समाजशास्‍त्र / Sociology

प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद एवं इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि | Symbolic interactionism in Hindi

प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद

प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद

प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद एवं इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद (Symbolic interactionism) के मुख्य प्रतिपादक हरबर्ट ब्लूमर ने इसकी प्रकृति को उष्ट करते हुए लिखा है, “प्रतीकात्मक अन्तःक्रिया का तात्पर्य व्यक्तियों के बीच होने वाली एक विशेष अन्तःक्रिया से है। यह विशेषता इस तथ्य से सम्बन्धित है कि व्यक्ति एक-दूसरे की क्रिया पर प्रतिक्रिया करने की अपेक्षा प्रत्येक क्रिया का एक विशेष अर्थ लगाकर उसकी व्याख्या भी करते हैं। इस प्रकार मानवीय अन्तःक्रियाओं का सम्बन्ध अनेक प्रतीकों के उपयोग, उनकी विवेचना तथा उनके बारे में लगाये जाने वाले अर्थ से होता है।”1 इस प्रकार ब्लूमर ने यह स्पष्ट किया कि समाज का निर्माण अन्तःक्रिया करने वाले उन व्यक्तियों के द्वारा होता है जिनमें एक- दूसरे की क्रिया को समझने, उसकी अनुभूति करने, व्याख्या करने और स्वयं भी इन्हीं के सन्दर्भ मैं क्रिया करने की क्षमता होती है। इस प्रकार व्यक्ति अपने मन में पहले से ही विकसित हो जाने वाली कुछ मनोवृत्तियों का पुंज मात्र नहीं होता बल्कि वह एक गतिशील कर्त्ता होता है जिसके व्यवहारों अथवा क्रियाओं में सदैव परिवर्तन होता रहता है।

ओल्सेन (Olsen) के शब्दों में, “प्रतीकात्मक सिद्धान्त का सम्बन्ध मुख्य रूप से उन भावनात्मक अर्थों (subjective meanings) से है जो लोग स्वयं अपनी और दूसरे लोगों की क्रियाओं के बारे में लगाते हैं।”2 इससे पुनः यह स्पष्ट होता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने द्वारा की जाने वाली क्रियाएँ एक विशेष अर्थ को लेकर करता है तथा दूसरों की क्रियाओं का भी उसके लिए एक विशेष अर्थ होता है। यह अर्थ मनमाने नहीं होते बल्कि इनका सम्बन्ध समाज के कुछ विशेष प्रतीकों (symbols) से होता है। इसी कारण अन्तःक्रियाओं के अध्ययन की प्रणाली को प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद कहा जाता है।

फ्रान्सिस अब्राहम (Francis Abraham) ने लिखा है, “प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद अमूर्त सामाजिक संरचनाओं, व्यक्तिगत व्यवहार की मूर्त प्रकृति अथवा अनुमानित मानसिक दशाओं से सम्बन्धित न होकर अपना अन्तःक्रिया की प्रकृति, सामाजिक क्रिया तथा सामाजिक सम्बन्ध के गतिशील प्रतिमानों पर केन्द्रित करता है।”3 इस कथन से स्पष्ट होता है कि जिन परम्परावादी समाजशास्त्रियों ने समाजशास्त्र में एक अमूर्त सामाजिक संरचना तथा व्यक्तिगत व्यवहारों के विभिन्न स्वरूपों को अधिक महत्त्व दिया था, उनसे भिन्न, प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद यह मानकर चलता है कि सामाजिक क्रियाओं तथा सामाजिक सम्बन्धों की प्रकृति परिवर्तनशील होती है तथा इन्हीं के आधार पर विभिन्न सामाजिक संरचनाओं तथा सामाजिक प्रक्रियाओं को समझा जा सकता है।

मेनिस तथा मेटजर (Manis and Meltzer) के अनुसार, “प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद मानव व्यवहार के आन्तरिक अथवा प्रघटनवादी रूप से सम्बन्धित अध्ययन का उपागम है।”

बरनार्ड फिलिप्स (Bernard Phillips) के शब्दों में, “प्रतिकात्मक अन्तःक्रियावाद एक सैद्धान्तिक आधार है जो विशेष परिस्थिति, भूमिकाओं एवं स्वयं के बारे में व्यक्ति द्वारा दिये जाने वाले अर्थ को स्पष्ट करता है।”

वास्तव में प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद के अर्थ को समझने के लिए ‘अन्तःक्रिया’ तथा प्रतीक’ के अर्थ को समझना आवश्यक है। अन्तःक्रिया विभिन्न व्यक्तियों के बीच होने वाली वह क्रिया है जिसका क्रिया को करने वाले व्यक्ति के लिए एक विशेष अर्थ होता है। प्रत्येक व्यक्ति दूसरों के प्रति अपने द्वारा की जाने वाली क्रिया तथा अपने बारे में दूसरों की क्रियाओं की एक विशेष अर्थ में व्याख्या करता है। इसी से उसके विभिन्न व्यवहारों की प्रकृति का निर्धारण होता है। व्यक्ति प्रत्येक क्रिया काजी अमालगाताह, उसका सम्बन्ध कुछ विशेष प्रतीकों से होता है।

उदाहरण के लिए जब कोई खी माथे पर लाल बिन्दी लगाती है अथवा माँग में सिन्दूर भरती है। तो यह क्रिया प्रतीकात्मक रूप से स्पष्ट करती है कि वह सुहागन है। इसी तरह जब हम किसी अनुसार इसके अर्थ के हाथ मिलाकर या पैर छूकर उसका स्वागत करते हैं तो सांस्कृतिक प्रतीकों के भिन्न-भिन्न होते हैं। हाथ मिलाने का व्यवहार मित्रता और समानता का प्रतीक है जबकि पैर विभिन्न संस्कारों से सम्बन्धित प्रतीक अलग-अलग होते हैं तथा उन संस्कृतियों से सम्बन्धित किसी को विशेष सम्मान देने का सूचक है। इसी तरह प्रत्येक संस्कृति में मित्रता, विवाह तक लोगों के लिए उनके अर्थ भी एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। प्रत्येक संस्कृति में भाषा, कला और सामाजिक सीख की प्रक्रिया के द्वारा प्रतीकों के अर्थ को स्पष्ट किया जाता है।

प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद की पृष्ठभूमि – समाजशास्त्र के अध्ययन उपागम के रूप में प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद की नींव रखने का श्रेय मूल रूप से चार्ल्स कूले (Charles Cooley) को है। उन्होंने आत्म-दर्पण अथवा स्व-दर्पण की विचारधारा (Looking Glass Self) के द्वारा यह स्पष्ट किया कि प्रत्येक व्यक्ति अपने प्रति दूसरे लोगों की धारणा या प्रतिक्रिया के आधार पर अपने बारे में जो प्रतिमा और विचार विकसित करता है, वही उसका स्त होता है। इसी के अनुसार व्यक्ति के एक विशेष व्यक्तित्व का विकास होता है। कूले के विचारों के आधार पर ही विलियम जेम्स तथा जॉन डीवी ने सामाजिक अन्तःक्रिया के आधार पर व्यक्ति के व्यक्तित्व और समाज को समझने की आवश्यकता पर बल दिया। जार्ज हरबर्ट मीड (GH Mead) उन समाजशास्त्रियों में से एक हैं जो विलियम जेम्स और जॉन डीवी के विचारों से अधिक प्रभावित थे। प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद को विकसित करने में हरबर्ट मीड का योगदान सबसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है। मीड ने सबसे पहले यह स्पष्ट किया कि व्यक्तियों के बीच होने बहुत वाली क्रियाएँ उनके अनुभवों और उद्देश्यों से प्रभावित होती हैं तथा इन्हीं के अनुसार सामाजिक घटनाओं के बारे में व्यक्ति की क्रियाओं के अर्थ बदलते रहते हैं। इन अर्थों को प्रभावित करने में प्रतीकों का एक मुख्य योगदान होता है तथा यह प्रतीक भी उस संस्कृति से सम्बन्धित होते हैं। जिसका निर्माण स्वयं व्यक्तियों की अन्तक्रियाओं और अनुभवों से होता है।

मीड के बाद हरबर्ट ब्लूमर, टर्नर, मन्फोर्ड कुह्न, इरविंग गॉफमैन तथा फ्रेड डेविस जैसे विचारकों ने भी प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद के विकास में विशेष योगदान दिया। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद की विचारधारा का विकास अमरीका के शिकागो विश्वविद्यालय से हुआ था, अतः इसे अक्सर समाजशास्त्र का शिकागो सम्प्रदाय’ भी कह दिया जाता है। धीरे-धीरे इस सम्प्रदाय के विचार इतने प्रभावपूर्ण बनने लगे कि इनके आधार पर अध्ययन के एक नये उपागम का भी विकास होने लगा जिसे हम ‘प्रघटनाशास्त्रीय उपागम’ कहते हैं। एडमण्ड ह्मसर्ल को इस उपागम का जनक माना जाता है। बाद में एलफर्ड शूट्ज, मैक्स शेलर, पीटर बर्जर और डगलस ने भी इस उपागम के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। प्रतीकात्मक अन्तःक्रियावाद तथा प्रघटनाशास्त्र पर आधारित एक अन्य विचारधारा का विकास एल्विन गोल्डनर ने किया जिसे प्रतिवर्ती समाजशास्त्र के नाम से जाना जाता है।

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