समाजशास्‍त्र / Sociology

पारसन्स के प्रकार्यवाद | Functionalism Parsons in Hindi

पारसन्स के प्रकार्यवाद

पारसन्स के प्रकार्यवाद

पारसन्स के प्रकार्यवाद 

पारसन्स ने लगभग सन् 1947 में अमेरिकन समाजशास्त्रीय परिषद्’ की वार्षिक सभा में भाषण देते हुए इस बात पर बल दिया था कि समाज का वास्तविक अध्ययन संरचनात्मक– प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण से ही किया जाना चाहिए और इसके लिए संरचनात्मक प्रकार्यात्मक सिद्धान्त को विकसित करने की आवश्यकता है। इसका कारण यह है कि सामाजिक व्यवस्था की वास्तविकताओं को तब तक ठीक से समझा नहीं जा सकता जब तक उस व्यवस्था को बनाने वाली इकाइयों के प्रकार्यों को भी न समझ लिया जाए। अतः हमें सामाजिक व्यवस्था के उन विभित्र प्रकार्यात्मक तत्त्वों को देखना चाहिए जोकि उस व्यवस्था के अधिकांश सदस्यों की कम-से-कम न्यूनतम प्राणिशास्त्रीय व सामाजिक-मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। इन तत्वों की क्रियाशीलता में ही सामाजिक व्यवस्था की क्रियाशीलता का रहस्य छिपा होता है। अर्थात् किसी भी व्यवस्था की क्रियाशीलता इसी बात पर निर्भर है कि उसकी निर्णायक अधिकांश इकाइयाँ एक प्रभावोत्पादक मात्रा में अपने-अपने सामाजिक कार्यों का भूमिकाओं को आवश्यक रूप में अदा करें।

पारसन्स ने अपने प्रकार्यवादी दृष्टिकोण को अपनी पुस्तक The Social System (1951) में और भी स्पष्ट किया। आपने इस प्रकार्यावादी सिद्धान्त को विकसित करने में मैलिनोवस्की, परेटो और दुर्थीम आदि विद्वानों के प्रकार्यात्मक सिद्धान्तों से कुछ-कुछ विचारों को ग्रहण किया है। पारसन्स के अनुसार, सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अनेक सामाजिक नियम होते हैं और इनमें से सभी नियमों के कुछ-न-कुछ सामाजिक प्रकार्य अवश्य ही होते हैं। उदाहरणार्थ, व्यावसायिक नियमों को ही लीजिए। इन नियमों के एक विशेष व्यवसाय के क्षेत्र में कुछ निश्चित प्रकार्य होते हैं जैसे उस व्यवसाय में घुसने की दशाओं को निर्धारित करना, उसमें काम करने वाले सदस्यों के अधिकारों तथा कर्तव्यों को परिभाषित करना, मालिक तथा कर्मचारी के बीच सम्बन्धों को निश्चित करना आदि। इसके अतिरिक्त इन नियमों का यह भी प्रकार्य है कि वे उस व्यवसाय से सम्बन्धित विभिन्न व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों तथा अन्तःक्रियाओं को सुविधाजनक बनाते हैं।

पारसन्स का विचार है कि प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था के बने रहने के लिए कुछ प्रकार्यात्मक आवश्यकताएँ होती हैं। इन प्रकार्यात्मक आवश्यकताओं का सम्बन्ध केवल सामाजिक व्यवस्था से ही नहीं अपितु व्यक्ति की वैयक्ति व्यवस्था से भी होता है। वैयक्तिक व्यवस्था में बने रहने की प्रकार्यात्मक आवश्यकता यह है कि व्यक्तित्व के पनपने के लिए साक्थव के साथ-साथ एक सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थिति अवश्य हो जिससे कि व्यक्ति पनपने का और अपनी भूमिका को अदा करने का अवसर मिले। उसी प्रकार सामाजिक व्यवस्था की प्रकार्यात्मक आवश्यकता यह है कि उसको क्रियाशील रखने वाले सदस्यों का अस्तित्व बना रहे और उनका सामाजिक प्राणी के रूप में इस प्रकार विकास हो कि उनका आवश्यक सहयोग और योगदान सम्भव हो। इसीलिए पारसन्स के अनुसार, किसी भी सामाजिक व्यवस्था के लिए वह आवश्यक हो जाता है कि वह अपने सदस्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति करे ताकि उन सदस्यों का अस्तित्व बना रहे। सामाजिक व्यवस्था अपने इस प्रकार्य को उसी अवस्था में निभा सकती है जबकि उसके पास कुछ ऐसे साधन हों जिनसे वह अपने सदस्यों की उन आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके। साथ ही प्रत्येक सामाजिक व्यवसथा के अन्तर्गत सामाजीकरण के कुछ साधन या संसथाओं का होना भी आवश्यक है ताकि बच्चों को सामाजिक प्राणी के रूप में विकसित किया जा सके और उनमें उन आदर्शों तथा मूल्यों को विकसित किया जा सके जोकि सामाजिक व्यवस्था के अनुकूल हों। इसी आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था में आधारभूत मूल्यों की एक व्यवस्था का होना भी आवश्यक है ताकि उसी के अनुसार समाज के सदस्यों के व्यक्तित्व को ढालने का प्रयत्न किया जा सके।

पारसन्स का मत है कि सामाजिक व्यवस्था कि किसी भी अंग को सम्पूर्ण व्यवस्था से पृथक् मानकर समझा नहीं जा सकता क्योंकि इन अंगों में एक प्रकार्यात्मक सम्बन्ध होता है और इस सम्बन्ध के कारण सम्पूर्ण व्यवस्था के सन्दर्भ में ही उनको समझना सम्भव है। यही कारण है कि पारसन्स ने सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था को अपने अध्ययन का आधार माना है ताकि उसके अलग- अलग अंगों या तत्त्वों तथा उनके बीच पाए जाने वाले प्रकार्यात्मक सम्बन्धों को स्पष्ट किया जा सके।

पारसन्स ने लिखा है, “किसी भी सामाजिक व्यवस्था को बनाने वाले अनेक वैयक्तिक कर्ता होते हैं जोकि एक परिस्थिति-विशेष में एक-दूसरे के साथ अन्तःक्रिया करते रहते हैं और जिनके पारस्परिक सम्बन्ध सांस्कृतिक तौर पर निर्धारित संरचना व सहभोगी प्रतीकों की एक व्यवस्था के सन्दर्भ में परिभाषित व परिवर्तित होते रहते हैं।” अतः स्पष्ट है कि सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था का अस्तित्व समाज के अनेक वैयक्तिक कर्ताओं के प्रकार्यात्मक अन्तःसम्बन्धों तथा अन्तः क्रिया पर निर्भर करता है। फलतः सामाजिक व्यवस्था के अध्ययन में इन कर्ताओं के प्रकार्यों की अवहेलना शायद ही की जा सके।

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