यह विश्वास दिलाकर किया गया कि उनकी राजनीतिक संस्थाओं में परिवर्तन होने से वे सामाजिक शोषण से बच जायेंगे। इससे उनका सामाजिक शोषण तो समाप्त नहीं हुआ, लेकिन उनके सामने मानसिक तनाव और निराशा की समस्या पहले से भी अधिक गम्भीर हो गयी। इसके फलस्वरूप जनजातियों के शान्त जीन में भी आन्दोलनकारी प्रवृत्तियों का विकास हुआ। यद्यपि ऐसे आन्दोलनों से कोई लाभ तो नहीं मिला, लेकिन वे अपनी सामाजिक समस्याओं को सुलझाने में पहले से भी अधिक कमजोर हो गयी।
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