समाजशास्‍त्र / Sociology

रेडक्लिफ ब्राउन के सामाजिक संरचना सिद्धान्त | Radcliffe Brown’s social structure theory

रेडक्लिफ ब्राउन के सामाजिक संरचना सिद्धान्त 

रेडक्लिफ ब्राउन के सामाजिक संरचना सिद्धान्त

रेडक्लिफ ब्राउन के सामाजिक संरचना सिद्धान्त 

अपनी एक कृति (1950) में रेडिक्लिफ ब्राउन ने स्पष्टतः लिखा है कि ‘अत्यधिक संरचनाओं के अन मनुष्य ही है और स्वयं संरचना संस्थात्मक रूप में परिभाषित तथा नियमित सम्बन्धों के अन्तर्गत व्यक्तियों का एक व्यवस्थित रूप या क्रमबद्धता है।’ आपने यह भी लिख है कि प्रत्यक्ष निरीक्षण से हमें ज्ञात होता है कि मनुष्य परस्पर सामाजिक सम्बन्धों के जटिल जाल द्वारा एक-दूसरे से सम्बन्धित है। वास्तविक रूप में विद्यमान सम्बन्धों के इस जाल को दर्शाने के लिए ‘सामाजिक संरचना’ वाक्यांश का प्रयोग किया गया है। परन्तु स्मरण रहे कि सम्बन्धों के इस जाल को बनाने वाला स्वयं मनुष्य ही है और सम्बन्धों का ताना-बाना उन्हीं मनुष्यों के बीच में होता है। सामाजिक अन्तःक्रियाओं के दौरान ये सम्बन्ध अधिक स्पष्ट तथा नियमित हो जाते हैं। या यूँ कहिए कि सामाजिक संस्थाओं द्वारा ये सम्बन्ध परिभाषित तथा नियमित हो जाते हैं। इस प्रकार परिभाषित व नियमित सम्बन्ध समाज के सदस्यों को एक निश्चित ढंग से व्यवस्थित का देता है। व्यक्तियों या समाज के सदस्यों का यह व्यवस्थित रूप हो सामाजिक संरचना है।

इस एक-दूसरे प्रकार से भी प्रस्तुत किया जा सकता है। संस्थागत रूप में परिभाषित व नियमित सम्बन्ध व्यक्ति को दूसरे व्यक्तियों से एक निश्चित ढंग से संयुक्त करता है। इस संयुक्तीकरण के फलस्वरूप समाज के सदस्य अपनी समाज-व्यवस्था के अन्तर्गत एक निश्चित ढंगे से सज जाते हैं। इस प्रकार मजे ढंग से या व्यवस्थित रूप से समाज के सदस्य जिस प्रतिमान को बनाते हैं वही सामाजिक संरचना है।

अपने इस मत को अधिक स्पष्ट रूप में समझाने के लिए ब्राउन ने आस्ट्रेलिया तथा अफ्रीका के जनजातीय सम्बन्धों की भी अभिव्यक्ति की है। ये सम्बन्ध एक विशिष्ट ढंग से नातेदारों को एक-दूसरे से संयुक्त करते हैं और उन्हें कतिपय निश्चित स्थिति भी प्रदान करते हैं। इन स्थितियों पर विराजमान ये नातेदार सम्मिलित रूप में जिस प्रतिमान का निर्माण करते हैं उसे नातेदारी संरचना कहते हैं। यही ढंग या क्रमबद्धता सामाजिक जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी देखने को मिलती है। उदाहरण के लिए विवाह को ही लीजिए। दक्षिण अफ्रीका की थोंगा और बाँदू जनजातियों में वधू-मूल्य के रूप में ढोर, जिसे कि ‘लाबोला’ कहा जाता है, देने की प्रथा है। विवाह से सम्बन्धित यह प्रथा अनेक लोगों को एक-दूसरे से संयुक्त करती है और वह इस रूप में कि ‘लाबोला’ को एकत्र करने में केवल एक व्यक्ति के अपने ही परिवार के सदस्य नहीं, बल्कि उसके निकट नाते- रिश्तेदार भी सहायता करते हैं। यही लाबोला वधू के भाई के विवाह के लिए या अन्य किसी निकट नाते-रिश्तेदार के विवाह में सहायता स्वरूप दे दिया जाता है। इस प्रकार विवाह संस्था के द्वारा दो परिवारों के सदस्य सम्बन्धित ही नहीं हो जाते हैं बल्कि उनमें एक का आर्थिक सहयोग भी पनपता है। इस रूप में संस्थागत रूप में परिभाषित व नियमित विवाह सम्बन्ध वह कड़ी बन जाती है जोकि दो परिवारों के सदस्यों को सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र में जोड़ती या मिलाती है और उन्हें कतिपय निश्चित स्थिति प्रदान करती हुई एक विशिष्ट ढंग से व्यवस्थित भी करती है। यह व्यवस्था जिस प्रतिमान का निर्माण करती है वह सामाजिक संरचना की ही एक उप-संरचना होती है जिसकी इकाई या अंग संरचना के अन्तर्गत विभिन्न सामाजिक स्थितियों पर आसीन स्वयं मनुष्य ही है। इसी दृष्टिकोण से लिखी गई अपनी एक कृति Structure and Funcition in Primitive Society (1952) में रेडक्लिफ ब्राउन ने सामाजिक संरचना की अपनी उपरोक्त परिभाषा को कुछ संशोधित रूप में इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि सावयवों के रूप में नहीं अपितु सामाजिक संरचना के अन्तर्गत स्थितियों पर आसीन रहनेवालों के रूप में विवेचित मनुष्यों से ही सामाजिक संरचना बनती है।

ब्राउन के अनुसार सामाजिक संरचना एक गतिशीलता निरन्तरता है। वह एक मकान की संरचना की तरह स्थिर नहीं अपितु जीवित मनुष्य के शारीरिक ढाँचे की भाँति एक गतिशील निरन्तरता है। मनुष्य के सम्पूर्ण जीवनकाल में (अर्थात जन्म से मृत्यु तक) प्रकृति उसके शारीरिक ढाँचे में निरन्तर कुछ-न-कुछ परिवर्तन करती रहती है, उसी प्रकार सामाजिक जीवन में मनुष्य सामाजिक संरचना को भी निरन्तर बदलता रहता है। इस परिवर्तन का तात्पर्य यह नहीं है कि संरचना के आधारभूत तत्व बदल जाते हैं। उदाहरणार्थ, शारीरिक संरचना में जो परिवर्तन होता रहता है उसका तात्पर्य यह नहीं कि दो से चार हाथ बन जाते हैं या पेट बदलकर पैर का रूप धारण कर लेता है। परिवर्तन का अर्थ इन अंगों में होने वाले निरन्तर विकास या विनास से है। बचपन से लेकर युवावस्था तक हाथ, पैर आदि शरीर के विभिन्न अंगों की कार्यक्षमता का विकास होता है और फिर वृद्धावस्था में वही क्षमता धीरे-धीरे क्षीण होती जाती है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ‘संरचना’ स्वयं तो स्थायी है, पर उसके अन्तर्गत दूसरी वस्तुओं में परिवर्तन हो सकता है। यही बात सामाजिक संरचना के सम्बन्ध में भी सत्य है। सामाजिक संरचना मनुष्यों से बनती है। यह संरचना स्वयं तो स्थायी है, पर इसके अन्तर्गत मनुष्य भी स्थायी या अमर हैं ऐसी बात नहीं है, उनमें विकास व विनाश या परिवर्तन निरन्तर ही होता रहता है। समाज में नए सदस्य जन्म लेते हैं, दूसरे समाज या समुदाय से नए सदस्य आते हैं और अपने समुदाय को छोड़कर अन्य समुदाय में आ बसने के लिए लोग चले भी जाते हैं। उसी प्रकार विवाह और विवाह-विच्छेद दोनों ही होते हैं। युद्ध में लोग मरते हैं तो कोई नया आविष्कार करके अमर भी बन जाते हैं। राजा भिखारी बन जाता है तो भिखारी शासक की स्थिति को प्राप्त कर सकता है। समाज के सदस्यों या मनुष्यों में होने वाले इन परिवर्तनों का प्रभाव ‘संरचना’ पर भी पड़ता है। इसके फलस्वरूप ‘वास्तविक संरचना में परिवर्तन हो सकता है और होता भी है परन्तु ‘सामान्य संरचनात्मक स्वरूप’ पूर्ववत  ही बहुत-कुछ स्थिर रहता है। यहाँ ‘वास्तविक संरचना’ से तात्पर्य स्वयं समाज के सदस्य या मनुष्यों से है जिनसे वास्तविक रूप में संरचना बनती है। इस प्रकार यदि हम तुलनात्मक रूप में स्थिर किसी समुदाय में आज जाएँ और दस वर्ष के पश्चात फिर वहाँ जाएँ तो हम निश्चित ही यह पाएँगे किस उस समुदाय के बहुत-से सदस्य मर चुके हैं और अन्य बहुत-से पैदा हो गए है और पुराने जो सदस्य उस समय भी जीवित है वे पहले की अपेक्षा दस वर्ष और बूढ़े हो चुके हैं। अर्थात दस साल बाद उस समुदाय की वास्तविक संरचना में हमें पर्याप्त परिवर्तन देखने को मिलेंगे। परन्तु उस संरचना के आधारभूत स्वरूप बहुत-कुछ पूर्ववत ही रहेंगे। परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि सामान्य संरचनात्मक स्वरूप में कोई परिवर्तन होता ही नहीं। कभी-कभी तो युद्ध, विद्रोह या क्रान्ति के फलस्वरूप संरचनात्मक स्वरूप में भी एकाएक परिवर्तन हो जाता है।

रेडक्लिफ-ब्राउन ने सामाजिक संरचना के स्थानीय पहलू पर भी विचार किया है। उनका कथन है कि ऐसा बहुत ही कम होता है कि कोई समुदाय या समाज संसार के अन्य सभी समाजों से पूर्णतया पृथक हो और उसका उन अन्य समाजों से कुछ भी सम्पर्क न हो। वर्तमान समय में सामाजिक सम्बन्धों का जाल समस्त संसार में फैला हुआ है। फिर भी प्रत्येक सामाजिक संरचना का एक स्थानीय पहलू होता ही है। स्मरण रहे कि हर्षकॉविटस ने, जैसेकि पहले ही लिखा जा चुका है, सांस्कृतिक क्षेत्र का उल्लेख करके संस्कृति की संरचना के एक स्थानीय पहलू के प्रति हमारा ध्यान आकर्षित किया है। ब्राउन ने लिखा है कि अगर हम दो समाजों की सामाजिक संरचना का तुलनात्मक अध्ययन करना से हैं तो यह आवश्यक है कि दोनों ही संरचनाओं के स्थानीय पक्षों पर भी विचार कर लें।

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