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आदिम/ जनजातिय धर्म क्या है? टाइलर के धर्म सम्बन्धी विचार | Meaning of tribal religion and ideas of Taylor’s religion in Hindi

आदिम/ जनजातिय धर्म क्या है?

आदिम/ जनजातिय धर्म क्या है?

आदिम/ जनजातिय धर्म क्या है?

आदिम/ जनजातिय धर्म क्या है? टाइलर के धर्म सम्बन्धी विचारों की विवेचना कीजिए।

आदिम/ जनजातिय धर्म – वर्तमान समय में दुनिया के लगभग सभी समाजों में किसी न किसी रुप में धर्म के प्रति विश्वास विद्यमान है। सरल समाजों में क्षेत्रीय अनुसंधान करते समय मानववेत्ता यह जानने का प्रयास करते हैं कि लोगों के विश्वास क्या है? वे क्या सोचते हैं और यथा-संसार क्या है? इसकी उत्पत्ति कैसे हुई? लोग इस संसार में कैसे आये? जीवन-मरण क्या है? आदि। धर्मशास्त्र के विशेषज्ञों ने इसे ‘महान-रहस्य’ की संज्ञा दी है। जब किसी समाज विशेष की संस्कृति लोगों को मनुष्य से परे की शक्ति की ओर (अलौकिक) सोचने के लिए प्रेरित करते है, तो हम कह उठते हैं कि यही धर्म है। थोड़े शब्दों में अलौकिकता के प्रति विश्वास ही धर्म है।

धर्म के सम्बन्ध में टाइलर के विचार – धर्म के सम्बन्ध में सबसे पहला मानवशास्त्रीय विचार एडवर्ड टाइलर द्वारा प्रस्तुत किया गया।

टाइलर ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक आदिम संस्कृति के आधे से अधिक भाग में आदिम धर्म के संबंध में अपना विचार प्रस्तुत किया है। उसने अपने समकालीन विचार का विरोध किया जो धर्म की व्याख्या लिखित सामाग्री के आधार पर करना चाहते थे। उसने बतलाया कि बाहा रुप से धर्म की बहुलता दिखाई पड़ती है, किन्तु इन सभी के गर्भ में एक विचार अंतनिर्हित रहा है, इसे टाईलर ने आत्मा (या जीव) में विश्वास’ कहा है। उसने अलौकिकता में विश्वास तथा पूजा जैसी क्रियाओं पर जोर दिया। धर्म की न्यूनतम परिभाषा उसने यों दी – “धर्म पारलौकिक प्राणियों में विश्वास का नाम है।” टाईलर ने एक शब्द ‘एनीमिज्म’ का प्रयोग किया जिसका अर्थ सभी प्रकार की देवी शक्तियों में विश्वास बताया है। इसे जीववाद का सिद्धान्त कहा गया है।

अपने सिद्धान्त के पक्ष में टाईलर ने दो प्रकार के विचार प्रस्तुत किये : पहला – आत्मा का सिद्धान्त, जिसमें यह विश्वास था कि मनुष्यों की आत्माएँ होती हैं जो मरने के बाद भी शेष रहती हैं। दूसरा – प्रेतों का सिद्धान्त, जो मूर्त दैवी शक्तियों के अस्तित्व पर अवलंबित है। टाईलर के मतानुसार इस प्रकार के विश्वास विश्वव्यापी मानव-अनुभवों से ही उत्पन्न हुए होंगे। जब कोई आदमी करता है तो कोई तत्व उसके शरीर से अलग हो जाता है। नींद, बेहोशी या उन्माद के समय ऐसा ही होता है। निद्रावस्था में, स्वप्न के समय लोग अपने पूर्वजों या सम्बन्धियों को देखते हैं, उनसे बातें करते हैं और अपने को विचित्र स्थानों में पाते हैं। ऐसे अनुभवों की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है मानव शरीर के भीतर आत्मा रहती है जो स्थायी या अस्थायी रुप से छोड़कर अन्यत्र जा सकती है। चूँकि आत्मा मरती नहीं इसी कारण मृतकों की पूजा की भावना उत्पन्न हुई। टाईलर ने पूर्वजों की (मृतक) पूजा को ही धर्म का प्रारंभिक रुप बताया। समाधि या कब्र को प्रारंभिक मंदिर बतलाया। मानव जीवन में प्रेतात्माओं की भूमिका का विश्वास ही जीववाद (एनीमिज्म) कहा गया है।

जीववाद की धारणा से ही प्रकृति-पूजा आरम्भ हुई। प्रकृति में विद्यमान सभी वस्तुओं (पेड़, पौधों, नदी, पशु) में आत्माएँ होती हैं और इसी कारण इनकी पूजा की जाती है।

टाईलर के मतानुसार समय के दौरान धार्मिक विश्वासों एवं प्रकारों का विकास भी होता रहा। इस विकास की दशा बहुदेववाद से एकदेववाद की ओर रही है।

टाईलर के धर्म सम्बन्धित विचारों का खण्डन हुआ है। आलोचक ऐसा कहते हैं कि टाईलर ने आदिम मानवों का जो दार्शनिक रुप दिया, वह सही नहीं है। प्रारंभिक मानव इतना विवेकशील नहीं था जितना टाईलर ने बतलाया है। उसने धर्म के एक पक्ष आत्मा और प्रेतात्माओं में विश्वास पर आवश्यकता से अधिक महत्व दिया। धर्म के सामाजिक पक्ष पर उसने कहा। फिर भी ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि टाईलर का सिद्धान्त अर्थहीन है। तथ्य यह है कि उसके विचारों का समावेश समकालीन मानववेत्ता अपनी लेखनी में अवश्य करते हैं।

रॉबर्ट मैरेट ने टाईलर के विचारों का खण्डन करते हुए बताया कि आत्मा या प्रेतों में विश्वास किये बिना ही धार्मिक विश्वास’ उत्पन्न हो सकते हैं। मिलनेशिया में प्रचलित एक विश्वास, जिसे माना’ कहा जाता है, के अनुसार लोग अमूर्त शक्ति में विश्वास करते हैं। यह शक्ति (बिजली के प्रवाह की तरह) लाभप्रद और खतरनाक, दोनों ही है। यह शक्ति केवल दैवी ही नहीं है यह निर्जीव वस्तुओं में भी पायी जाती है। मिलेनिशिया का उदाहरण देते हुए मैरेट ने बताया कि देवी शक्ति से स्वतंत्र एक ऐसी शक्ति भी है जो किसी व्यक्ति या वस्तु में निहित होती है। उदाहरण किसी विशेष व्यक्ति के पास एक ऐसी शक्ति होती है कि उसके छुने मात्र से मृतक जीवित हो उठता है या जीवित मर जाता है। एक विशेष हथियार की अद्भुत शक्ति से तरह-तरह का काम सम्पन्न होता है, जैसे-जानवरों या पशुओं को मारा जाता है या लकड़ियों को कांट-छांट कर एक विशेष रूप दिया जाता है। मैरेट के मतानुसार इन चीजों में छिपी शक्ति ‘माना’ है और यही धर्म का प्रारंभिक रुप है। उसके अनुसार धर्म का मूल स्रोत अनुभव जगत के प्रति बौद्धिक नहीं, भावात्मक उद्गार है। मैरेट ने इसे ‘पूर्व-जीववाद’ की संज्ञा दी है। पश्चिमी देशों (और इन्हीं का अनुकरण करते हुए विकासशील देशों) में आधुनिक दवाओं का ‘नाना’ कहा जा सकता है क्योंकि जो लोग विटामिन की गोलियों का सेवन करते हैं वे जानते हैं कि गोलियों में वह शक्ति है जिससे भले-चंगे रहते हैं, साबुन की टिकियों में सफाई की शक्ति है। पेट्रोल में खींचने की शक्ति है। इसी तरह एक व्यक्ति विशेष (मुखिया) में लोगों को प्रभावित करने की शक्ति है। अगर शक्ति के प्रति विश्वास (माना) को धर्म की संज्ञा दी जाये तो सभी परम्परागत विश्वास धर्म ही कहा जायेगा, और ‘माना’ के सामने ‘विज्ञान’ की बातें नगण्य हो जायेगी।

कुछ विद्वानों का मत है कि धर्म की व्याख्या करते समय प्राकृतिक और आलौकिक विश्वासों में अंतर जरुरी है क्योंकि कुछ समाजों में इन दोनों में स्पष्ट भेद है। पश्चिमी न्यूगिनी के पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाली जनजातियों में गुरुरुम्बा प्रमुख है। फिलिप न्यूमैन के एक अध्ययन में यह बताया गया है कि गुरुरुम्बा के दृष्टिकोण से प्राकृतिक और अलौकिक विश्वासों में कोई स्पष्ट अंतर नहीं है किन्तु पश्चिमी समाजों की भाषा में अलौकिकता का जो अर्थ लिया जाता है वह गुरुरुम्बा में विद्यमान है।

रॉबर्ट मैरेट, अलेक्जेन्डर, गोल्डेन-वाईजर तथा रॉबर्ट लोवी जैसी मानववेत्ताओं की राय में धर्म का विशिष्ट तत्व ‘धार्मिक अनुभव’ है। धार्मिक वह संवेगात्मक स्थिति है जो व्यक्तियों में पायी जाती है। लोवी ने अपनी पुस्तक ‘आदिम धर्म’ (1948) में लिखा है कि धार्मिक स्थिति, व्यक्ति की वह मनः स्थिति है जो विस्मय और डर’ से युक्त है। यह वैसी मनःस्थिति है जिसे अपूर्व, विचित्र, पवित्र और दैविक माना जाता है।

प्रसिद्ध फ्रांसिसी समाजशास्त्री ईमाइल दुर्थीम ने भी धर्म की व्याख्या उपरोक्त दृष्टिकोण से की है। दुर्थीम के मतानुसार प्रत्येक समाज में दो तरह की विश्वास पद्धतियाँ हैं – पवित्र (सेक्रेड) और लौकिक (प्रोफेन)। पवित्र विश्वास युक्त कर्म लौकिक विश्वास या कर्मों के विपरीत होते हैं, दुर्थीम का महत्वपूर्ण योगदान यह था कि उसने पवित्र विश्वासों को समाज द्वारा संरक्षित एवं नियंत्रित करना बताया। उसके अनुसार लोग किसी अलौकिक सत्ता के प्रति कुछ अनुभव करते हैं। दरअसल वे सामाजिक जीवन की शक्तियों का अनुभव कर रहे होते हैं फलस्वरुप पवित्र क्रियाओं के द्वारा सांकेतिक रुप से समाज पर आश्रित होना ही प्रदर्शित करते हैं। दुर्थीम के मतानुसार ईश्वर की आराधना वास्तव में ‘समाज की आराधना है।’

दुर्थीम ने अपनी पुस्तक ‘धार्मिक जीवन के प्रारम्भिक स्वरुप’ (1912) में ऑस्ट्रेलिया तथा अन्य स्थानों के कुछ ऐसे समाजों का चित्रण किया है जिनकी धार्मिक क्रियाएं टोटमवाद थी। टोटमवाद से अभिप्राय किसी समाज के सामाजिक संगठन के साथ जुड़ी एक विशेष प्रकार की अलौकिकता से है। अध्ययन द्वारा ऐसा पाया गया है कि गोत्र प्रधान वाले समाजों में गोत्र का संबंध कतिपय पशुओं, पौधों या प्राकृतिक पदार्थों में से किसी एक के साथ हैं।

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