पारसन्स के सामाजिक स्तरीकरण व्यवस्था
टालकॉट पारसन्स का भी मत है कि सामाजिक स्तरीकरण व्यवस्था का कुछ निश्चित प्रकार्यात्मक महत्त्व होता है। जिसकी कि विवेचना केवल वैयक्तिक कर्ता के दृष्टिकोण से ही नहीं अपितु सम्पूर्ण समाज-व्यवस्था के सन्दर्भ में भी की जा सकती है। साथ ही, सामाजिक स्तरीकरण मनमाने ढंग से नहीं किया जाता है। इसके कुछ निश्चित आधार होते हैं। पारसन्स के अनुसार ये आधार तीन हैं-
(अ) गुण- जोकि व्यक्तियों को अपने-आप बिना किसी प्रयास के ही समाज द्वारा प्रदत्त (ascribed) किए जाते हैं जैसे वंश-परम्परा। एक ब्राह्मण की स्थिति जातीय-संस्तरण में सर्वोच्च इस कारण है कि उनका जन्म ऐसे परिवार (ब्राह्मण परिवार) में हुआ है जिसे कि हिन्दू- परम्परा के अनुसार उच्च माना जाता है।
(ब) व्यवहार- कुशलत– जिसे कि व्यक्ति अपने स्वयं के प्रयत्न, प्रशिक्षण वअनुभव के आधार पर अपने व्यक्तित्व के लिए अर्जित करता है और जिसके आधार पर व्यक्ति की क्रियाओं का दूसरे की क्रियाओं के सन्दर्भ में सापेक्षा मूल्यांकन होता है एवं उसी के अनुसार उसकी सामाजिक स्थिति का निर्धारण होता है। उदाहरणार्थ, एक प्रोफेसर की स्थिति को प्राप्त करने के लिए एक व्यक्ति काफी प्रयास से आवश्यक शिक्षा व अनुभव को अर्जित करना होता है। व्यक्तियों के विभिन्न समूहों व व्यवहार-कुशलता में पाई जाने वाली भिन्नताओं के आधार पर सामाजिक स्तरीकरण का निर्धारण होता है।
(स) मिलकियत– उन वस्तुओं का जोकि एक व्यक्ति के पास हैं और जिन्हें कि उसने अपने लिए प्राप्त किया है। एक मिलकियत केवल भौतिक वस्तुओं (धन, सम्पत्ति आदि) की ही नहीं अपितु कला-कौशल की भी हो सकती है। सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों व मान्यताओं के अनुसार इस मिलकियत की मात्रा व्यक्ति या समूह की स्थिति को और इसलिए सामाजिक स्तरीकरण को निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण होती है।
पारसन्स के अनुसार, उपरोक्त तीन आधारों को सामाजिक स्तरीकरण के निर्धारक के रूप में किस ढंग से लागू किया जाएगा, यह निर्भर करता है। उस समाज के मान्य उद्देश्यों, आदर्शो तथा मूल्यों पर। उदाहणार्थ, धर्म पर आधारित समाजों में धर्म से सम्बन्धित व्यवहार कुशलताओं का महत्त्व स्वभावतः ही अधिक होगा। इसी प्रकार उपरोक्त तीनों आधारों का मूल्यांकन समाज के केन्द्रीय मूल्य-प्रतिमानों के अनुसार किया जाता है। पारसन्स ने इन केन्द्रीय मूल्य-प्रतिमानों का एक सामान्य वर्गीकरण प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण से चार श्रेणियों में किया है जोकि प्रकार हैं-
1. अनुकूलन (Adaptation) – अर्थात् वह मूल्य-प्रतिमान जिसकी कि आवश्यकता सामाजिक अनुकूलन के लिए होती है। समाज में बहुधा ऐसी अनेक परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जिनके साथ अनुकूलन करना सामाजिक व्यवस्था के अस्तित्व को बनाएँ रखने के लिए जरूरी होता है। यदि ध्यान से देखा जाए तो यह स्पष्ट होगा कि सामाजिक स्तरीकरण का एक प्रकार्य इस अनुकूलन की प्रक्रिया से भी सम्बन्धित है।
2. लक्ष्य-प्राप्ति (Goal achievement) — यह मूल्य-प्रतिमान वैयक्तिक लक्ष्य- प्राप्ति की अपेक्षा सामूहिक या सामाजिक लक्ष्य-प्राप्ति पर अधिक बल देता है अर्थात् व्यक्तियों पर यह दबाव डालता है कि वे सामूहिक लक्ष्यों की अन्तिम रूप से प्राप्ति को अधिक महत्त्व प्रदान करें, न कि अपने स्वयं के लक्ष्यों की प्राप्ति को। सामाजिक स्तरीकरण को भी इसी ढंग से किया जाता है कि सामूहिक लक्ष्यों की अधिकांश पूर्ति हो सके।
3. एकीकरण (Integration) – यह मूल्य-प्रतिमान समाज में एकता व संगठन को बनाए रखने की आवश्यकता पर बल देता है ताकि समाज की विभिन्न इकाइयाँ प्रत्येक स्तर पर एक-दूसरे के साथ इस तरह सहयोगी सम्बन्ध बनाए रखें कि सामाजिक व्यवस्था में एकता व संगठन बना रहे। इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि यह सोचना गलत होगा कि सामाजिक स्तरीकरण के अन्तर्गत विभिन्न स्तर या स्थिति की इकाइयाँ ऊँच-नीच के आधार पर एक-दूसरे से बिल्कुल पृथक रहते हुए कार्य करती हैं। वास्तव में स्थितियों में ऊँचाई-निचाई अथवा उत्तम- अधम का अन्तर या भेद होते हुए भी विभिन्न स्तर के स्थिति-समूह एक-दूसरे से प्रकार्यात्मक सम्बन्ध के आधार पर सम्बन्धित होते हैं। इस प्रकार्यात्मक सम्बन्ध के बिना समाज में न तो प्रकार्यात्मक एकता और न ही संरचनात्मक एकता व संगठन सम्भव है।
4. प्रतिमान-स्थिरता ( Pattern maintenance) – समाज-व्यवस्था के असितत्व व निरन्तरता के लिए यह भी आवश्यक है कि समाज के प्रमुख व महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक प्रतिमानों की स्थिरता को बनाए रखने के लिए उचित मूल्य-प्रतिमान को लागू किया जाए। इसके लिए समाज अनेक उपायों को अपनाता है। सामाजिक स्तरीकरण उनमें से एक है जिसके द्वारा स्थितियों तथा कार्यों का निश्चित विभाजन कर दिया जाता है जिससे कि समाज की विभिन्न इकाइयों में अनावश्यक प्रतिस्पर्धा न हो और महत्त्वपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतिमानों में स्थिरता बनी रहे। उपरोक्त चारों प्रकार के मूल्य-प्रतिमान सभी समाजों में देखने को मिलते हैं क्योंकि लागू इनके बिना समाज व्यवस्था की स्थिरता व निरन्तरता सम्भव नहीं है, हाँ, यह हो सकता है। अलग-अलग समाज में इनमें से एक या दूसरे प्रतिमान को अधिक महत्त्व का माना जाए की में उन्हें प्राथमिकता के एक क्रम में रखा जाए। यही बात सामाजिक स्थितियों के बारे होती है। जैसे-जैसे समाजों का विकास होता जाता है, वैसे-वैसे सामाजिक स्थितियों में विभेद जटिलता भी बढ़ती जाती है। उदाहरणार्थ, अमेरिकन समाज में सामाजिक स्तरीकरण व निभेदीकरण का जो जटिल स्वरूप उभरकर आज सामने आया है उस प्रकार के स्वरूपों का दर्शन एक का विकसित समाज में नहीं हो सकता। अतः पारसन्स के अनुसार, यदि किसी समाज के उपरोक्न चार आधारभूत मूल्य प्रतिमानों के, प्राथमिकता के, क्रम को हम समझ लें तो उस समाज के सामाजिक स्तरीकरण के स्वरूप तथा प्रकृति को तार्किक रूप में समझना एवं उसके बारे में भविष्यवाणी करना हमारे लिए सम्भव होगा।
उपरोक्त विवेचना से यह सष्ट है कि जहाँ मार्क्सवादी सिद्धान्तकारों ने केवल आर्थिक कारक को ही सामाजिक स्तरीकरण का आधार माना है, वहाँ प्रकार्यवादियों ने आर्थिक आधार के अतिरिक्त अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक आधारों को भी प्रस्तुत किया है जोकि स्तरीकरण की व्यवस्था को निश्चित करते हैं। वे इस बात पर बल देते हैं कि सामाजिक-सांस्कृतिक आधार कहीं अधिक जटिल होते हैं और सामाजिक व्यवस्था के अस्तित्व व निरन्तरता के लिए उनका प्रकार्यात्मक महत्व आर्थिक कारकों से कदापि कम नहीं होता। वास्तव में सामाजिक स्तरीकरण के अन्तर्गत सामाजिक स्थितियों के ऊँच-नीच के संस्तरण का निर्धारण समाज द्वारा महत्त्वपूर्ण माने गए प्रकार्यों के सन्दर्भ में होता है।
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