समाजशास्‍त्र / Sociology

पारसन्स के सामाजिक नियन्त्रण के साधन | social control of parsons in Hindi

 पारसन्स के सामाजिक नियन्त्रण के साधन

पारसन्स के सामाजिक नियन्त्रण के साधन

 पारसन्स के सामाजिक नियन्त्रण के साधन

पारसन्स का सामाजिक नियन्त्रण साधन का सिद्धान्त उन सामाजिक विधियों या शक्तियों की विवेचना करता है जोकि उन पथ-भ्रष्ट या समाज-विरोधी व्यवहारों पर रोक लगाती हैं जोकि सामाजिक व्यवस्था के संगठन तथा अखंडता को नष्ट करते हैं। प्रत्येक समाज में कुछ ऐसी व्यवहार-प्रवृत्तियाँ सदैव ही क्रियाशील रहती हैं जोकि सामाजिक संगठन तथा सुव्यवस्था को नष्ट करके सामाजिक विघटन को उत्पन्न करती हैं। सामाजिक नियन्त्रण के साधनों का कार्य न समाज-विरोधी प्रवृत्तियों या व्यवहारों की विपरीत दिशा में क्रियाशील रहकर इन प्रवृत्तियों या व्यवहारों पर रोक लगा देना है, ताकि वे अधिक प्रबल या व्यापक न हो सकें। अतः स्पष्ट है कि सामाजिक नियन्त्रण का उद्देश्य समाज में अन्तःक्रियाशील प्रतिक्रियाओं के बीच दृढ़ सन्तुलन को बनाए रखना है, और इस सन्तुलन की स्थिति को किस प्रकार प्राप्त किया जाए और उसे कैसे बनाए रखा जाए यही सामाजिक नियन्त्रण के विश्लेषण में आधारभूत विषय है। परन्तु इसका यह अभिप्राय कदापि नहीं है कि ऐसा भी कोई दोष-शून्य समाज है जिसमें पूर्ण सन्तुलन की अवस्था पाई जाती है। अनुभव तथा प्रत्यक्षमूलक ज्ञान हमें यह बताता है कि वास्तव में कोई भी सामाजिक व्यवस्था पूर्णतया सन्तुलित और संगठित नहीं है। समाज-विरोधी व्यवहार-प्रवृत्तियाँ सदैव ही क्रियाशील रहती हैं और सामाजिक व्यवस्था की ही एक अंग होती हैं। यदि ऐसा न हो तो प्रत्येक समाज में सामाजिक नियन्त्रण की आवश्यकता भी समाप्त हो जाए। समाज-विरोधी व्यवहार प्रवृत्तियों के क्रियाशील रहने के कारण समाज को सामाजिक नियन्त्रण के साधनों को अपनाना पड़ता है और उन व्यवहार-प्रवृत्तियों को ऐसी सन्तुलित अवस्था पर रखना पड़ता है कि सामाजिक व्यवस्था विघटित न हो जाए।

पारसन्स के अनुसार, “सामाजिक नियन्त्रण के आधारभूत साधन संस्थागत रूप में संगठित एक समाज-व्यवस्था की स्वाभाविक अन्तः क्रिया में पाए जाते हैं।” इस कथन का स्पष्टीकरण इस रूप में किया जा सकता है कि प्रत्येक समाज में अनेक व्यक्ति होते हैं, ये सब व्यक्ति अपनी इच्छाओं तथा आवश्यकताओं की पूर्ति या सन्तुष्टि के लिए आपस में स्वतः ही अन्तःक्रिया करते रहते हैं। ऐसा करने को वे बाध्य होते हैं क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपनी समस्त इच्छाओं व आवश्यकताओं की पूर्ति अकेले नहीं कर सकता। इस कारण उसे दूसरों के साथ अन्तः क्रिया सम्बन्ध स्थापित करना ही पड़ता है। इस अन्तः क्रिया के दौरान में अन्तःक्रिया करने वाले व्यक्तियों या कर्ताओं के विचार, भावनाएँ तथा मनोवृत्तियाँ बहुत स्पष्ट हो जाती हैं और उनमें से कुछ अधिकतर लोगों के द्वारा स्वीकृत या मान्य भी हो जाती हैं। यही सामाजिक संस्थाओं का रूप का धारण कर लेती हैं। इस संस्थाओं के आधार पर सामाजिक व्यवस्था का निर्माण होता है जिसमें अपनी इच्छाओं तथा आवश्यकताओं की पूर्ति करने में लगते हुए अनेक व्यक्तियों की अन्तः क्रिया सम्मिलित होती है। इस प्रकार संस्थागत रूप में संगठित एक समाज-व्यवस्था में जो अन्तः क्रिया चलती रहती है। उसी से सामाजिक नियन्त्रण भी होता है। इस प्रकार सामाजिक अन्तः क्रिया सामाजिक नियन्त्रण का एक आधारभूत साधन है। और भी स्पष्ट रूप में, सामाजिक नियन्त्रण किसी बाहरी शक्ति या साधन के द्वारा नहीं होता है, वह तो अन्तःक्रिया करते हुए व्यक्तियों द्वारा आप-से-आप होता रहता है। प्रत्येक व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों से अन्तः क्रिया करते हुए एक-दूसरे के व्यवहार को नियन्त्रित करते हैं।

अपने उपर्युक्त विचार को और भी स्पष्ट करते हुए पारसन्स ने आगे लिखा है कि सामाजिक नियन्त्रण तब तक सम्भव नहीं है जब तक कि समाज के सदस्यों के उद्देश्यों का संस्थात्मक समन्वय न हो और जब तक उनके मनोभाव व क्रियाएँ परस्पर लागू न हो जाएँ। जब तक प्रत्येक सदस्य का उद्देश्य अलग-अलग रहेगा, तब तक संस्थागत रूप में सामाजिक व्यवस्था का निर्माण नहीं हो सकता और जब तक सामाजिक व्यवस्था का निर्माण नहीं होता है तब तक सामाजिक नियन्त्रण का प्रश्न ही नहीं उठता। उद्देश्यों का संस्थात्मक समन्वय स्वयं ही वह शक्ति होगी जो समाज-विरोधी व्यवहार-प्रवृत्तियों पर रोक लगा सकती है, क्योंकि उद्देश्यों का संस्थात्मक समन्वय होने का अर्थ यह होगा कि उसके पीछे समूह की अभिमति या समूह की शक्ति होगी जोकि व्यक्ति के व्यवहारों को नियन्त्रित कर सकेगी। साथ ही सामाजिक नियन्त्रण किसी एक व्यक्ति द्वारा नहीं हो सकता; यह तो सबके द्वारा परस्पर लागू होता है। यह कार्य तो सामाजिक संस्था के द्वारा ही हो सकता है। एक ही व्यक्ति अनेक प्रकार की भूमिकाएँ अदा कर सकता है और अनेक प्रकार के कार्यों को भी कर सकता है। संस्था का कार्य है कि इन विभिन्न भूमिकाओं एवं कार्यों को समन्वित तथा संगठित करके सामाजिक सन्तुलन बनाए रखे।

यह सर्वथा सच है कि न तो कोई व्यक्ति एक अकेली क्रिया करता है और न ही उसे दूसरों की एक ही प्रकार की क्रियाओं का सामना करना पड़ता है। वास्तव में इन दोनों में ही अत्यधिक भिन्नताएँ पाई जाती हैं। सामाजिक जीवन के अन्तर्गत असंख्य प्रकार की क्रियाएँ तथा विभिन्न सामाजिक सम्बन्ध आ जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं अनेक प्रकार की क्रियाएँ करता है और दूसरों की भी अनेक प्रकार की क्रियाओं का सामना करता है, साथ ही वह विभिन्न सामाजिक सम्बन्धों से स्वयं घिरा होता है और दूसरों को भी घेरे रहता है। पारसन्स का कथन है कि संस्थाओं का एक प्राथमिक कार्य यह है कि इन विभिन्न क्रियाओं तथा सम्बन्धों को सुव्यवस्थित होने में सहायता रकें ताकि वे एक पर्याप्त समन्वित व्यवस्था का निर्माण करें जोकि कर्ता के लिए क्रिया करने में सहायक हो और सामाजिक स्तर पर संघर्ष भी कम हो।

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