स्वामी रामतीर्थ का जीवन परिचय (Biography of Swami Rama Tirtha in Hindi)- ‘संभवतः विधाता भी अपने लिखे लेख की रक्षा के लिए कुछ महानात्माओं को अल्पायु में ही मृत्यु का ग्रास बनाने के लिए काल से मैत्री कर लेता है।’ स्वामी रामतीर्थ के संदर्भ में यह कथन उचित ही प्रतीत होता है। भारतीय अध्यात्म और भारतीय राजनीतिक स्थिति सर्वथा विपरीत होती, यदि स्वामी रामतीर्थ को दो दशक का जीवन और प्राप्त हुआ होता। तथापि 33 वर्षीय जीवन में भी अपने व्यक्तित्व की अमिट छाप इन्होंने छोड़ी है।
भारत के प्रसिद्ध संत, आत्मज्ञानी एवं देशभक्त स्वामी रामतीर्थ का जन्म 22 अक्टूबर, 1873 को दीपावली के अगले दिन अविभाजित पंजाब प्रांत के गुजरांवाला जिले के मुरारीवाला ग्राम में हुआ था। इनका बाल्यकालीन नाम तीरथराम था। इन्होंने कठिन आर्थिक स्थिति में रहते शिक्षा प्राप्त की। जब ये दसवीं की परीक्षा के लिए गुजरांवाला गए तो वहीं इनकी मुलाकात धन्ना भगत नामधारी एक बाल ब्रह्मचारी योगी से हुई। तीरथराम ने इन्हें अपना गुरु स्वीकार किया। गणित इनका सर्वप्रिय विषय था। इन्होंने तुलसी, नानक और सूर जैसे विख्यात भारतीय संतों के साथ गीता, षड्दर्शन, उपनिषद और योगवशिष्ट विषयों का भी गहराई से अध्ययन किया। पश्चिम के महान विचारकों के ग्रंथों का अध्ययन भी समान रुचि से किया।
गणित योग्यता सूची में प्रथम रहने के पश्चात् तीरथराम की दिसंबर, 1895 में लाहौर के मिशन महाविद्यालय में गणित के प्राध्यापक पद पर नियुक्ति हुई, लेकिन अपरिग्रह और त्याग का भाव इनके जीवन में जड़ें जमा चुका था। धन्ना भगत को तब इन्होंने एक पत्र में लिखा, “मेरे लिए तो वृक्ष की शीतल छाया ही आवास का कार्य दे सकती है, भभूत मेरी पोशाक का, शुष्क धरा मेरे शयन का और दो-चार घरों से मांगी भिक्षा मेरे भोजन का।”
एक बार इनका नाम प्रांतीय नागरिक सेवा के लिए अनुशंसित किया गया तो रामतीर्थ ने उसे स्वीकार नहीं किया। इन्होंने अनेक तीर्थस्थलों की यात्राएं कीं। ये द्वारिकापीठ के शंकराचार्य एवं स्वामी विवेकानंद के संपर्क में आए। प्रत्येक बालक में इन्हें कृष्ण ही दृष्टिगत होते रहे। इन्होंने पिता को लिखा था, ‘आपके पुत्र का शरीर तो अब राम के हाथों बिक गया।’ ऐसी स्थिति में गणित की प्राध्यापकी की भला क्या बिसात थी ? त्यागपत्र दे दिया और उर्दू में ‘अलिफ’ शीर्षक से पत्रिका निकाली।
फिर 1900 में पत्नी व बच्चों को ईश्वरेच्छा पर रखकर ‘अलविदा’ ऐ प्यारी राबी, अलविदा’ कहते हुए गंगा तथा हिमालय की सेवा में चले गए। 1901 में संन्यास ग्रहण किया और तीरथराम से रामतीर्थ नाम प्राप्त हुआ। न किसी के शागिर्द रहे, न कभी किसी को शागिर्द बनाया। ‘राम तो राम बनाता है, शागिर्द नहीं बनाता।’ प्रायः यही कह देते, जब कोई शिष्यत्व का आग्रह करता। जापान से सर्वधर्म सम्मेलन की सूचना प्राप्त होने पर ये वहां गए। वहां जिसने भी इनका विलक्षण रूप से आकर्षक व्यक्तित्व देखा तथा ‘ॐ’ का मंत्रोच्चारण सुना, वह बहुत प्रभावित हुआ।
जापान से फिर अमेरिका गए। वहां लोगों को मंत्र दिया, ‘शाश्वत शांति का एकमात्र माध्यम आत्मज्ञान है। स्वयं को पहचानो, तुम स्वयं के विधाता हो। अतः ईश्वरतुल्य बनो।’
1904 में स्वामी रामतीर्थ भारत लौट आए। लोगों ने जब इनसे अपना पंथ बनाने का आग्रह किया तो स्वामी जी का कथन था, ‘भारत में जितनी भी संस्थाएं हैं, ये सभी राम की संस्थाएं हैं। राम एकता के प्रतीक हैं, मतभेद के प्रतीक नहीं।’ ये शंकर के अद्वैतवाद पर जोर देते थे, किंतु उसके लिए स्वानुभव को आवश्यक मानते थे। इनका आग्रह रहता था कि हमें धर्म एवं दर्शन शास्त्र को भौतिक विज्ञान की तरह पढ़ना चाहिए। भारत की आजादी के बारे में इनकी यह भविष्यवाणी सच साबित हुई कि चाहे एक शरीर द्वारा, चाहे अनेक शरीरों द्वारा कार्य करते हुए ‘राम’ प्रतिज्ञा करता है कि बीसवीं शताब्दी के मध्य भाग तक भारत आजाद होकर उच्च गौरव को प्राप्त करेगा। हिंदी के बारे में इन्होंने लाला हरदयाल को लिखा था, ‘हिंदी में प्रचार कार्य शुरू करो। वही आजाद भारत की राष्ट्रभाषा होगी।’ ये जातिभेद और सांप्रदायिकता की भावना से पूर्णतया पृथक थे। 17 अक्टूबर, 1906 को दीपावली के दिन टिहरी (उत्तरांचल) में गंगास्नान करते हुए नदी के भंवर में फंसने के कारण इनका निधन हो गया, किंतु स्वामी रामतीर्थ की जीवनयात्रा एवं इनकी शिक्षाएं इनके नाम को अक्षुण्ण रखेंगी।
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