बेगम हजरत महल का जीवन परिचय (Begum Hazrat Mahal Biography in Hindi)- बेगम हजरत महल की जिंदगी इस बात की मूक गवाह रही है कि इनके जन्म समय में ही मुगल सल्तनत के शौर्य का सितारा डूब चुका था। यद्यपि बेगम हजरत महल का संबंध मुगल खानदान के साथ नहीं था, तथापि भारतीय इतिहास में बेगम हजरत महल का नाम अंग्रेजों की कुटिलता के विरुद्ध इनकी बहादुरी के लिए दर्ज किया जाता है। हिंदुस्तान की 1857 की प्रथम क्रांति में अपनी बहादुरी के लिए विख्यात हज़रत महल अवध के नवाब वाजिद अली शाह की पत्नी थी। हज़रत महल के शुरुआती जीवन के बारे में इतिहासकारों की खामोशी ही सामने आती है। एक तत्कालीन अंग्रेज ने अवश्य लिखा है कि आरंभिक जीवन में वह नर्तकी थी। सच्चाई जो हो, यह सच है कि वाजिद अली शाह के हरम में पचास से ज्यादा महिलाएं थीं। वह अपना संपूर्ण समय नाच-गाने एवं दीगर अय्याशी में गुजारता था। अंग्रेज शनैः-शनैः भारत की देशी रियासतों को निगलने का कार्य किसी अजगर की भांति कर रहे थे। प्रथमतः इन्होंने वाजिद अली को ऐसी संधि पर हस्ताक्षर करने को प्रेरित किया, जिससे अवध का संपूर्ण शासन ईस्ट इंडिया कंपनी के नाम पर हो जाता। जब नवाब ने हस्ताक्षर करने के लिए इंकार कर दिया तो उसे नाकारा व अय्याश घोषित कर कोलकाता में नजरबंद कर दिया गया।
इससे लोगों में स्वाभाविक रूप से नाराजगी पैदा हो गई। इन्होंने वाजिद अली शाह के पुत्र बिरजीस क़दर को सिंहासन पर आरूढ़ कर दिया। वह उस समय महज 11 साल का ही था। इस कारण उसकी मां बेगम हजरत महल ने 7 जुलाई, 1857 को अवध के शासन की कमान अपने हाथ में थाम ली।
कोलकाता, दिल्ली, मेरठ, झांसी, बिठूर और कानपुर आदि में तब तक ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ सशस्त्र बगावत आरंभ हो चुकी थी। बेगम हजरत महल भी इसमें शामिल हो गईं। इन्होंने भी अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष का ऐलान कर दिया। इससे घबराकर लखनऊ और इसके निकटस्थ स्थानों के सभी अंग्रेज लखनऊ में रेजीडेंसी के भीतर जमा हो गए। बेगम व इनके सहयोगी मौलवी अहमदशाह की अगुवाई में अवध की सेना ने रेजीडेंसी को चारों तरफ से घेर लिया। बेगम ने इस क्रांति सेना के लिए अपना संपूर्ण खजाना सामने रख दिया। वह खुद सैनिकों के मध्य जाकर इनका हौसला बढ़ाने का कार्य करती रही थीं। एक बार तो बेगम हाथी पर चढ़कर युद्धस्थल तक भी पहुंच गई थीं। इस प्रकार बेगम की फौज ने कई माह तक अंग्रेजों को रेजीडेंसी से बाहर नहीं फटकने दिया।
मार्च, 1858 में अंग्रेजों की नई कुमुक लखनऊ पहुंची और 6 से 15 मार्च तक बेगम की फौज के साथ इनका भीषण संग्राम हुआ। बेगम को अपने 6 हजार सिपाहियों व बेटे बिरजीस क़दर के साथ भाग निकलने पर विवश होना पड़ा, किंतु बेगम ने हौसला बनाए रखा। मौलवी अहमदशाह को बेगम व नाना साहब ने शाहजहांपुर में अंग्रेजों के घेरे से सुरक्षा प्रदान की थी, किंतु अवध के सिपाही अंग्रेजों की भारी फौज के समक्ष ज्यादा देर टिक नहीं पाए। कुछ देशद्रोहियों ने भी विश्वासघात किया था। महारानी विक्टोरिया ने जब ईस्ट इंडिया कंपनी से सभी अधिकार निज नियंत्रण में ले लिए, तब कई देशी राजाओं ने इसका स्वागत किया, तब भी बेगम हजरत महल इस झांसे में नहीं आईं। इन्होंने प्रजा को सतर्क करने के लिए अपनी तरफ से एक घोषणा भी जारी की। अंततः बेगम को अपने बेटे के साथ नेपाल में शरण लेनी पड़ी। वहीं 1873 में इनका निधन हो गया। काठमांडू के रतन पार्क में आज भी बेगम हजरत महल की कब्र को देखा जा सकता है।
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