दुर्खीम द्वारा प्रतिपादित धर्म के सामाजिक सिद्धान्त
दुर्खीम द्वारा प्रतिपादित धर्म के सामाजिक सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
दुर्खीम द्वारा धर्म का सामाजिक सिद्धान्त (Social Theory of Religion) – दुर्खीम (Emile Durkheim) ने अपनी पुस्तक “The Elementary Forms of Religious Life” (धार्मिक जीवन के प्रारम्भिक स्वरुप) में धर्म की उत्पत्ति ‘सामूहिक प्रतिनिधान’ अथवा सामाजिक आधार पर प्रस्तुत किया है। दुर्खीम का विश्वास था कि टायलर, मैरेट अथवा मैक्समूलर के विचारों के अनुसार धर्म को आत्मा, ‘माना’ और प्राकृतिक शक्तियों के आधार पर समझना अत्यधिक भ्रमपूर्ण है। वास्तव में धर्म पूर्णतया एक सामाजिक तथ्य है और वह इस कारण कि यह सामूहिक चेतना का प्रतीक है। इसी आधार पर दुर्थीम का विचार है कि समाज ही धर्म का एकमात्र मूल स्त्रोत है। यहाँ तक कि स्वर्ग का साम्राज्य भी एक गौरवान्वित समाज के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। (The kingdom of heaven is nothing but a glorified society)। समाज ही देवता है और समाज ही धार्मिक क्रियाओं का आधार है। समाज की सेवा करना ही वास्तविक धर्म है और इसको हानि पहुँचाना ही पाप अथवा अधर्म कहा जा सकता है।
इस विचारधारा को स्पष्ट करने के लिए दुर्खीम ने कहा कि सम्पूर्ण सामाजिक तथ्यों को चाहे वे सरल हों या जटिल, वास्तविक हो या अवास्तविक, दो प्रमुख भागों में बाँटा जा सकता है। (क) साधारण (perfane), तथा (ख) पवित्र (sacred)। दुर्खीम के अनुसार, सभी धर्मों का सम्बन्ध पवित्र समझी जाने वाली वस्तुओं से है, लेकिन इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि सभी पवित्र वस्तुएँ धार्मिक या ईश्वरीय होती है, यद्यपि सभी धार्मिक घटनाएँ पवित्र अवश्य होती हैं। ये पवित्र घटनाएँ सामूहिक चेतना का प्रतिनिधित्व करती हैं और इसी कारण व्यक्ति इनसे प्रभावित होते हैं।
किसी समाज के सदस्य जिन वस्तुओं अथवा घटनाओं को पवित्र समझते हैं, उन साधारण (profane) अथवा अपवित्र समझी जाने वाली घटनाओं से पृथक रखते हैं और प्रकार उनकी रक्षा करते हैं। ऐसा करने के फलस्वरूप ही उनके विश्वासों, सरकारों तथा आचरणों का विकास होता है जो बाद में धार्मिक क्रियाओं का रुप ले लेते हैं। आदिम समाजों में अनेक ऐसी प्रथाएँ तथा संस्कार मिलते हैं जिनमें आज भी सामूहिक शक्ति की पूजा की जाती है। ऑस्ट्रेलिया की अरुण्टा (Arunta) जनजाति के अध्ययन से ज्ञात होता है कि इस जनजाति में सामाजिक उत्सवों के अवसर पर गोत्र के जब सभी सदस्य एकत्रित होते हैं तो प्रत्येक सदस्य को सामूहिक शक्ति की अपेक्षा अपनी शक्ति बहुत गौण मालूम होती है और इस कारण प्रत्येक व्यक्ति उस सामूहिक शक्ति के सामने नतमस्तक हो जाता है। दुर्खीम के शब्दों में, “एक दुनिया (समाज) तो वह है जिसमें उसका प्रतिदिन का जीवन नीरस रुप से व्यतीत होता है लेकिन दूसरी दुनिया वह है जिसमें व्यक्ति उस समय तक प्रवेश नहीं कर सकता जब तक कि उसका सम्बन्ध ऐसी असाधारण शक्तियों से न हो जाए जिसमें वह अपने अस्तित्व को ही न भूल जाये। पहली दुनिया साधारण (profane) है और दूसरी दुनिया पवित्र (sacred)।
आदिम समाज ने ‘पवित्र’ तथा ‘साधारण’ के बीच किस प्रकार भेद करना सीखा? इसे दुर्खीम ने टोटमवाद के आधार पर स्पष्ट किया है। आपके अनुसार टोटमवाद के आधार पर साधारण तथा पवित्र घटनाओं में भेद किया जा सकता है तथा टोटमवाद ही समस्त धर्मों का प्राथमिक रुप है।
टोटमवाद की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं :-
(1) टोटम कोई भी वह पशु, पौधा अथवा निर्जीव पदार्थ है जिससे जनजातियाँ अपना एक रहस्यपूर्ण सम्बन्ध मानती हैं।
(2) इन रहस्यात्मक सम्बन्धों के आधार पर विश्वास किया जाता है कि टोटम गोत्र की रक्षा करता है, सदस्यों को चेतावनी देता है तथा भविष्य की घटनाओं की ओर संकेत करता है।
(3) टोटम के प्रति सदस्यों की भावना भय, श्रद्धा तथा सम्मान से युक्त होती है और इसी कारण टोटम को मारना अथवा हानि पहुँचाना समूह द्वारा निषिद्ध (prohibited) होता है।
(4) टोटम को सामान्य पूर्वज के रुप में स्वीकार किया जाता है। इस आधार पर एक टोटम से सम्बन्धित सभी स्त्री व पुरुष आपस में अपने भाई-बहन मानते हैं। टोटम के प्रति सदस्यों का रहस्यात्मक तथा घनिष्ठ आध्यात्मिक सम्बन्ध पवित्रता की धारणा को जन्म देता है और इस प्रकार टोटम अपने से सम्बन्धित सभी सदस्यों को एक नैतिक समुदाय में बाँध देता है।
दुर्खीम का विचार है कि इस टोटमवाद की धारणा को ही समस्त धर्मों की उत्पत्ति का आधार माना जाना चाहिए क्योंकि टोटम ही समूह के नैतिक जीवन का सामूहिक प्रतिनिधत्व (collective representation) करता है। टोटम की प्रकृति सामाजिक होने के कारण धर्म का मूल स्त्रोत भी समाज ही है और ईश्वर समाज की केवल एक प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है (God is a symbolic expression of society itself)। इस धारणा के द्वारा दुर्थीम ने धर्म तथा जादू के अन्तर को भी स्पष्ट किया है – यद्यपि जादू में भी धर्म की भाँति ही अनेक विश्वास, संस्कार तथा अनुष्ठान आदि सम्मिलित किये जाते हैं, लेकिन जादू मौलिक रुप से वैयक्तिक (individualistic) है और इसी कारण अपने मानने वालों को एक नैतिक समुदाय से सम्बद्ध नहीं करता जबकि धर्म का वह प्राथमिक तथा महत्त्वपूर्ण कार्य है। इसी कारण दुर्खीम ने धर्म की परिभाषा देते हुए कहा, “धर्म पवित्र वस्तुओं से सम्बन्धित विश्वासों तथा क्रियाओं की वह सम्पूर्ण व्यवस्था है जो अपने सदस्यों के एक नैतिक समुदाय में बाँधती है।”
दुर्खीम ने स्वयं अपने सिद्धान्त के कुछ निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए कहा है, “धर्म का खोत स्वयं समाज है, धार्मिक धारणाएँ समाज की विशेषताओं के प्रतीक के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं, ईश्वर अथवा पवित्रता की धारणा केवल समाज का ही पर्याय है, और धर्म के आवश्यक कार्य केवल समाज में एकता, स्थायित्व तथा निरन्तरता बनाये रखने के लिए ही है। इसी कारण इतिहास में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। सोरोकिन के अनुसार, “दुर्खीम ने धर्म का एक सुगठित समाजशास्त्रीय सिद्धान्त (harmonius sociologistic theory) प्रस्तुत किया है।
समालोचना – दुर्शीम ने अपने विचारों को यद्यपि समाजिक आधार पर स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है, लेकिन फिर भी अलेक्जण्जडर गोल्डेनवीजर (Alexander Golden weiser) ने कुछ आधारों पर दुर्खीम के विचारों की आलोचना की है। सर्वप्रथम यह कहना युक्तिसंगत नहीं होता कि टोटम ही सभी धर्मों का मूल आधार है क्योंकि आदिम समाजों की अपने घटनाएँ इसे प्रमाणित नहीं करती हैं विशेषकर उन समाजों में जहाँ धर्म व टोटम दो पृथक् तत्व हैं। इसके अतिरिक्त ‘पवित्र’ तथा ‘साधारण’ की धारणा, जिसके ऊपर धर्म का सामाजिक सिद्धान्त बहुत बड़ी सीमा तक आधारित है, आदिम समाजों में तो सम्भव है, लेकिन वर्तमान युग समाजों में इसका तनिक भी व्यावहारिक महत्त्व सिद्ध नहीं होता। इस प्रकार गोल्डेनवीजर का विचार है कि समाजिक तथ्य धर्म की उत्पत्ति में सहायक अवश्य हो सकते हैं, लेकिन इनको धर्म की उत्पत्ति का एकमात्र आधार किसी प्रकार भी नहीं माना जा सकता। कुछ भी हो, हम यह अवश्य कह सकते हैं कि दुर्शीम ने धर्म के सामाजिक सिद्धान्त द्वारा इसके तार्किक पहलू को स्पष्ट करने का सराहनीय प्रयत्न किया है।
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