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भर्तृहरि का जीवन परिचय | Biography of Bhartṛhari in Hindi

भर्तृहरि का जीवन परिचय
भर्तृहरि का जीवन परिचय
भर्तृहरि का जीवन परिचय (Biography of Bhartṛhari in Hindi)- ‘मानव मन की अतल गहराइयों में, जो संस्कार जीवन के छिछले धरातल के स्वार्थ से टकराकर भी जीवंत बने रहते हैं, इन्हें ही भर्तृहरि ने अपने सृजन द्वारा जीवंत किया था।’ साहित्यकार इस बात पर सहमत हैं।

तथापि इतिहासकारों की बात की जाए तो ये स्पष्ट प्रतीत होता है कि भर्तृहरि के बारे में तत्कालीन इतिहासकारों में कोई विशेष रुचि नहीं दर्शाई थी, किंतु भर्तृहरि ने नीति, श्रृंगार और वैराग्य शतक की रचना इस प्रकार से की थी कि ये कालांतर में इनके रचयिता के रूप में प्रसिद्ध हुए।

कला एवं साहित्य के संदर्भ में ये विडंबना अवश्य ही है कि कोई भी व्यक्ति रातोरात प्रसिद्ध नहीं हुआ। संसार में ऐसे कई सयाने लोग हैं, जिन्हें इनकी मृत्यु के भी कई शतकों पश्चात् इनके कार्यों की ही अमर ख्याति प्राप्त हुई। भर्तृहरि भी अपने सृजन कार्य के कारण ही जाने जाते हैं।

यद्यपि लिखित रूप में ऐसा कोई दस्तावेज उपलब्ध नहीं है, जो भर्तृहरि की जीवनी को पुष्ट करता हो, तथापि मौखिक लोक परंपरा के अनुकरण में यह माना जाता रहा है कि भर्तृहरि राजा विक्रमादित्य के ज्येष्ठ भ्राता रहे थे।

भर्तृहरि के शतकों में भी इस प्रकार के संकेत प्राप्त होते आए हैं। मान्यता यह भी रही है कि इन्होंने ही विक्रमादित्य को राज्य सौंपकर साधना के मार्ग पर जाने का निश्चय किया था। इनके इस वैराग्य की वजह रानी पिंगला का विश्वासघात भी बताई जाती है, लेकिन इस बारे में इनके नाम से प्रचलित श्लोक तीनों शतकों में न पाए जाने के कारण से रानी के विश्वासघात के प्रकरण को विद्वान गल्पकथा ही मानते हैं।

वैराग्य लेने के पश्चात् भर्तृहरि ने चुनार, उत्तर प्रदेश को अपनी साधना भूमि बना लिया और वहीं पर शतकों के ज्यादातर भाग का सृजन हुआ। उज्जैन में शिप्रा नदी के तट पर एक प्राचीन भूमिगत मंदिर है। माना जाता है कि राज्य-त्याग के पश्चात् भर्तृहरि ने सबसे पहले यहीं पर आश्रय प्राप्त किया था।

भारत में भर्तृहरि को दो वर्गों के लोग मानते हैं। इनमें एक नाथ संप्रदाय व दूसरे विद्वानों की मंडली के लोग रहे हैं। नाथ अपने भजनों तथा लोकगीतों में इनके चमत्कारों का बखान करते हैं, जबकि विद्वान इनके तीन शतकों के काव्यानंद तक सीमित रहते हैं। ये अद्वैतवादी और वैदिक धर्मावलंबी थे। इनका जीवनकाल सातवीं शताब्दी में माना जाता है।

‘नीतिशतक’ में भर्तृहरि ने उन गुणों को अपनाने पर जोर दिया है, जिनकी अनुपालना से मानव समाज का कल्याण होता है। ‘श्रृंगार शतक’ में कवि ‘काम’ से संचालित मानसिक वृत्तियों का परिचय तथा नारी हृदय की चाहत प्रस्तुत करते हैं। ‘वैराग्य शतक’ में इन्होंने संतोष को परमानंद तथा वैराग्य को इसका एकमात्र साधन प्रदर्शित किया है। तपस्वी जीवन गुजारने वाले के लिए पृथ्वी को शय्या, भुजाएं तकिया और आकाश को ओढ़ना मानना चाहिए। ऐसा भर्तृहरि मानते थे।

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