प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद से सम्बन्धित प्रमुख मान्यताएँ
प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद (Symbolic interactionism) जिन मुख्य विचारों और अवधारणाओं से सम्बन्धित है, उनका हरबर्ट ब्लूमर, मीड, गॉफमैन तथा अनेक दूसरे लेखकों ने कुछ भिन्न-भिन्न ढंग से उल्लेख किया है। इनके विचारों के आधार पर प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद से सम्बन्धित मुख्य अवधारणाओं को निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है।
(1) मन (Mind) –
प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद इस मान्यता पर आधारित है कि प्रत्येक मनुष्य में सोचने और विचार करने की क्षमता होती है। विचार करने की क्षमता का सम्बन्ध माव के मन से होता है। मन के बारे में प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावादियों के विचार सामान्य मनोवैज्ञानिकों से भिन्न है। उनके अनुसार मन (mind) तथा मस्तिष्क (Brain) एक-दूसरे से भिन्न दशाएँ हैं। मस्तिष्क हमारी जीव-रचना का एक विशेष अंग है जिसकी एक विशेष बनावट होती है। दूसरी ओर मन का कोई भौतिक आकार नहीं होता बल्कि यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसका निर्माण और विकास सामाजिक अन्तःक्रियाओं, सामाजिक सीख और एक विशेष संस्कृति से सम्बन्धित प्रतीकों के आधार पर होता है। मन के अनुसार ही हम एक विशेष क्रिया का एक विशेष अर्थ लगाते हैं, एक विशेष ढंग से व्यवहार करते हैं तथा स्वयं अपने आपसे बात करते हैं अथवा अपने व्यवहारों का स्वयं मूल्यांकन करते हैं। मन के आधार पर ही हम किसी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति को अच्छा या बुरा समझते हैं। यह सच है कि मन के विकास के लिए मस्तिष्क का होना जरूरी है लेकिन यह जरूरी नहीं है कि जिस प्राणी में मस्तिष्क हो, उसमें मन का विकास भी जरूर होगा। मनुष्य के अतिरिक्त अधिकांश दूसरे जीवों में मस्तिष्क तो होता है लेकिन मन नहीं होता। अन्तः क्रियावादियों के अनुसार मानव व्यवहार का आधार मुख्य रूप से उसका मन है।
(2) सोचना तथा अन्तःक्रिया (Thinking and Interaction) –
मन के अनुसार व्यक्ति में जो विचार पैदा होते हैं, उन्हीं के अनुसार व्यक्ति में सोचने अथवा चिन्तन करने की प्रक्रिया विकसित होती है। चिन्तन अथवा विचारों के बारे में परम्परागत समाजशास्त्रियों तथा प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावादियों के विचार एक-दूसरे से भिन्न हैं। परम्परागत समाजशास्त्री यह मानते हैं कि लोगों के व्यवहार समाजीकरण की प्रक्रिया के अनुसार विकसित होते हैं तथा सामाजीकरण के द्वारा ही व्यक्ति विभिन्न प्रकार की भूमिकाओं एवं उनके अर्थ समझता है। प्रतीकात्मक अन्तः क्रियावादी यह मानते हैं कि समाजीकरण एक गतिशील प्रक्रिया है। जिसके अन्तर्गत कर्ता कुछ विशेष भूमिकाओं और व्यवहारों को सीखने के साथ ही अपनी आवश्यकताओं के अनुसार उनमें परिवर्तन भी करता है। लोगों की अन्तःक्रिया के अनुसार जैसे-जैसे उनके सोचने या विचार करने के ढंग में परिवर्तन होता है, उसी के अनुसार सामाजिक सीख की प्रक्रिया भी बदलने लगती है। इसका तात्पर्य है कि स्वयं सामाजीकरण का आधार भी व्यक्तियों के बीच होने वाली वे अन्तः क्रियाएँ हैं जिनका अर्थ प्रतीकों के अनुसार निर्धारित होता है। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति के सोचने की क्षमता अथवा उसके विचारों की प्रकृति अन्तःक्रियाओं के अनुसार ही निर्धारित होती है।
(3) अर्थ एवं प्रतीक (Meaning and Symbols) –
प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद के अन्तर्गत प्रत्येक क्रिया के अर्थ और उससे सम्बन्धित प्रतीकों को परस्पर निर्भर माना गया है। यह पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि प्रत्येक क्रिया का उसे करने वाले व्यक्ति अर्थात् कर्ता के लिएए एक विशेष अर्थ होता है तथा इस अर्थ को व्यक्ति विभिन्न प्रतीकों के द्वारा प्राप्त करता है। “प्रतीक वे सामाजिक वस्तुएँ या विशेषताएँ हैं जिनका उपयोग व्यक्तियों की सहमति और भावनाओं का प्रतिनिधित्व करने के लिए किया जाता है।”1 स्वास्तिक अथवा ‘ॐ’ या क्रॉस का चिन्ह केवल कला या सजावट से सम्बन्धित वस्तुएँ ही नहीं होती बल्कि इनका उपयोग करने वाले लोगों के लिए इनका एक विशेष अर्थ होता है। सभी प्रतीक लोगों को एक विशेष स्थिति को एक विशेष ढंग से समझने की क्षमता प्रदान करते हैं। चौराहे पर लगी लाल, पीली और हरी बत्ती के जलने का हमारे लिए यातायात के नियमों के अनुसार एक विशेष अर्थ होता है। इसी तरह भाषा एक ऐसा प्रतीक है जो कुछ शब्दों के माध्यम से व्यक्ति को एक विशेष क्रिया करने का संकेत देती है। प्रतीक का तात्पर्य केवल कुछ वस्तुओं से ही नहीं होता बल्कि व्यक्ति की वेशभूषा, हाव-भाव तथा व्यवहार के तरीके भी कभी-कभी प्रतीक के रूप में दूसरे की क्रियाओं को प्रभावित करते हैं। जब एक पुरूष किसी महिला की ओर एक विशेष ढंग से देखता या बात करता है तो (reaction) की जाती है। वास्तव में प्रतीकों का उपयोग व्यक्ति अपनी इच्छानुसार नहीं करता महिला द्वारा उसके एक विशेष अर्थ को समझकर उसके समर्थन या विरोध में एक विशेष अनुक्रिया बल्कि प्रतीकों का विकास सामाजिक अन्तःक्रियाओं के दौरान होता है। हम केवल उनके अर्थ को समझकर आवश्यकता और परिस्थिति के अनुसार उनका उपयोग मात्र करते हैं।
(4) क्रिया एवं आन्तरिक व्यवहार (Action and Covert Behaviour ) –
सभी सामाजिक विचारक यह मानते है कि मानव व्यवहारों को दो मुख्य भागों में बाँटा जा सकता है। वाहा व्यवहार तथा आन्तरिक व्यवहार वाह्य (overt behaviour) वह जो हम प्रकट रूप ससा के प्रति एक विशेष क्रिया के रूप में करते हैं। दूसरी ओर आन्तरिक व्यवहार (covert behaviour) वह होता है जो हमारे हाव-भाव या क्रिया के रूप में स्पष्ट नहीं होता बल्कि हमारे मन में विद्यमान होता उससे दुराचार है। उदाहरण के लिए प्रकट रूप से हम किसी के प्रति हँसते हुए विनम्रतापूर्वक सहानुभूति और सहायन का व्यवहार कर सकते हैं लेकिन यह सम्भव है कि आन्तरिक रूप से हम यह सोचते हों कि व्यक्ति को अपने सम्पर्क में लाकर हम किस तरह उससे बदला ले सकते हैं अथवा करने का अवसर पा सकते हैं। सामान्य जीवन में अधिकांश व्यक्ति इस तरह की क्रियाएँ करता है जिसके द्वारा दूसरे व्यक्तियों का उपयोग एक साधन के रूप में किया जा सकता है। इसका तात्पर्य । कि व्यक्ति के वाह्य व्यवहारों में प्रकट क्रियाओं की तुलना में अप्रकट क्रियाओं का समावेश अधिक होता है। अन्तःक्रियावादी यह मानते हैं कि सामाजिक यथार्थ को समझने के लिए इन अप्रकट क्रियाओं अथवा आन्तरिक व्यवहारों को समझना आवश्यक है। इन्हीं के आधार पर हम एक विशेष सामाजिक परिवेश को अधिक व्यावहारिक रूप से समझ सकते हैं।
(5) स्व अथवा आत्म (Self ) –
प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद के अन्तर्गत स्व अथवा आत्म की अवधारणा का विशेष महत्व है। अन्तःक्रियावादी स्व को एक ऐसे केन्द्र बिन्द के रूप में देखते हैं जिसके आधार पर ही सभी सामाजिक प्रक्रियाओं और मानवीय व्यवहारों को समझा जा सकता है। स्व की प्रकृति की विस्तृत विवेचना हम हरबर्ट मीड के विचारों के अन्तर्गत करेंगे। यहाँ पर हमारा उद्देश्य केवल प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद से सम्बन्धित एक मुख्य अवधारण के रूप में स्व अथवा आत्म’के सामान्य अर्थ को समझना है। वास्तव में हममें से प्रत्येक व्यक्ति में दूसरों के साथ की जाने वाली क्रियाओं के दौरान एक ऐसा भाव विकसित होता है कि दूस व्यक्ति हमें किस रूप में देखते हैं। उनके विचारों के सन्दर्भ में हम स्वयं के बारे में जो पहचान विकसित करते हैं, उसी को स्व कहा जाता है। कोहेन (Cohen) ने अपने अध्ययन में यह पाय कि अधिकांश लोग अपनी आयु, लिंग, धर्म, व्यवसाय, पारिवारिक पृष्ठभूमि अथवा समूह प्रकृति के आधार पर अपने बारे में एक विशेष मनोवृत्ति विकसित करते हैं।
( 6 ) सामाजिक संगठन ( Social Organization) –
फ्रान्सिस अब्राहम ने लिख है कि प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद के अनुसार सामाजिक संगठन को मुख्य रूप से एक सावयव प्रक्रिया के सन्दर्भ में देखा जाता है। इसके अनुसार सामाजिक संगठन का सम्बन्ध एक जटित व्यवस्था के अन्तर्गत व्यक्तियों की उन पारस्परिक क्रियाओं से है जिनमें प्रत्येक व्यक्तिगत व्यवहा की विवेचना और मूल्यांकन एक विशेष ढंग से किया जाता है। इस दृष्टिकोण से सामाजिक संरचन को भी सामाजिक संगठन के एक प्रतिमान के रूप में देखकर इसका विश्लेषण किया जाने लगता है। अन्तःक्रियावादी यह मानते हैं कि व्यक्तियों के बीच होने वाली अन्तःक्रियाओं के अर्थ तथा नसे सम्बन्धित प्रत्याशाओं में परिवर्तन होते रहने के कारण सामाजिक संरचना में भी परिवर्तन होता रहता है। इसका तात्पर्य है कि सामाजिक संगठन भी एक परिवर्तनशील दशा है।
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