कृष्ण (वासुदेव) का जीवन परिचय- महाभारत एवं पुराणों में प्रदर्शित श्रीकृष्ण बेहद लोकप्रिय पौराणिक चरित्र रहे हैं। इन्हें विष्णु का अवतार भी कहा जाता है। ये राजा उग्रसेन के मंत्री वसुदेव व उग्रसेन के भाई देवक की पुत्री देवकी की आठवीं संतान के रूप में जन्मे थे। यादवों के अंधक व वृष्टि नाम के दो गणराज्य थे। उग्रसेन अंधकों के गणाध्यक्ष थे। जबकि वसुदेव ऋषियों की शाखा के पुरोधा रहे। उग्रसेन का पुत्र कंस बेहद अत्याचारी था। उसे नारद से यह ज्ञान होने पर कि देवकी का आठवां पुत्र नंद के घर पल रहा है, कंस ने इनका वध करने के कई प्रयास किए, किंतु सभी व्यर्थ हुए। कृष्ण ने कंस द्वारा भेजी पूतना को मार दिया, यमल और अर्जुन नामक दैत्यों को भी मारा। अश्व जैसे शरीर वाले दैत्य केशी का वध किया। इसी तरह कंस के भेजे बकासुर, धेनुकासुर, प्रलंबासुर, अघासुर व वत्सासुर को भी यमलोक पहुंचा दिया, लेकिन नंद कंस के इन कुकृत्यों से परेशान हो गए थे। ये गोकुल त्याग वृंदावन चले गए। यहां कृष्ण ने कालिया नाग को पकड़ा था और उसे दूसरे स्थान पर जाने के लिए विवश किया। कृष्ण के आग्रह पर लोगों ने इंद्र की पूजा न करके प्रकृति के प्रतीक गोवर्धन पर्वत का पूजन शुरू कर दिया। इससे क्रुद्ध होकर इंद्र ने भीषण वर्षा कराई तो कृष्ण गोकुलवासियों की रक्षार्थ सात दिनों तक गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली पर उठाए रहे। गोपियों के संग शरद पूर्णिमा की रात्रि को कृष्ण द्वारा रासलीला रचाने का विवरण पुराणों में भी प्राप्त होता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि शायद यादवों में युवक- युवतियों के परस्पर मिलकर नृत्य-गायन की कोई परंपरा रही होगी। वैष्णव संप्रदाय में महारास का आध्यात्मिक स्वरूप उच्च कोटि का माना गया है।
नंद के यहां कृष्ण का वध कराने में असफल कंस ने इन्हें और इनके भाई बलराम को मथुरा बुलाकर मारने का षड्यंत्र रचा। अक्रूर के साथ दोनों निडर भ्राता मथुरा गए। द्वार पर इन्हें मारने के लिए कंस ने कुवलियापीड़ नामक मदमत्त हाथी खड़ा कर रखा था। दोनों भ्राताओं ने उसे मार डाला। कृष्ण ने मल्लयुद्ध में चाणूर और तोवलक को परास्त किया। फिर कंस की बारी थी। कृष्ण ने केश थाम कर उसे सिंहासन से खींचा और अखाड़े में घुमाकर फेंक दिया। इस तरह एक अत्याचारी शासक का अंत हुआ। वसुदेव और देवकी व उग्रसेन कारागार से स्वतंत्र हुए। उग्रसेन कृष्ण को सिंहासन देना चाहते थे, किंतु कृष्ण ने कहा मैंने राज्य पाने के लिए कंस का वध नहीं किया। सिंहासन पर आप ही बैठिए। मैं गौ सेवा में ही प्रसन्न रहूंगा। श्रीकृष्ण पांडवों के ममेरे भाई भी लगते थे। इनकी माता कुंती जिनका नाम परंपरा का द्योतक भी रहा था, यदुवंशी राजा सूरसेन की कन्या थी। युधिष्ठिर ने जब राजसूय यज्ञ करने का इरादा किया तो जरासंध को परास्त करने के लिए श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम के साथ ब्राह्मण वेश में मगध गए। यहां भीम ने गदायुद्ध में जरासंध का वध कर दिया।
रुक्मिणी से विवाह करने में असफल शिशुपाल श्रीकृष्ण से द्वेष रखता था। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में जब भीष्म के परामर्श पर सर्वोच्च स्थान श्रीकृष्ण को दिया गया तो इससे क्रुद्ध होकर शिशुपाल ने कृष्ण की निंदा की। इसने यज्ञ को भी बाधित करने का प्रयास किया। इस कारण वह श्रीकृष्ण के द्वारा मारा गया। पांडवों के सफल राजसूय यज्ञ से कौरवों के भीतर, जो शत्रुता की भावना उदित हुई उसी का नतीजा था कि द्यूत में युधिष्ठिर सभी कुछ गंवा बैठे। 14 वर्ष का वनवास मिला और अंत में महाभारत का निर्णायक युद्ध हुआ। श्रीकृष्ण ने इस युद्ध को टालने का अथक प्रयत्न किया। ये धृतराष्ट्र से मिले, दुर्योधन को समझाने का प्रयत्न किया, किंतु दुर्योधन तो कर्ण और शकुनी के परामर्श पर इन्हें बंदी बना लेने पर आमादा हो गया। तब श्रीकृष्ण ने अपना विराट रूप प्रदर्शित किया और वहां से कूच कर गए। इस युद्ध में श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथि भर बने। बंधु-बांधवों के मोह की वजह से कर्तव्य-पथ से विचलित हुए अर्जुन को श्रीकृष्ण ने रणक्षेत्र में, जो उपदेश दिया, वह भगवतगीता के नाम से जीवन का सारतत्व है। गीता का ये उपदेश केवल महाभारत में ही है, भागवत् या किन्हीं दूसरे पुराणों में जहां श्रीकृष्ण का विवरण है यह उपलब्ध नहीं है।
पांडवों की जीत के पश्चात् युधिष्ठिर को सिंहासन पर बैठाकर श्रीकृष्ण द्वारिका चले आए। युद्ध में कौरवों का नाश हो जाने पर गांधारी ने श्राप दिया कि श्रीकृष्ण का वंश भी इसी तरह से नष्ट हो जाएगा। शिव पुराण के अनुसार दुर्वासा ऋषि ने एक बार श्रीकृष्ण और रुक्मिणी से अपना रथ खींचने का आग्रह किया। जब ये दोनों रथ खींचने लगे तो ऋषि ने श्रीकृष्ण को खीर देकर कहा कि ये इसे अपने शरीर पर लगा लें, जहां-जहां खीर लगेगी वहां किसी अस्त्र-शस्त्र का प्रहार नहीं होगा।
श्राप के कारण जब यादव प्रवास क्षेत्र में आपस में लड़कर मरने लगे, तब क्षुब्ध होकर श्रीकृष्ण वन में चले गए। एक दिन ये पीपल के वृक्ष के नीचे पैर पर पैर रखकर आराम कर रहे थे कि ‘जरा’ नाम के शिकारी ने इनके पैर को मृग का शीर्ष समझकर बाण चला दिया। इससे श्रीकृष्ण का निधन हो गया। भागवत के अनुसार उस दौरान श्रीकृष्ण की आयु 125 वर्ष थी।
कुछ विशिष्ट अवसरों पर श्रीकृष्ण द्वारा विराट रूप प्रकट करने का विवरण प्राप्त होता है। बाल्यकाल में मिट्टी खाने के कारण यशोदा को मुंह खोलकर दिखाना, मथुरा जाते हुए अक्रूर के समक्ष, हस्तिनापुर में दुर्योधन द्वारा बंदी बनाने की तैयारी के समय और मरुभूमि में उत्तंग ऋषि के सम्मुख, लेकिन इन्हें देवत्व कब प्राप्त हुआ और इनकी उपासना कब से शुरू हुई। यह तय रूप से कहना दुष्कर है। इसी तरह इनका समग्र जीवन वृतांत एक ग्रंथ से प्राप्त नहीं होता। पुराण महज युवा काल यानि मथुरा आने तक का बखान करते हैं। ‘महाभारत’ में शैशव व किशोरावस्था प्रदर्शित नहीं है। जैन साहित्य में श्रीकृष्ण का बखान है, वहां पर भी गौपालक जीवन की कोई जानकारी नहीं मिलती है।
वासुदेव की आराधना का प्राचीनतम विवरण पाणिनी की अष्टाध्यायी से प्राप्त होता है, जिसका सृजन काल छठी शताब्दी रहा है। मेगस्थनीज के यात्रा- विवरण के तहत चौथी शताब्दी ई.पू. तक वासुदेव श्रीकृष्ण की पूजा मथुरा तथा उसके इर्द-गिर्द तक ही होती थी। शनैः शनैः इसका विस्तार हुआ। नारायण की विशिष्टतः अवैदिक देवता के रूप में मान्यता है। कालांतर में नारायण, विष्णु, वासुदेव व कृष्ण एक रूप हो गए। अवतारवाद की कल्पना के रूप में कृष्ण का पूर्ण अवतारी की संज्ञा मिली। भक्ति-भावना के साथ आध्यात्मिकता व चारित्रिक विशिष्टताओं का सम्मिश्रण होता रहा। दक्षिण के अलावा संतों ने भी इसमें 5वीं से 8वीं शताब्दी तक अपना योगदान दिया। दसवीं शताब्दी के दार्शनिकों ने कृष्णभक्ति की दार्शनिक समीक्षा पेश की। आज रामानुज, निंबार्क, माध्वाचार्य सहित कई संप्रदायों के रूप में चिंतन के स्तर पर व भक्ति के रूप में जन-सामान्य के मध्य वासुदेव श्रीकृष्ण का अनन्यतम स्थान है। विभिन्न भाषाओं में श्रीकृष्ण के जीवन प्रहसनों को लेकर विशाल मात्रा में साहित्य सृजित हुआ है और अब भी हो रहा है। श्रीकृष्ण की बाललीला का प्रथम विवरण अश्वघोष के ‘बुद्ध चरित’ में मिलता है। इसका रचनाकाल प्रथम शताब्दी का है। ‘महाभारत’ वर्णित श्रीकृष्ण के देवत्व व ऐश्वर्य में प्रदर्शित बालक्रीड़ाओं व गोपियों के प्रति रसिक प्रसंग का माधुर्य पश्चात्वर्ती रूप से सम्मिलित किया गया था।
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