पारसन्स के सामाजिक क्रिया एवं सामाजिक क्रिया व्यवस्था
पारसन्स के अनुसार, समाज मनुष्यों के पारस्परिक सम्बन्धों का वह सम्पूर्ण क्षेत्र है जोकि मानवीय क्रियाओं के फलस्वरूप पनपता हैं अतः स्पष्ट है कि मानवीय या सामाजिक क्रियाएँ सामाजिक सम्बन्धों अर्थात् समाज को जन्म देती हैं। परन्तु इस ‘क्रिया’ शब्द से हमारा वास्तविक अर्थ क्या है? अपने समाज क्रिया के सिद्धान्त का प्रारम्भ पारसन्स इसी प्रश्न के उत्तर से करते हैं। उनके अनुसार, “क्रिया कर्ता-परिस्थिति व्यवस्था में वह प्रक्रिया है जिसकी कि किसी अकेले कर्ता (actor) के लिए, या सामूहिक रूप में उस समूह के व्यक्तियों के लिए प्रेरणात्मक महत्ता होती है।” इस परिभाषा में स्पष्ट है कि किसी भी सामाजिक क्रिया के तीन आधार हैं—पहला कर्ता, दूसरा परिस्थिति और तीसरा प्रेरणा। क्रिया को करने वाला कोई या कुछ व्यक्ति अथवा कर्ता होता है; परन्तु इस कर्ता की किसी क्रिया का रूप, स्वरूप या प्रकृति उसकी वास्तविक परिस्थिति पर निर्भर करेगी। फिर भी, केवल परिस्थिति ही क्रिया को उत्पन्न नहीं कर सकती जब कि कर्ता की दृष्टि में उस क्रिया का कोई प्रेरणात्मक महत्त्व न हो। ‘प्रेरणात्मक महत्त्व’ वह शक्ति है जोकि एक व्यक्ति को एक क्रिया को करने की प्रेरणा प्रदान करती है, और कर्ता की वास्तविक परिस्थिति वह ‘रंगमंच’ है जिस पर कि वह क्रिया घटित होती है।
इस दृष्टिकोण से विचार करने पर हमें प्रत्येक क्रिया की एक सामान्य प्रेरक-शक्ति का पता चलता है और वह यह कि प्रत्येक क्रिया सदेव ही किसी बांछित वस्तु को प्राप्त करने की इच्छाओं, या किसी अवालि वस्तु से दूर रहने के प्रयासों से सम्बन्धित तथा उनसे प्रभावित होती है, चाहे ये इच्छाएँ या प्रयत्न कर्ता-विशेष के व्यक्तित्व की संरचना के अनुसार कैसी ही क्यों न हों। दूसरे शब्दों में, एक व्यक्ति एक क्रिया को या तो इसलिए करता है कि वह किसी वस्तु को जिसे कि वह चाहता है, प्राण करना चाहता है, या इसलिए करता है कि वह कुछ चीजों से, जिन्हें कि वह नहीं चाहता, अपने को दूर रखना चाहता है, अर्थात् उनसे बचना चाहता है। परन्तु इस सम्बन्ध में यह स्मरणीय है। कि यह चाहना या न चाहना अर्थात् किस वस्तु की एक व्यक्ति इच्छा करता है और किससे अपने को दूर रखना चाहता है, पूर्णतया निर्भर करता है उस व्यक्ति या कर्ता के व्यक्तित्व की संरचना पर, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की इच्छाएँ तथा भावनाएँ, पसन्द या नापसन्द उसके व्यक्त्त्वि की संरचना के अनुसार अलग-अलग होती हैं।
उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि सामाजिक क्रिया की शक्ति या प्रेरणा व्यक्ति को अपने ही सावयव से प्राप्त होती है। दूसरे शब्दों, में शरीर हीक्रिया की प्रक्रिया को उत्पन्न करने वाला ‘प्रयत्न’ कारक का अन्तिम स्त्रोत है, अर्थात् शरीर से ही वह ‘प्रयत्न’ शक्ति उत्पन्न होती है जोकि व्यक्ति को एक विशेष क्रिया करने को बाध्य करती है, क्योंकि शरीर ही इच्छाएँ रखता है और उनकी तृप्ति चाहता है। इस प्रकार क्रिया की प्रक्रिया शरीर से ही शक्ति लेती है। इतना ही नहीं, कुछ सीमा तक समस्त इच्छाओं की पूर्ति या आपूर्ति का एक शारीरिक महत्त्व भी होता है। इच्छाओं की पूर्ति होने । पर व्यक्ति को सन्तोष और तृप्ति मिलती है और इच्छाओं की पूर्ति न होने पर, या किसी वस्तु वंचित होने पर, उसे दुःख या कष्ट होता है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि समस्त क्रिया को सावयवी आवश्यकता के रूप में समझा या उसकी व्याख्या की जाए। अहम् की आशाएँ अर्थात् कर्ता की अपनी आन्तरिक आशाएँ भी क्रिया की प्रक्रिया में समान रूप से महत्वपूर्ण होती हैं। इन क्रियाओं का सम्बन्ध एक व्यक्ति व्यक्ति के दूसरे व्यक्तियों से सम्बन्धों, सामाजिक परिस्थितियों और उसकी संस्कृतियों से भी होता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि व्यक्ति या कर्ता न तो शून्य में रहता है और न ही शून्य में क्रिया करता है, वह दूसरों के साथ सम्बन्धित रहकर सामाजिक परिस्थिति में एवं अपनी संस्कृति से घिरे रहते हुए निवास करता है, तथा उन्हीं के अनुसार और उनके द्वारा प्रभावित होते हुए क्रिया करता है।
वास्तव में व्यक्ति की इच्छा, अभिलाषा या आशा उसकेक सामाजिक सम्बन्धों, सामाजिक परिस्थितियों और संस्कृति से सम्बन्धित तथा उनसे प्रभावित होती हैं, और इनमें परिवर्तन के अनुसार परिवर्तित होती रहती है। अतः स्पष्ट है कि सामाजिक क्रिया का भी सम्बन्ध कर्ता के सामाजिक सम्बन्धों तथा सामाजिक परिस्थितियों और संस्कृति से होता है।
सामाजिक क्रिया-व्यवस्था के आधार- इस प्रकार, पारसन्स के मतानुसार, सामाजिक क्रिया-व्यवस्था के तीन पक्ष या आधार होते हैं- (1) व्यक्तित्व, (2) संस्कृति, तथा (3) समाज-व्यवस्था।
(1) क्रिया के व्यक्तित्व से सम्बन्धित आधार की जो विवेचना हम पहले ही कर चुके हैं, उससे स्पष्ट है कि प्रत्येक व्यक्ति की इच्छाएँ, भावनाएँ तथा आशाएँ उसके व्यक्तित्व की संरचना के अनुसार होती है। व्यक्तित्व इच्छाओं आदि को जन्म देता है और उनकी पूर्ति या तृप्ति चाहता है, और इस सामाजिक क्रिया इन्हीं इच्छाओं की पूर्ति करने के उद्देश्य से किए गए प्रयत्नों का ही फल होती है।
(2) परन्तु जैसाकि पहले ही कहा जा चुका है, ये सामाजिक क्रियाएँ शून्य में घटित रहा नहीं होती हैं। व्यक्ति अपनी समस्त क्रियाओं को एक सांस्कृतिक व्यवस्था के अन्तर्गत रहक तथा उस व्यवस्था से प्रभावित होते हुए ही करता है। परन्तु यह सांस्कृतिक व्यवस्था क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए पारसन्स ने लिखा है कि प्रत्येक क्रिया की अपनी कुछ परिस्थितियाँ होते हैं, इन परिस्थितियों का व्यक्ति अपनी आशाओं के अनुसार कुछ विशिष्ट ‘अर्थ’ लगाता है।। अर्थ अधिक स्पष्ट होकर ‘चिन्ह’ या प्रतीकों’ में विकसित हो जाते हैं। सामाजिक अन्तः क्रिया के दौरान में ये चिन्ह या प्रतीक’ और भी विकसित, स्पष्ट तथा जनता द्वारा स्वीकृत हो जाते । और कर्ताओं के बीच आदान-प्रदान के साधन के रूप में काम आते हैं। जब ये सब चिन्ह जातीक एक व्यवस्था में संयोजित हो जाते हैं, तब हम उसे ‘सांस्कृतिक व्यवस्था’ कहते हैं। यह सांस्कृतिक व्यवस्था’ व्यक्ति की क्रिया को आधार तथा अर्थ प्रदान करती है।
(3) सामाजिक क्रिया का तीसरा आधार या तत्त्व सामाजिक व्यवस्था है। सामाजिक व्यवस्था तब उत्पन्न होती है जबकि सामान्य अर्थों वाले सांस्कृतिक प्रतीकों की एक व्यवस्था के अन्तर्गत अनेक व्यक्ति अपनी इच्छाओं की प्राप्ति के लिए परस्पर सामाजिक अन्तःक्रियाओं में लगे होते हैं। दूसरे शब्दों में, सामाजिक व्यवस्था का निर्माण परस्पर अन्तःक्रिया करते हुए अनेक व्यक्तियों द्वारा होता है। इस प्रकार की अन्तःक्रियाओं का कम-से-कम एक भौतिक या पर्यावरण सम्बन्धी पहलू होता है और । इनका उद्देश्य अपनी इच्छाओं या आवश्यकताओं की आदर्श पूर्ति होता है। साथ ही, इन अन्तःक्रियाओं में लगते हुए व्यक्तियों का पारस्परिक सम्बन्ध एक सांस्कृतिक व्यवस्था या स्वीकृत प्रतीकों द्वारा परिभाषित तथा संयोजित होता है। इस प्रकार, अति संक्षेप में, सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने के उद्देश्य में लगे हुए व्यक्तियों की अन्तःक्रियाओं का सम्पूर्ण क्षेत्र आ जाता है, जोकि एक सांस्कृतिक व्यवस्था द्वारा संयोजित, परिभाषित तथा संगठित होता है।
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